कर्मवीर भरत खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य एवं उद्देश्य: कर्मवीर भरत नामक खण्डकाव्य के माध्यम से इसके रचयिता ने रामकथा के महान पात्र भरत के त्यागमय जीवन का त
कर्मवीर भरत खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य एवं उद्देश्य बताइए
कर्मवीर भरत नामक खण्डकाव्य के माध्यम से इसके रचयिता ने रामकथा के महान पात्र भरत के त्यागमय जीवन का तथा आदर्श भ्रातृप्रेम का उदाहरण प्रस्तुत किया है। कवि ने अपनी कल्पना का प्रयोग करते हुए भरत के जीवन को और भी प्रेरणाप्रद बना दिया है। इस खण्डकाव्य से हमें निम्न शिक्षाएँ (सन्देश) प्राप्त होती हैं-
(1) भ्रातृस्नेह: कर्मवीर भरत खण्डकाव्य हमें भ्रातृस्नेह की शिक्षा देता है। राम-लक्ष्मण का स्नेह राम भरत का स्नेह भरत शत्रुघ्न का पारस्परिक स्नेह अनुकरणीय है। भरत की माता ने भरत के लिए राजगद्दी माँगकर संकीर्ण स्वार्थवृत्ति का परिचय दिया था पर भरत ने उस राजगद्दी को स्वीकार न कर आदर्श भाई होने का परिचय दिया। वे साफ कहते हैं कि बड़े भाई के अधिकार पर मैं काबिज नहीं हो सकता। रघुवंश में पिता के बाद ज्येष्ठ पुत्र ही राजगद्दी का उत्तराधिकारी होता है। बड़े भाई रहते भला मैं किस प्रकार इस गद्दी को स्वीकार कर सकता हूँ।
वे चित्रकूट में राम को मनाने जाते हैं और उनकी चरण पादुकाएँ लाकर सिंहासन पर प्रतिष्ठित करते हैं। राम और भरत का पारस्परिक स्नेह अनुकरणीय है। आज भी नयी पीढ़ी को इससे यह शिक्षा मिलती है कि भाई के हक पर अपना अधिकार जमाना कितना अनुचित है।
(2) आज्ञापालन: श्री राम ने अपने पिता की इच्छा जानकर 14 वर्ष का वनवास सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने एकबार भी यह नहीं पूछा कि यह दण्ड उन्हें किस अपराध के लिए दिया गया है। आज की कुतर्क करने वाली नयी पीढ़ी को इससे आज्ञापालन की सीख मिलती है।
गुरु वशिष्ट का कितना आदर है इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि रघुकुल में सभी लोग उनकी आज्ञा शिरोधार्य करते हैं और कोई भी कार्य मुनि वशिष्ठ की आज्ञा के बिना सम्पन्न नहीं होता। भरत ने राम से अयोध्या लौटने का आग्रह अवश्य किया पर जब राम ने इसमें असमर्थता जता दी तो भरत राम की आज्ञा का पालन कर उनकी खड़ाऊँ लेकर चुपचाप अयोध्या लौट आए। इस प्रकार इस कथा का एक उद्देश्य आज्ञा पालन की शिक्षा देन भी है।
(3) जनकल्याण की भावना: खण्डकाव्य में कवि ने जन कल्याण और लोक मंगल की भावना को अधिक उभारकर रखा है। कैकेयी ने जन कल्याण की भावना को ध्यान में रखकर ही राम को वन भेजा था।
(4) भारतीय संस्कृति का सन्देश: धन, वैभव का लोभ त्यागकर जन कल्याण के लिए अपना सब कुछ त्याग करना भारतीय संस्कृति का मूल है, भारतीय संस्कृति त्याग और बलिदान से परिपूर्ण है। प्रस्तुत खण्डकाव्य में इसी भाव को कवि, कैकेयी द्वारा इस प्रकार कहलवाता है-
धन वैभव का दम्भ, भले लगता सुखकर है।
पर जन सेवा राज्य, भोग से भी बढ़कर है।।
आज जब भाई-भाई लड़े रहे हैं कहीं सम्पत्ति के लिए तो कहीं अधिकार के लिए तब कर्मवीर भरत जैसे काव्यग्रन्थों के माध्यम से उन्हें आदर्श भ्रातृत्व की शिक्षा दी जा सकती है। राम भरत से कहते हैं कि यह अयोध्या का राज्य तुम्हारा है, पिता ने तुम्हें दिया है तो भरत उसे ठोकर मारते हुए कहते हैं नहीं राज्य आपका है। हमारे कुल में पिता के बाद ज्येष्ठ पुत्र को राजगद्दी मिलती है। लोभ, लालच को त्यागकर राम-भरत जैसा उदाहरण पेश करना आज के नवयुवकों के लिए प्रेरणाप्रद है यह निःसंकोच कहा जा सकता है।
निश्चय यह कर्मवीर भरत एक सोद्देश्य रचना है। कवि इसके माध्यम से जिन नैतिक मूल्यों की शिक्षा वर्तमान पीढ़ी को देना चाहता है उसमें उसे पूरी सफलता प्राप्त हुई है।
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