भारत में उत्तर औपनिवेशिक काल में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया: उत्तर-औपनिवेशिक काल में भारत के नवीन संविधान के अन्तर्गत स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व, न्
उत्तर औपनिवेशिक भारत में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया पर एक निबंध लिखिए
भारत में उत्तर औपनिवेशिक काल में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया: बहुत कम देश ऐसे थे जहाँ उत्तर औपनिवेशिक काल में लोकतंत्र की प्रक्रिया का निरंतर, अनवरत व स्थायी रूप देखने को मिला इन देशों में कुछ प्रमुख देश इस प्रकार हैं- भारत, जमैका, मॉरिशस, न्यू गिनी आदि । भारत में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया ने आपातकाल (1975-77) का भी दौर देखा किन्तु फिर भी यह प्रक्रिया निरंतर विकास की ओर अग्रसर रही ।
उत्तर-औपनिवेशिक काल में भारत के नवीन संविधान के अन्तर्गत स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व, न्याय, धर्मनिरपेक्षता आदि मूल्यों को स्थान दिया जिन्होंने लोकतंत्र को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करने के साथ-साथ इसके विकास में सहायता प्रदान की। राजनीतिक व प्रशासनिक क्षेत्र में जनता की संपूर्ण व सर्वोच्च भागीदारी सुनिश्चित कर उत्तरदायी सरकार की स्थापना की गई। विभिन्न राजनीतिक दलों तथा वयस्क मताधिकार व निष्पक्ष चुनावों के द्वारा इसे कार्यरुप प्रदान किया गया। एक निश्चित समयावधि में स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की सफलता का प्रमुख आधार है।
भारत में लोकतंत्र से अभिप्राय केवल मताधिकार व चुनावी राजनीति से ही नहीं वरन् सामाजिक व आर्थिक समानता को सुनिश्चित करने से भी है। इसके अतिरिक्त धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त का पालन किया जाता है। राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है तथा सभी नागरिकों को अपने-अपने धर्म का पालन करने की सुविधा प्रदान की गई है। भारत में लोकतंत्र के विकास में अनेक चुनौतियाँ आई किन्तु फिर भी लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया निरंतर जारी रही। स्वतन्त्रता के शीघ्र बाद देशी रियासतों के विलय की समस्या, साम्प्रदायिक दंगे व शरणार्थियों के पुनर्वास की समस्या—ये तीन बड़ी चुनौतियाँ भारतीय लोकतंत्र के समक्ष थी । कुशल नेतृत्व व राजनीतिक सूझबूझ के द्वारा इनका समाधान किया गया। तदुपरान्त भाषायी आधार पर राज्यों की स्थापना की माँग करते हुए आन्दोलन किए गए। भाषायी आयोग की स्थापना कर उसकी संस्तुतियों के आधार पर राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को कायम रखते हुए राज्यों का भाषायी आधार पर पुनर्गठन किया गया। 1960 के दशक में पाकिस्तान व चीन के आक्रमणों का सामना करते हुए भी लोकतंत्र को यथावत कायम रखा गया । किन्तु सन् 1975 में उस समय लोकतंत्र के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया जबकि तत्कालीन प्रधानमन्त्री ने अपने विरोधियों का दमन करने हेतु राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की इसके तहत प्रेस की स्वतन्त्रता का हनन करते हुए सभी विपक्षी नेताओं को जेलों में डाल दिया गया। नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलम्बित कर दिया गया। अन्य शब्दों में, यह काल लोकतंत्र की विकास प्रक्रिया में एक काला अध्याय था। आपातकाल की इस स्थिति के बाद विपक्षी दलों ने एकजुट होकर चुनावी अभियान चलाया तथा कहा कि चुनाव ही तय करेगा कि भारत में लोकतंत्र होगा या तानाशाही । अन्ततः चुनावों में लोकतंत्र की विजय हुई। स्वतन्त्रता के बाद काँग्रेस को पहली बार पराजय का सामना करना पड़ा किन्तु 1977 में सत्ता में आई जनता पार्टी के नेताओं की आपसी प्रतिद्वन्द्विता व देश में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता के कारण जनता ने स्वविवेक का प्रयोग कर काँगेस के पक्ष में मत दिया।
1989 में नौंवी लोकसभा के चुनावों में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह आया कि राजनेताओं के द्वारा धर्म व जाति के आधार पर वोट माँगे गए। यह प्रवृत्ति स्वस्थ लोकतंत्र के विकास में बड़ी बाधा सिद्ध हुई तथा आगामी वर्षों में भी इसका प्रभाव बना रहा। इसी प्रवृत्ति के कारण राजनीतिक दल स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने में असफल रहे तथा गठबंधन सरकारों का एवं राजनीतिक अस्थायित्व का दौर आरम्भ हुआ। सन् 2014 में भाजपा के बहुमत प्राप्त करने से तथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कुशल नेतृत्व से लोकतंत्र को पुनः सही दिशा प्राप्त हो सकी। जनता के विकास व कल्याण, निर्धनता उन्मूलन, साक्षरता अभियान, समतामूलक समाज की स्थापना, बाल व महिला कल्याण, पिछड़े वर्गों व दलित वर्गों के उत्थान व कल्याण की दिशा में सराहनीय प्रयास किए गए हैं। ये प्रयास लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुए हैं। किन्तु इन प्रयासों में निरन्तरता लाने की आवश्यकता है। साथ ही राजनीतिक दलों की सरंचना को भी लोकतान्त्रिक आधार दिया जाना चाहिए।
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