गरुड़ध्वज' नाटक के द्वितीय अंक की कथा (सारांश) अपने शब्दों में लिखिए: नाटक के द्वितीय अंक में राष्ट्रीय एकता के भाव पक्ष पर विशेष जोर दिया गया है।
'गरुड़ध्वज' नाटक के द्वितीय अंक की कथा (सारांश) अपने शब्दों में लिखिए
गरुड़ध्वज नाटक के द्वितीय अंक का सारांश: नाटक के द्वितीय अंक में राष्ट्रीय एकता के भाव पक्ष पर विशेष जोर दिया गया है। द्वितीय अंक की घटना भी विदिशा प्रासाद के भीतरी कक्ष से सम्बन्धित है। शुंग साम्राज्य कुरु प्रदेश तक फैला है, उसके पश्चिम यवन शासन है, जिसकी राजधानी तक्षशिला (पेशावर) है। उसका शासक अन्तलिखित है। दोनों राज्यों के सीमा के सैनिकों में परस्पर कुछ विवाद हो जाता हैं, जिसमें शुंग शासक बड़ा कड़ा रुख अपनाता है। इसमें यवन शासक 'अन्तलिखित' और उसका मन्त्री हलोदर (हालिओदर) दोनों आतंकित और क्षुब्ध 'हो जाते हैं। हलोदर भारतीय जीवन और भारतीय संस्कृति के प्रति अत्यन्त ही आस्था रखता है। वह श्रीकृष्ण का भक्त है। वह दोनों राज्यों की मैत्री को दोनों देशों की प्रजा के लिए कल्याणकारी मानता है और शासक से अनुमति लेकर सन्धि का प्रस्ताव लेकर विदिशा पहुँच जाता है। हलोदर विदिशा में उस समय पहुँचता है, जबकि कालिदास ( मेघरुद्र) सेना सहित विक्रम मित्र के आदेश से यवन श्रेष्ठि पुत्री कौमुदी के उद्धार के लिए देवभूति को पकड़ने के लिए जा चुके हैं। कालिदास भी मलयवती और वासन्ती की भाँति ही राजाश्रय में पालित वह व्यक्ति हैं, जिसका उद्धार विक्रम मित्र ने बौद्धों के बिहार से किया है।
विदिशा में विक्रम मित्र से हलोदर की मैत्री वार्ता होती हैं और भारतीय संस्कृति के नये अध्याय का प्रारम्भ होता है। हलोदर प्रजा के हित की सारी शर्तों को मानते हुए विदिशा में शान्ति का स्तम्भ स्थापित करने का प्रस्ताव रखता है, जिसे विक्रम मित्र मान लेता है। हलोदर अपने कुशल शिल्पियों को शीलभद्र नामक कलाकार के नेतृत्व में इस शुभ कार्य के लिए समर्पित करता है। उसके बाद ही सैनिक देवभूति और कौमुदी को लेकर पहुँच जाते हैं। एकान्त पाकर वासन्ती कालिदास को विजयी कार्तिकेय का सम्बोधन कर माला पहनाकर उनका स्वागत करती है और बिना किसी रक्तपात के विजय प्राप्ति के लिए प्रसन्नता व्यक्त करती है। इसी बीच विक्रम मित्र पहुँच जाते हैं। वासन्ती और कालिदास सहम जाते हैं। विक्रम मित्र वासन्ती से कहते हैं कि तुम्हारे पिता अभी आ रहे हैं और वे तुम्हें लेकर काशी जायेंगे। साथ ही वे कालिदास को भी माँग रहे हैं। वासन्ती आचार्य के पास ही रहने की इच्छा व्यक्त करती है। दूसरी ओर कालिदास भी जाना नहीं चाहते। वे कुमार विषमशील का राज कवि, अन्तरंग सखा बनकर रहने की इच्छा प्रकट करते हैं।
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