गाँव के एक कुएं का दृश्य पर अनुच्छेद / निबंध (Gaon ke Kuye ka Drishya Par Nibandh) गाँव के एक कुएं का दृश्य पर अनुच्छेद: गाँव का कुआँ, सिर्...
गाँव के एक कुएं का दृश्य पर अनुच्छेद / निबंध (Gaon ke Kuye ka Drishya Par Nibandh)
गाँव के एक कुएं का दृश्य पर अनुच्छेद: गाँव का कुआँ, सिर्फ पानी का स्रोत भर नहीं, अपितु ग्रामीण जीवन का एक अभिन्न अंग है। कुएँ का निर्माण अक्सर गाँव के बीचों-बीच होता था। कुएँ के चारों ओर का दृश्य अत्यंत मनोरम होता था।
आमतौर पर कुएँ के चारों ओर पक्के पत्थरों से निर्मित, एक ऊँची कच्ची या पक्की दीवार होती थी। इसके शीर्ष पर एक चबूतरा बनाया जाता था, जिस पर लोग बैठकर आराम कर सकते थे या पानी भरने के बर्तन रख सकते थे। कुएँ के भीतर पानी के स्तर को देखने के लिए एक पत्थर का घड़ा डाला जाता था, जिसे ‘डोल’ कहा जाता था।
कुएँ से पानी निकालने के लिए एक चरखी और रस्सी का उपयोग होता था, जिसे ‘घड़ियाल’ कहा जाता था। बाल्टी को कुएँ में डालकर खींचने की यह प्रक्रिया श्रमसाध्य थी, लेकिन साथ ही एक रोजमर्रा की चुनौती भी थी।
सुबह के उजाले के साथ ही कुएँ की रौनक शुरू हो जाती थी। महिलाएँ, लोटे और मटके लेकर कुएँ पर आना शुरू कर देती थीं। उनकी बातचीत, हँसी-ठिठोली से वातावरण गुलजार रहता था। गाँव की ताज़ा खबरें, परिवार की बातें, बच्चों की शैतानी, सब कुछ कुएँ के किनारे बैठकर ही साझा किया जाता था।
कुएँ के पास अक्सर छोटी-मोटी झड़पें भी होती थीं। पानी की कमी या बर्तनों के टकराने से महिलाओं में कहासुनी हो जाती थी, लेकिन ये झड़पें जल्दी ही भूल जातीं। कुएँ के पास ही कपड़े धोने का काम भी होता था। महिलाएँ कपड़े धोते हुए आपस में बातें करतीं, गीत गातीं। यह दृश्य भी अपने आप में मनमोहक होता था।
कुएँ का पानी बेहद मीठा होता था। गर्मी के दिनों में तो यह अमृत के समान लगता था। सुबह-सुबह उठकर कुएँ का ठंडा पानी पीने का एक अलग ही आनंद होता था। कुएँ के पास बैठकर आसमान में तैरते बादलों को देखना, पक्षियों के कलरव सुनना, और हवा का स्पर्श महसूस करना, एक अलग ही शांति देता था।
कुएँ का पानी न केवल पीने के काम आता था, बल्कि कपड़े धोने, जानवरों को पानी पिलाने आदि के लिए भी उपयोग होता था। कुएँ के पास ही जानवरों के लिए पानी की टंकियाँ होती थीं, जहाँ गाय, भैंस और अन्य पशु पानी पीने आते थे। कुएँ के आस-पास की जगह साफ-सुथरी रखने की जिम्मेदारी गाँव के सभी लोगों की होती थी। कोई भी कुएँ के पानी को गंदा नहीं करता था। कुएँ की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता था।
कुएँ के पास अकसर एक बरगद का पेड़ होता था, जिसकी छाँव में बुज़ुर्ग बैठकर दिन का अधिकांश समय बिताते थे। वे युवा पीढ़ी को जीवन के अनुभव और ज्ञान से भरपूर करते थे। बच्चे भी कुएँ के आसपास खेलते-कूदते रहते थे। कुएँ का पानी उनके लिए नहाने-धोने के साथ-साथ खेलने का माध्यम भी होता था।
समय के साथ, कुएँ का महत्व कम होता गया है। नल के पानी की सुविधा आने से लोगों की कुएँ पर निर्भरता कम हुई है। लेकिन फिर भी, गाँव के पुराने लोग कुएँ के प्रति एक विशेष लगाव रखते हैं। उनके लिए कुआँ सिर्फ पानी का स्रोत नहीं, बल्कि संस्कृति और परंपरा का प्रतीक है।
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