'गरुड़ध्वज' नाटक के आधार पर आचार्य विक्रममित्र का चरित्र चित्रण: तेजस्वी वृद्ध-आचार्य विक्रममित्र ८७ वर्ष के वृद्ध है, आजन्म ब्रह्मचारी है। वह इस अवस
'गरुड़ध्वज' नाटक के आधार पर आचार्य विक्रममित्र का चरित्र चित्रण
तेजस्वी वृद्ध-आचार्य विक्रममित्र ८७ वर्ष के वृद्ध है, आजन्म ब्रह्मचारी है। वह इस अवस्था में भी तेजस्वी व्यक्तित्व से सम्पन्न हैं। अन्तलिक का मन्त्री हलोदर विक्रममित्र के तेजस्वी व्यक्तित्व से आतंकित दिखाई पड़ता है। नागसेन भी पुष्कर से सेनापति विक्रममित्र की तेजस्विता के विषय में कहता है — "जिस समय विक्रममित्र ने तुम्हारी ओर देखा, तुम्हारा साहस छूट जाएगा।"
अनुशासन प्रिय: आचार्य विक्रममित्र अनुशासन प्रिय व्यक्ति हैं। शासक होते हुए भी वे स्वयं को सेनापति कहा जाना पसन्द करते हैं। यदि कोई भूल से भी उन्हें महाराज कह दे तो कठोर दण्ड का भागी होता है। पुष्कर ने एक बार उनके लिए 'महाराज' शब्द का प्रयोग कर दिया तो भय से थर-थर कांपने लगा. क्योकि वह जानता है कि सेनापति को अनुशासन भंग करना कदापि सहन नहीं होता।
वैदिक संस्कृति के पोषक: सेनापति विक्रमदेव भारतीय संस्कृति के पोषक हैं। बौद्धों एवं जैनों के अत्याचार एवं अनाचार से पीड़ित जनता का दुःख वे अनुभव करते हैं। और भारतीय संस्कृति की प्रतिष्ठा के लिए वे संघर्ष करते हैं। वैदिक संस्कृति एवं धर्म के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा है। पूजा-पाठ एवं धार्मिक अनुष्ठानों में उनकी विशेष रुचि है। विष्णु के उपासक विक्रममित्र ने अपना राजचिह्न भी 'गरुड़ध्वज' रखा है।
देशभक्त: भारत की शक्तिशाली बनाने के लिए विक्रममित्र ने हर सम्भव प्रयास किया। वे विदेशियों से भारत को आक्रान्त होते नहीं देख सकते और चाहते हैं कि शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में भारत विश्व का अग्रणी देश बने। राष्ट्रीय गौरव एवं देश के सम्मान के लिए वे कुछ भी करने को तत्पर हैं। उन्हीं के सद्प्रयासों से कुमार विषमशील ने मालव, अवन्ति एवं काशी को एक राज्य बनाकर केन्द्रीय शासन को सुदृढ़ किया एवं विदेशी आक्रान्ताओं से देश को मुक्ति दिलाई।
न्यायप्रिय: विक्रममित्र एक न्यायप्रिय शासक हैं। जब उन्हें पता चलता है कि काशिराज के सेनापति देवभूति ने एक यवन श्रेष्ठी की कन्या का बलात् अपहरण किया है तो वे कालिदास को काशी पर आक्रमण 'करने की आज्ञा देते हैं। सेनापति को उचित दण्ड देने के लिए भी वे कालिदास को आदेश देते हैं।
उदार एवं विनम्र: सेनापति विक्रममित्र उदार एवं विनम्र हैं। शासक होते हुए भी स्वयं को जनता का सेवक मानते हैं तथा अपने को महाराज न कहलवाकर सेनापति कहलवाना पसन्द करते हैं। वे निरभिमानी व्यक्ति हैं। हलोदर से उनका यह कथन उनकी विनम्रता का द्योतक है— मैं लज्जा और संकोच से मरने लगता हूं राजदूत, जब इस युद्ध का सारा श्रेय मुझे दिया जाता है।
शरणागत वत्सल एवं दृढ़ प्रतिज्ञ: विक्रममित्र शक्ति सम्पन्न होते हुए भी उदार एवं क्षमाशील हैं। जो उनकी शरण में आ जाता है उसे वे उदारतापूर्वक क्षमा कर देते हैं। चंचु और कालकाचार्य को क्षमा प्रदान कर उन्होंने अपनी शरणागत वत्सलता का परिचय दिया है। वे भीष्म पितामह की भांति दृढ़ प्रतिज्ञ एवं आजन्म ब्रह्मचारी हैं। उन्होंने गरुड़ध्वज लेकर प्रतिज्ञा की है कि वे कुमार विषमशील को चक्रवर्ती सम्राट बनायेंगे। उन्होंने यह करके भी दिखा दिया
इस प्रकार कहा जा सकता है कि सेनापति विक्रममित्र 'गरुड़ध्वज' नाटक के सर्वाधिक प्रभावशाली पात्र हैं। उनकी चारित्रिक विशेषताएं तथा केन्द्रीय भूमिका उन्हें नाटक के नायक पद पर प्रतिष्ठित करने लिए पर्याप्त है।
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