ध्रुवस्वामिनी नाटक के आधार पर चंद्रगुप्त का चरित्र-चित्रण कीजिए: 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक का प्रधान पुरुष पात्र चंद्रगुप्त एक ओर तो बड़े भाई का सम्मान करत
ध्रुवस्वामिनी नाटक के आधार पर चंद्रगुप्त का चरित्र-चित्रण कीजिए।
चंद्रगुप्त का चरित्र-चित्रण: 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक का प्रधान पुरुष पात्र चंद्रगुप्त एक ओर तो बड़े भाई का सम्मान करता हुआ अपने पिता द्वारा दिये गये अधिकार की अवहेलना करता है, दूसरी ओर वही चंद्रगुप्त अपने भाई, रामगुप्त के विरुद्ध भी हो जाता है। एक आलोचक के शब्दों में पिता द्वारा दिये गये अपने अधिकारों की अवहेलना करने वाला चंद्रगुप्त महान् नहीं माना जा सकता। उसने विनय के आवरण में अपनी कायरता को छिपाने का प्रयास किया था। इस प्रकार 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक की रचना चंद्रगुप्त के अधिकारों की रक्षा के लिए एक प्रयास है।
चंद्रगुप्त की चरित्रगत विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. विनयशील - चंद्रगुप्त सम्राट समुद्रगुप्त का पुत्र है और रामगुप्त का छोटा भाई है। कुल के गौरव की रक्षा के लिए ही वह राजगद्दी अपने बड़े भाई को दे देता है, यद्यपि उसके पिता ने युवराज पद उसकी वैयक्तिक क्षमताओं और सम्राट के उपयुक्त गुणों की सम्पन्नता के कारण दिया था । ध्रुवस्वामिनी को भी वह अपने कुल गौरव के कारण ही विस्मृत किये हुए है। इसमें उसकी विनयशीलता ही थी - "विधान की स्याही का बिंदु गिरकर भाग्य-लिपि पर कालिमा चढ़ा देता है। मैं आज यह स्वीकार करने में भी संकुचित हो रहा हूँ कि ध्रुवदेवी मेरी है। (ठहरकर) हाँ, वह मेरी है, उसे मैंने आरंभ से ही अपनी संपूर्ण भावना से प्यार किया है......... विनय के आवरण में मेरी कायरता अपने को कब तक छिपा सकेगी।"
2. कुल के गौरव की रक्षा के प्रति कटिबद्ध - चंद्रगुप्त अपने कुल के गौरव की रक्षा करने में तत्पर है। यद्यपि उसका बड़ा भाई रामगुप्त राजा है, परंतु वह तो स्वयं अपनी ही रक्षा में असमर्थता प्रकट कर रहा है, फिर उससे राज्य की और कुल - गौरव की रक्षा हो सकने का प्रश्न ही नहीं उठता है। रामगुप्त में जहाँ समस्त दुर्गुण विद्यमान हैं, वहाँ चंद्रगुप्त में उसके विपरीत गुणों और कर्मों का समावेश है। चंद्रगुप्त का चरित्र एक आदर्श चरित्र है। अपने कुल की लक्ष्मी ध्रुवस्वामिनी को जब वह शकराज की धृष्ट माँग पर अपने कायर भाई द्वारा उसकी शैयासंगिनी बनने के लिए भेजी जाने के प्रस्ताव को सुनता है तो तिलमिला उठता है और अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी कुल-लक्ष्मी के गौरव की रक्षा के लिए तत्पर हो जाता है। इसके लिए वह अपने बड़े भाई को भी भला-बुरा कहने से नहीं चूकता। धर्म- च्युत व्यक्तियों से अपना संबंध प्रगाढ़ करने की बात तो दूर, वह उन्हें अपनाने में भी हिचकने लगता है। वह कहता है - " यह नहीं हो सकता। महादेवी! जिस मर्यादा के लिए जिस महत्व को स्थिर रखने के लिए मैंने राजदण्ड ग्रहण न करके अपना मिला हुआ अधिकार छोड़ दिया, उसका यह अपमान! मेरे जीवित रहते आर्य स्वर्गीय समुद्रगुप्त के गर्व को इस प्रकार दलित न होना पड़ेगा।"
चंद्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी के वेष में शकराज के शिविर में अकेला ही कुछ सामंत-कुमारों के साथ जाकर उसका काम तमाम कर देता है और इस प्रकार कुल और कुल-वधू दोनों के गौरव की रक्षा करने में समर्थ होता है।
3. वीरत्व की साकार प्रतिमा - चंद्रगुप्त वीरता की साकार प्रतिमा है । वह शांत प्रकृति का व्यक्ति है, किन्तु किसी भी प्रकार आत्म-सम्मान के ऊपर आँच नहीं आने देना चाहता है । वीरों का धर्म है कि वे निरीहों की रक्षा करें, भले ही उनका प्राणोत्सर्ग हो जाए। वीरों के समान वह अपने यथोचित कर्तव्यों के प्रति सजग रहता है। ध्रुवस्वामिनी के गौरव की रक्षा करके उसने निरीह जाति के प्रति एक वीर के धर्म का पालन किया है। गुप्त वंश की मर्यादा पर जब आँच आने लगती है तो वह लौह - श्रृंखलाओं को भी तोड़ डालता है। उससे पूर्व वह स्वयं उनमें आबद्ध होकर बिना कोई प्रतिवाद किये ही बंदी हो जाता है । बाद में उसे अपने अधिकारों के प्रति भी सजगता के साथ कहना पड़ता है—“मैं आर्य समुद्रगुप्त का पुत्र हूँ, और शिखरस्वामी तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैं ही उनके द्वारा निर्वाचित युवराज हूँ। तुम्हारी नीचता अब असह्य है। तुम अपने राजा को लेकर इस दुर्ग से सकुशल बाहर चले जाओ।” चंद्रगुप्त यदि चाहता तो उन्हें उसी समय स्वयं दण्ड सुना सकता था, किन्तु यह उसका वीरोचित आदर्श और नम्रता का ही परिचायक है कि राजा को सकुशल बाहर निकालकर भी वह अपनी नीति-कुशलता का परिचय देता है। उचितानुचित का ध्यान उसे है, तभी तो वह शकराज की हत्या के बाद ध्रुवस्वामिनी के पास ठहरना तक उचित नहीं समझता - "मेरा कर्तव्य पूरा हो चुका। अब यहाँ मेरा ठहरना अच्छा नहीं।" ध्रुवदेवी कहती है - " कुमार की स्निग्ध, सरल और सुंदर मूर्ति को देखकर कोई भी प्रेम से पुलकित हो सकता है।" कुमार चंद्रगुप्त को अपने पौरुष पर अदृष्ट और अटूट विश्वास है - " रही अभ्युदय की बात सो तो उन्हें अपने बाहुबल और भाग्य पर भी विश्वास है । "
4. प्रेमी हृदय: चंद्रगुप्त एक आदर्श प्रणय-भावना को भी अपने मन में सँजोये है। वह प्रेम की वास्तविकता को समझता है, किन्तु कर्तव्य की बलिवेदी पर उसे समर्पित कर देता है । उसकी दृष्टि में प्रेम से अधिक महत्व कर्तव्य-पालन का है। ध्रुवदेवी से वह प्रेम करता है - " ध्रुवदेवी मेरी है, वह मेरी है, उसे मैंने आरंभ से ही अपनी संपूर्ण भावना से प्यार किया है।" ध्रुवस्वामिनी उसकी वाग्दत्ता पत्नी है- “मेरी वाग्दत्ता पत्नी मेरे ही अनुत्साह से आज मेरी नहीं रही।" असफलता पर सामान्य प्रेमियों के समान वह बौखला नहीं जाता, पागलों की भाँति जगहँसाई नहीं कराता। वह प्रणय की भावना को अपने मन में ही दबाए रखता है और इस ज्वालामुखी ने उसके समस्त व्यक्तित्व को सुंदर बना रखा है। वह ध्रुवदेवी को किसी भी प्रकार भुला नहीं पाता । ध्रुवदेवी को पुनः अपनाकर उसने एक महागुण और उत्कृष्ट आदर्श धारणा का परिचय दिया है। यह नि:संदेह कहा जा सकता है कि उसके लिए प्रेमी तन की कोई कीमत नहीं, उसके मन की ही कीमत है। प्रसाद ने उसके इस गुण में अपनी विवाह की धारणा को ढाला है। प्रेमिका के हित में अपने प्राणोत्सर्ग तक के लिए उद्यत चंद्रगुप्त का अंतर अत्यंत विमल है। उसका बाह्य शरीर अत्यंत मोहक है। यहाँ कालिदास के 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' की वह उक्ति सही उतरती है। जिसमें कहा गया है कि सुंदर शरीर वाले व्यक्तियों में दुर्गुण नहीं हो सकते।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि पुरुष - पात्रों में चंद्रगुप्त का व्यक्तित्व एक आदर्श भारतीय वीर का व्यक्तित्व है, जिसके लिए कुल, देश और आत्म-सम्मान अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इसके लिए वह अपना सर्वस्व निछावर कर सकता है, किन्तु अन्याय और दुराचार के प्रति संघर्ष करना भी अपना धर्म समझता है। वह पराक्रमी, वीर, प्रेमी और आकर्षक मोहक व्यक्तित्व से सम्पन्न है । उसका चरित्र प्रस्तुत नाटक में भले ही गौण रहा हो फिर भी वह महत्वपूर्ण है।
ध्रुवस्वामिनी नाटक के अन्य चरित्र चित्रण
ध्रुवस्वामिनी नाटक के आधार पर शकराज का चरित्र चित्रण
ध्रुवस्वामिनी नाटक के आधार कोमा का चरित्र-चित्रण
ध्रुवस्वामिनी नाटक की नायिका ध्रुवस्वामिनी का चरित्र चित्रण कीजिये
COMMENTS