दैव दैव आलसी पुकारा पर निबंध: मनुष्य के जीवन में परिश्रम और भाग्य—दोनों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। किंतु कुछ लोग परिश्रम के स्थान पर भाग्य को ही सब
दैव दैव आलसी पुकारा पर निबंध (Daiv Daiv Alsi Pukara par Nibandh)
दैव दैव आलसी पुकारा पर निबंध: मनुष्य के जीवन में परिश्रम और भाग्य—दोनों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। किंतु कुछ लोग परिश्रम के स्थान पर भाग्य को ही सब कुछ मान बैठते हैं। वे अपने कर्मों से अधिक अपने भाग्य पर भरोसा करते हैं और अपने असफल होने का दोष ‘दैव’ यानी किस्मत को देने लगते हैं। ऐसे आलसी और अकर्मण्य लोगों के लिए ही यह कहावत बनी है— "दैव–दैव आलसी पुकारा"। इस कहावत का अर्थ है कि आलसी व्यक्ति सदैव अपने भाग्य को कोसता रहता है और अपने कर्मों को सुधारने का प्रयास नहीं करता। यह कहावत हमें सिखाती है कि भाग्य का निर्माण हमारे परिश्रम और कर्मों से होता है, न कि मात्र प्रार्थना करने या किस्मत को दोष देने से।
भाग्य बनाम कर्म
मनुष्य के जीवन में भाग्य का महत्व है, परंतु कर्म के बिना भाग्य भी निरर्थक हो जाता है। यदि कोई किसान अपने खेत में बीज न डाले, उसे समय-समय पर पानी न दे और निराई-गुड़ाई न करे, तो क्या मात्र भाग्य के भरोसे उसकी फसल लहलहा सकती है? यदि कोई छात्र पढ़ाई न करे, केवल परीक्षा में अच्छे अंक आने की प्रार्थना करता रहे, तो क्या वह सफल हो पाएगा? नहीं! यह असंभव है।
भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में कहा है— "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" अर्थात मनुष्य को केवल अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। जो व्यक्ति केवल दैव को पुकारता है और कर्म नहीं करता, वह अपने जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ सकता।
आलस्य का परिणाम
जो व्यक्ति परिश्रम नहीं करता और अपने दुर्भाग्य का रोना रोता रहता है, वह धीरे-धीरे जीवन में पीछे रह जाता है। आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है। यह न केवल उसकी आर्थिक स्थिति को बिगाड़ता है, बल्कि मानसिक और शारीरिक रूप से भी उसे कमजोर बना देता है।
एक आलसी व्यक्ति हमेशा अपनी असफलताओं का दोष दूसरों पर या अपनी किस्मत पर डालता है। वह कभी यह स्वीकार नहीं करता कि उसकी असफलता का कारण उसका स्वयं का आलस्य और अकर्मण्यता है। परिणामस्वरूप, वह अपने जीवन में न तो सफलता प्राप्त कर पाता है और न ही आत्म-संतोष।
इतिहास और उदाहरणों से सीख
इतिहास साक्षी है कि जो लोग अपने भाग्य के भरोसे बैठे रहे, वे कभी आगे नहीं बढ़ सके, जबकि जो लोग अपने कर्म पर विश्वास करते हुए कठिन परिश्रम करते रहे, उन्होंने अपने भाग्य को स्वयं लिखा।
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महात्मा गांधी – यदि गांधीजी ने केवल भाग्य के भरोसे रहकर भारत की स्वतंत्रता की आशा की होती, तो क्या देश स्वतंत्र हो पाता? उन्होंने कठिन संघर्ष किया, सत्य और अहिंसा का मार्ग अपनाया, और भारत को स्वतंत्रता दिलाई।
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अब्दुल कलाम – पूर्व राष्ट्रपति और वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का जीवन भी इसका एक उदाहरण है। उन्होंने गरीबी में जन्म लिया, लेकिन अपने परिश्रम से एक महान वैज्ञानिक बने और भारत को मिसाइल टेक्नोलॉजी में आगे बढ़ाया।
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धीरूभाई अंबानी – धीरूभाई अंबानी ने एक छोटे व्यवसाय से शुरुआत की और अपनी मेहनत व दूरदर्शिता के बल पर एक विशाल व्यापारिक साम्राज्य खड़ा किया। यदि वे केवल भाग्य के भरोसे बैठे रहते, तो क्या यह संभव हो पाता?
समाज में प्रचलित मिथक और उनकी सच्चाई
हमारे समाज में कई बार यह सुना जाता है— "भाग्य में होगा तो मिलेगा ही!" लेकिन यह कथन आधा सच है। भाग्य को हम अपने कर्मों से बदल सकते हैं। मेहनती व्यक्ति के लिए कोई भी लक्ष्य असंभव नहीं होता।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि कुछ लोग जन्म से ही भाग्यशाली होते हैं। लेकिन यह सत्य नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपने परिश्रम और सही दिशा में प्रयासों से अपने भाग्य को बदल सकता है।
परिश्रम का मूल्य
हर सफल व्यक्ति के जीवन में परिश्रम का विशेष स्थान होता है। सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता। दुनिया के जितने भी महान लोग हुए हैं, उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत और लगन से अपने लक्ष्य को प्राप्त किया।
अगर कोई व्यक्ति दिन-रात मेहनत करता है, अनुशासित जीवन जीता है, और अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ता रहता है, तो वह अवश्य सफल होता है। इस संदर्भ में एक प्रेरणादायक दोहा बहुत प्रसिद्ध है—
इसका अर्थ है कि जैसे कुएं में रस्सी के बार-बार आने-जाने से पत्थर पर भी निशान पड़ जाता है उसी प्रकार निरंतर अभ्यास करने से मूर्ख भी बुद्धिमान बन सकता है, ।
निष्कर्ष
"दैव–दैव आलसी पुकारा" यह कहावत हमें जीवन में कर्म की महत्ता को समझने का संदेश देती है। यदि हम केवल भाग्य के भरोसे बैठे रहेंगे और कर्म नहीं करेंगे, तो हम जीवन में कभी सफल नहीं हो सकते। भाग्य उन्हीं का साथ देता है जो स्वयं परिश्रम करते हैं और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। इसलिए हमें आलस्य छोड़कर अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए और पूरी लगन से मेहनत करनी चाहिए। यही सफलता का सबसे बड़ा मंत्र है।
"मेहनत से बड़ा कोई भाग्य नहीं और आलस्य से बड़ा कोई दुर्भाग्य नहीं!"
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