अकाल एक भीषण समस्या पर निबंध: भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां लगभग 58% जनसंख्या किसी न किसी रूप में कृषि पर निर्भर करती है। मानसून की बारिशें कृषि का
अकाल एक भीषण समस्या हिंदी निबंध - Akal Ek Bhishan Samasya Hindi Nibandh
अकाल एक भीषण समस्या पर निबंध: भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां लगभग 58% जनसंख्या किसी न किसी रूप में कृषि पर निर्भर करती है। मानसून की बारिशें कृषि का आधार हैं, लेकिन हाल के दशकों में सूखा एक गंभीर और बार-बार आने वाली समस्या के रूप में उभरा है। पिछले कुछ दशकों में भारत ने कई भीषण सूखों का सामना किया है। 2002, 2009, 2015, 2016 और 2019 जैसे वर्षों में सूखे ने देश के विभिन्न भागों को अपनी चपेट में लिया। ये सूखे न केवल कृषि उत्पादन को कम करते हैं, बल्कि पेयजल की कमी, बिजली कटौती और पशुधन की मृत्यु का भी कारण बनते हैं। सूखा एक प्राकृतिक आपदा है, परंतु यह पूर्णतः प्राकृतिक नहीं है। मानवीय क्रियाकलापों ने भी इसकी गंभीरता को बढ़ाया है। यह निबंध भारत में सूखे की गंभीरता, इसके कारणों, प्रभावों और संभावित समाधानों का विश्लेषण करेगा।
इतिहास गवाह है कि सिंधु घाटी सभ्यता के पतन का एक प्रमुख कारण सूखा ही था। वर्तमान परिदृश्य भी चिंताजनक है। लगभग 68% भूमि शुष्क या अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में आने के कारण भारत सूखे के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनडीएमए) के अनुसार, समय-समय पर देश के 30% से अधिक जिले सूखाग्रस्त घोषित किए जाते हैं। यह मात्र आंकड़े नहीं हैं, बल्कि लाखों लोगों की आजीविका और अस्तित्व से जुड़े कठिन सत्य हैं।
सूखे की जड़ें गहरी हैं। जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों में से एक है अनियमित वर्षा पैटर्न। कभी अत्यधिक वर्षा बाढ़ का कारण बनती है, तो कभी सूखा पड़ जाता है। मानव गतिविधियों ने भी सूखे की विभीषिका को बढ़ा दिया है। अत्यधिक भूजल दोहन, वनों की अंधाधुंध कटाई और प्रदूषण के कारण जल संसाधन लगातार कम होते जा रहे हैं। नदियां सूख रही हैं, झीलें अपना अस्तित्व खो रही हैं, तो वहीं मिट्टी की नमी लगातार कम हो रही है। इन परिस्थितियों में सूखे की आशंका सदैव बनी रहती है।
सूखे का प्रभाव बहुआयामी है। सर्वप्रथम कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होता है। खेत सूख जाते हैं, फसलें मुरझा जाती हैं और कृषि उत्पादन में भारी गिरावट आती है। इससे खाद्य सुरक्षा को खतरा होता है और खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि होती है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ टूट जाती है। किसान कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं, पलायन को मजबूर होते हैं। यह ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी और भुखमरी को जन्म देता है।
सूखा केवल कृषि तक सीमित नहीं रहता। पेयजल की कमी एक विकट समस्या बन जाती है। नदियों और तालाबों का जल स्तर घटने से ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में पेयजल की किल्लत हो जाती है। स्वच्छता और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। पशुधन पर भी सूखे का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। चारागाह सूख जाते हैं, पशुओं को पानी नहीं मिलता। मवेशी मरने लगते हैं, जिससे डेयरी उत्पादन कम हो जाता है और ग्रामीण परिवारों की आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत खत्म हो जाता है।
दुष्चक्र यहीं नहीं रुकता। सूखे से प्रभावित क्षेत्रों में रहने के लिए संसाधन कम होने के कारण लोगों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ता है। इससे शहरी क्षेत्रों में गरीबी और झुग्गी बस्तियों की समस्या बढ़ जाती है। इसके अलावा, सूखे के कारण जल विद्युत संयंत्रों में पानी की कमी हो जाती है, जिससे बिजली उत्पादन प्रभावित होता है। बिजली की कटौती उद्योगों और अन्य आर्थिक गतिविधियों को बाधित करती है।
सूखे से निपटने के लिए दीर्घकालिक और अल्पकालिक दोनों तरह के समाधानों की आवश्यकता है। सबसे पहले, जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए वैश्विक स्तर पर ठोस कदम उठाए जाने चाहिए। नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को अपनाना और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना समय की मांग है। राष्ट्रीय स्तर पर, जल संसाधन प्रबंधन को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। वर्षा जल संचयन की पारंपरिक तकनीकों को पुनर्जीवित करने और नई तकनीकों को अपनाने से जल संसाधनों को पुनर्भरित किया जा सकता है। नदियों को जोड़ने वाली परियोजनाओं और ड्रिप सिंचाई जैसी जल-कुशल सिंचाई प्रणालियों को लागू करना भी आवश्यक है।
वनों की कटाई पर रोक लगाना और वृहद वृक्षारोपण अभियान चलाना मिट्टी के कटाव को कम करने और वर्षा जल को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वनों का न केवल पर्यावरण संरक्षण में बल्कि वर्षा चक्र को संतुलित रखने में भी महत्वपूर्ण योगदान होता है।
सूखे से लड़ने के लिए कृषि क्षेत्र में भी आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। सूखा प्रतिरोधी फसलों को विकसित करने और उन्हें किसानों को उपलब्ध कराने पर बल देना चाहिए। साथ ही जैविक खेती को बढ़ावा देना होगा, जिससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति बनी रहे और जल संचय क्षमता में वृद्धि हो। कृषि विज्ञानियों को किसानों को जल प्रबंधन की नई तकनीकों के बारे में जागरूक करना चाहिए।
सूखे की स्थिति से निपटने के लिए आपदा प्रबंधन योजनाओं को मजबूत करना भी आवश्यक है। इसमें सूखे की पूर्व चेतावनी प्रणाली स्थापित करना, सूखा राहत पैकेज प्रदान करना और किसानों को बीज, उर्वरक और सिंचाई के लिए सब्सिडी देना शामिल है। प्रभावित क्षेत्रों में पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए तत्काल कदम उठाए जाने चाहिए।
सूखे की समस्या के समाधान में जनभागीदारी भी महत्वपूर्ण है। सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को लोगों में जल संरक्षण और सूखे के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए अभियान चलाने चाहिए। जल संरक्षण के पारंपरिक तरीकों को अपनाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। वर्षा जल संचयन के लिए छतों का उपयोग करने और पेड़ लगाने जैसी छोटी-छोटी पहल भी सूखे से लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
सूखा एक प्राकृतिक आपदा है, लेकिन यह नियति नहीं है। यदि हम समय रहते जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए ठोस कदम उठाएं, जल संसाधनों का विवेकपूर्ण प्रबंधन करें और कृषि पद्धतियों में सुधार लाएं, तो सूखे से होने वाली तबाही को कम किया जा सकता है। यह आवश्यक है कि हम सब मिलकर सूखे के खिलाफ लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हों और आने वाली पीढ़ी के लिए एक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित करें।
सूखा मात्र एक प्राकृतिक आपदा नहीं है, अपितु यह प्रकृति का संकेत है कि हमने उसके साथ संतुलन बिगाड़ लिया है। अंधाधुंध उपभोग और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का परिणाम विनाशकारी होता है। अतः हमें प्रकृति के साथ सद्भाव बनाकर रहना सीखना होगा। जल है तो जीवन है। आइए, मिलकर जल संरक्षण का संकल्प लें और सूखे के संकट को जड़ से मिटाने का प्रयास करें। तभी हम भारत को एक ऐसा राष्ट्र बना पाएंगे, जो न केवल आत्मनिर्भर है, बल्कि पर्यावरण के प्रति भी सचेत है। यही सच्चे ज्ञान का सार है।
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