शूद्रक का चरित्र चित्रण: बाण की कादम्बरी की कथा दो जन्मों से सम्बन्धित है। राजा शूद्रक पूर्वजन्म में युवराज चन्द्रापीड था। चन्द्रापीड पूर्वजन्म में चन
शूद्रक का चरित्र चित्रण (Shudrak ka Charitra Chitran)
शूद्रक का चरित्र चित्रण: बाण की कादम्बरी की कथा दो जन्मों से सम्बन्धित है। राजा शूद्रक पूर्वजन्म में युवराज चन्द्रापीड था। चन्द्रापीड पूर्वजन्म में चन्द्रमा था। वह शाप के कारण पृथ्वी पर दो बार जन्म लेता है। प्रथम बार चन्द्रापीड के रूप में जन्म लेकर मित्र वैशम्पायन की मृत्यु के आघात से प्राण त्याग देता है, तत्पश्चात् राजा शूद्रक के रूप में जन्म लेता है। राजा शूद्रक का शारीरिक सौष्ठव अत्यन्त आकर्षक था। उसके चरित्र की विशेषताएँ इस प्रकार कही जा सकती हैं-
महाबलशाली चक्रवर्ती सम्राट् - राजा शूद्रक महाप्रतापी चक्रवर्ती सम्राट् था। उसके पराक्रम के आगे समस्त राजा अपना मस्तक झुकाते हैं और उसकी आज्ञा शिरोधार्य करते हैं। अपने पराक्रम और तेज के कारण वह दूसरे इन्द्र के समान प्रतीत होता था। चक्रवर्ती के लक्षणों से सम्पन्न शूद्रक चारों समुद्रों की मालारूपी मेखलावाली पृथ्वी का स्वामी था - "अशेषनरपतिशिरः समभ्यर्चितशासनः पाकशासन इवापरः, चतुरुदधिमालामेखलाया भुवो भर्त्ता, प्रतापानुरागावनतसमस्तसामन्तचक्रः, चक्रवर्तीलक्षणोपेतः, चक्रधर इव" इति । वह सम्पूर्ण पृथ्वी के भार को हाथों में कंगन के समान अनायास धारण करता था- "वलयमिव लीलया भुजेन भुवनभारमुद्वहन्।"
संयमी - शूद्रक के राजमहल में अनेक स्त्रियाँ उसकी परिचायिकाओं के रूप में कार्य करती थीं। उसे स्नानादि कराती थीं, परन्तु शूद्रक उनके बीच अनासक्त भाव से रहता था। बाण ने शूद्रक के लिए स्पष्ट कहा है- "प्रथमे वयसि वर्तमानस्यापि रूपवतोऽपि सन्तानार्थिभिरमात्यैरपेक्षितस्यापि सुरतसुखस्योपरि द्वेष इवासीत्।" अर्थात् मन्त्रियों के द्वारा सन्तान की आकाङ्क्षा करने पर भी वह स्त्री सुख से विमुख था। वह जितेन्द्रिय था, इन्द्रियों का दास नहीं। बाण पुनः शूद्रक को 'वनितासम्भोगसुखपराङ्मुखः' कहकर उसके संयमी होने का परिचय देते हैं।
शास्त्रपारङ्गत एवं गुणग्राही - राजा शूद्रक समस्त शास्त्रों का ज्ञाता था और दूसरों के गुणों को भी परखनेवाला था। उसके राज दरबार में विद्वानों और गुणीजनों का सदा आदर होता था। अनेक छन्दों का ज्ञाता शूद्रक अपना समय शास्त्रचर्चाओं में व्यतीत था- "कदाचिदाबद्धविदग्धमण्डलः काव्यप्रबन्धरचनेन, कदाचिच्छात्रालापेन, कदाचिदाख्यानकाख्यायिकेतिहासपुराणाकर्णनेन ...।" वह राज सभा में प्रायः विद्वत् सभाओं और गोष्ठियों का आयोजन करता रहता था - "आदर्शः सर्वशास्त्राणाम्, उत्पत्तिः कलानाम्, कुलभवनं गुणानां आगमः काव्यामृतरसानाम्, उदयशैलो मित्रमण्डलस्य, उत्पातकेतुरहितजनस्य प्रवर्तयिता गोष्ठीबन्धानाम्, आश्रयो रसिकानाम्।" वह सभा में लोभरहित विद्वान् मन्त्रियों से घिरा रहता था - "नीतिशास्त्रनिर्मलमनोभिरलुब्धैः स्निग्धैः प्रबुद्धैश्चामात्यैः परिवृतः ।"
सौन्दर्य का प्रशंसक - राजा शूद्रक किसी भी प्रकार के गुण का प्रशंसक है, वह स्वाभाविक सौन्दर्य की भी प्रशंसा करता है। राजसभा में जब चाण्डालकन्या राजा के समक्ष उपस्थित होती है, तो उसके सौन्दर्य को देखकर वह चकित रह जाता है- "अहो! विधातुरस्थाने रूप-निष्पादनप्रयत्नः... मन्ये च मातङ्गजातिस्पर्शदोषभयादस्पृशतेयमुत्पादिता प्रजापतिना अन्यथा कथमियमक्लिष्टता लावण्यस्य।"
धर्मनिष्ठ - राजा शूद्रक धर्म के प्रति आस्था रखता है। उसके दैनिक कृत्यों में ईश्वरोपासना भी सम्मिलित है। पितरों को तर्पण देता है, मन्त्रों से पवित्र जल से सूर्य को अञ्जलि देता है तथा देवालय में शङ्कर की पूजा करता है - "सम्पादितपितृजलक्रियो मन्त्रपूतेन तोयाञ्जलिना दिवसकरमभिप्रणम्य देवगृहमगमत् । उपरचित पशुपतिपूजश्च।"
इस प्रकार पराक्रम का रसिक होते हुए भी विनय का व्यवहार करनेवाला शूद्रक विजय प्राप्ति का उत्कट अभिलाषी एवं अत्यधिक शक्तिशाली था।
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