यात्रा जापान की पाठ का सारांश - Yatra Japan Ki Hindi Summary in Hindi: प्रस्तुत रचना "यात्रा जापान की" एक यात्रा वृत्तांत है। ओसाका विश्वविद्यालय, जाप
प्रस्तुत रचना "यात्रा जापान की" एक यात्रा वृत्तांत है। ओसाका विश्वविद्यालय, जापान में सम्पन्न विश्व हिन्दी सम्मेलन में लेखिका ममता कालिया भाग लेने गई। वहाँ मिले अनुभवों एवं प्रसंगों का रोचक वर्णन इस यात्रावृत्त में दिया गया है। जापान के जनजीवन, संस्कृति, कर्तव्यनिष्ठता, शालीनता एवं हिन्दी प्रेम की चर्चा उन्होंने यात्रा "जापान की" वृत्तांत में की है। जापान के 'तोदायजी मंदिर' का भी वर्णन इसमें मिलता है। जापान में हुई तकनीकी प्रगति और जापानियों की कर्म-निष्ठता का परिचय देने के लिए यह पाठ विद्यार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा ।
यात्रा जापान की पाठ का सारांश - Yatra Japan Ki Hindi Summary in Hindi
तोक्यो विश्वविद्यालय के विदेशी भाषा अध्ययन विभाग में आयोजित सम्मेलन तथा ओसाका विश्वविद्यालय में 2010 में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने हेतु छह सदस्यों का जो दल जापान गया उसमें ममता कालिया भी शामिल थीं । प्रतिनिधि मंडल 24 अक्टूबर, 2010 को इन्दिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय विमानस्थल पर पहुँचा जो विश्व का सबसे बड़ा हवाई अड्डा है।
एयर इंडिया के विमान में सवार होकर ये लोग नरीता (जापान) एयरपोर्ट पर पहुँचे। कस्टम पर हमारी उंगलियों की छाप ली गईं, तथा पासपोर्ट को कई बार जाँचा गया। एयरपोर्ट के बाहर तोक्यो विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि बड़ी सी वैन लेकर खड़े मिले। 100 किमी. से ज्यादा सफर तय करके हम लोग तोक्यो पहुँचे। जहाँ सनपेटियो होटल में हमें ठहरा दिया गया। बाहर का तापमान बहुत कम था, पर भीतर कमरे का तापमान इतना ज्यादा था कि हमें खिड़की खोलनी पड़ी। हमारा कमरा सातवीं मंजिल पर था । नीचे सड़क पर तेज रफ्तार से साइकिल चलाती कोई जापानी बाला दिख जाती। हर एक दुकान पर नामपट जापानी, चीनी, अंग्रेजी में लिखे हुए थे। सड़क, होटल एकदम प्रदूषण रहित थे। लोग बहुत कम बोल रहे थे।
तोक्यो विश्वविद्यालय के अतिथि प्रोफेसर सुरेश ऋतुपर्ण आए। वे हमें निकट के भारतीय रेस्त्रां 'कलकत्ता' में ले गए। वहाँ हिन्दी संगीत बज रहा था। डोसा, सांभर और भारतीय मसालों की सुगन्ध छायी हुई थी। सबसे पहले हमें गर्म पानी पिलाया गया। उसके बाद मसाला चाय - दालचीनी, काली मिर्च, चायपत्ती उबालकर दी गई।
इस रेस्त्रां के कारण हम लोगों को जापान में भी भारतीय व्यंजन मिलते रहे और कोई दिक्कत नहीं हुई। दोपहर डेढ़ बजे हम सनपेटियो से तोक्यो विश्वविद्यालय के लिए प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण के साथ निकल पड़े। वहाँ हम रेल से गए। कदम-कदम पर यहाँ रेलवे स्टेशन हैं। हर जगह रंग, रूप और खूबसूरती है- सड़कों, दुकानों और चेहरों पर ।
सुरेश जी नोट डालकर मशीन से टिकट निकालते हैं। हर काम पलक झपकते होता है। रेल में चढ़ने-उतरने की कोई धकापेल नहीं। प्लेटफार्म पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर लाल लकीरें खिचीं हैं। हर डिब्बा ऐन लकीर के सामने आकर रुकता है। चढ़ने, उतरने के लिए अलग-अलग दरवाजे हैं। अतः कोई धक्का-मुक्की नहीं होती। रेल के अन्दर बैठने के स्थान कम, खड़े होने के ज्यादा हैं।
जापानी भाषा चित्रात्मक है। कुछ सीटें विकलांगो, वृद्धों, बच्चों वाली स्त्रियों के लिए आरक्षित हैं। इस पर लिखा है- “कर्टसी सीट्स" अर्थात् सौजन्य स्थान। शालीनता जापान का गुण धर्म है। जापान के लोग बिना अहसान जताए मदद करने बढ़ आते हैं। लोग रेल में भी पढ़ते रहते हैं। बातें कम करते हैं। बातचीत केवल हम लोगों की हो रही थी।
सेमिनार स्थल पर सभागार छात्रों से भरा हुआ था। सभी हिन्दी में वार्तालाप करने की कोशिश कर रहे थे। हर एक के पास मेरी कहानियों से सम्बन्धित कोई न कोई सवाल था।
‘टफ्स' तोक्यो यूनीवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरेन स्टडीज़ के निदेशक प्रोफेसर फुजिई ताकेशी का सम्बन्ध भी हिन्दू कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय से रहा है। अत: मैं, सुरेश और फुजिई ताकेशी एक समूह बनाकर गए। टफ्स में लगभग 50 विदेशी भाषाओं का अध्ययन होता है। जापानी भाषा के प्राचीन से लेकर आधुनिक विकास तक का अध्ययन यहाँ होता है। हिन्दी, उर्दू दोनों भाषाओं में शोधकार्य की सुविधा यहाँ उपलब्ध है।
बाथरूम में जाने पर मैंने देखा कि वॉशबेसिन के सामने लड़कियों की लम्बी लाइन लगी है। पता चला सभी लड़कियाँ खाना खाने के बाद अनिवार्य रूप से दाँत साफ करती हैं। उद्घाटन सत्र में सबने परिचय दिया एवं आलेख पढ़े। छात्रों ने पूरी एकाग्रता से हमें सुना। सत्र के अन्त में उन्होंने हिन्दी में प्रश्न भी पूछे। संचालन करने वाली छात्रा प्रवाहपूर्ण हिन्दी बोल रही थी।
तत्पश्चात् हमें टफ्स का पुस्तकालय दिखाया गया। चार मंजिल के इस पुस्तकालय में विद्युत चालित अलमारियों में रखी पुस्तकें मात्र एक बटन दबाने से सामने उपलब्ध होती हैं। आप जी भरकर पढ़िए, नोट्स बनाइए, वापस बटन दबाइए, अलमारी अपने आप बन्द हो जाएगी। यहाँ हिन्दी, अवधी, ब्रजभाषा, राजस्थानी, भोजपुरी, पहाड़ी, मैथिली की पुस्तकें भी थी। दुर्लभतम पुस्तकों के लिए यहाँ 'नवल किशोर संग्रह था। ' जिसमें 987 ग्रंथ थे। यहाँ 1805 में प्रकाशित 'सिंहासन बत्तीसी' के पृष्ठ मैंने पलटे। टेम प्रेमिर की लिखी 'द हिन्दूज' में हाथ से बनाए चित्र थे जिनसे जाति और उसके व्यवसाय का परिचय मिलता था। सरस्वती, विशाल भारत, माधुरी जैसी पत्रिकाओं के अंक भी यहाँ उपलब्ध थे। यही नहीं यहाँ मुझे फीजी द्वीप में बसे प्रवासी खत पर सुब्रमनी का लिखा हुआ 'डउका पुरान' भी देखने को मिला। यह फीजी सभ्यता का परिचय देने वाला फीजी का प्रथम हिन्दी उपन्यास है।
जैसे-जैसे दिन छिपता है, तोक्यो उजागर होता है। ऊँची-ऊँची इमारतों को देखकर जब लेखिका ने जिज्ञासा की कि 'जापान में' इतने तूफान और भूचाल आते हैं, फिर गगनचुम्बी इमारतें क्यों बनाई जाती है? सुरेश जी ने बताया–‘इनकी हर मंजिल पर इतनी जगह जानबूझकर छोड़ी गई है जो भूकम्प के धक्के सह सके।'
जापान में वैसी ही महँगाई है जैसी विश्व के अन्य देशों में है। यहाँ की मुद्रा येन है जिसकी कीमत लगभग दो रुपये है। छोटे-छोटे उपहार भी मिल-जुलकर हमसे कई हजार येन खर्च करवा देते हैं। अत: सुरेश ऋतुपर्ण हमें ऐसी दुकान में ले गए जहाँ हर माल 100 येन का था । यद्यपि 100 येन में छोटा-मोटा डॉट-पेन ही हाथ आ सका। वापसी पर मित्रों को देने के लिए शू-हॉर्न ( जूते पहनने वाला फार्क) सभी ने खरीद लिए।
हमारा सामान हमें पहले से ही परेशान कर रहा था। तोक्यो से ओसाका जाने के लिए हमें जापान की सर्वाधिक तेज गति वाली रेल ‘शिन्कान्सेन' पकड़नी है। इसे बुलेट ट्रेन भी कहते हैं। जापानी इस रेल से यात्रा करना मात्र एक मौलिक अनुभव मानते हैं। कुछ देर हम हिन्दी के प्रोफेसर इशिंदा की प्रतीक्षा करते हैं जो हल्के बदन के, स्मित मुख वाले युवतर व्यक्ति हैं। वे हमारे लंगड़े सूटकेस को अपने सामान के साथ चलाकर प्लेटफार्म पर ले आते हैं।
बुलेट 16 डिब्बों वाली गाड़ी है, जिसके हर डिब्बे में 1300 यात्रियों के बैठने की जगह है। 1300 फीट लम्बी इस गाड़ी में 40 जनरेटर लगे हैं। यह जब 170 किमी. प्रति घंटे की रफ्तार से चलती है, तो इसे कहीं भी रुकने के लिए कम से कम 5 किमी. की गुंजाइश चाहिए। तोक्यो और ओसाका के बीच 66 गुफाएँ आती हैं जिनकी देखभाल 8600 कर्मचारी करते हैं।
सफर में हमारे आराम का ख्याल रखते हुए हमें 'दाहिने' तरफ की कुर्सियों पर बैठाया गया। रास्ते में फूजी पर्वत के हिमाच्छादित शिखर दिखे। कई यात्री पहाड़ियों को देखकर होठों में बुदबुदा रहे थे। सुरेश ने बताया- 'फूजी पर्वत मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला पर्वत है। ' हमें प्यास लगी थी। पता नहीं कब प्रो. इशिंदा दो बोतल पानी हमारी मेज पर रख गए। पानी के लिए 'मिजु' शब्द का प्रयोग जापानी में होता है। हाँ के लिए 'हाय' और ना के लिए 'इय'। थैंक यू वेरी मच के लिए शब्द है- दूमो आरिगातू।
ओसाका स्टेशन पर उच्चायोग का प्रतिनिधि बड़ी-सी वैन के साथ उपस्थित था। तभी विस्मय के साथ प्रकट हुए रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ वर्ल्ड लैंग्वेजेज़ के निदेशक प्रो. अकिरा ताकाहाशि। तीस साल बाद उन्हें देखा था फिर भी वे लड़के जैसे लगते हैं। हल्का बदन, प्रसन्न वदन। उनके साथ हरजेन्द्र चौधरी भी थे। परदेश में अपने देश के लोग मिलें तो वह देश हो जाता है, इन सबके साथ भाषा हँसने- खेलने लगती है।
ओसाका तक का दृश्य बड़ा मनोरम था। रंग-बिरंगे पेड़। 'ओसाका जो' यहाँ का किला है। 'जो' का अर्थ किला होता है। यह 1585 ई. में तत्कालीन सम्राट तोयोतोमी ने बनवाया था। किले के चारों ओर गहरी खाई, जलाशय हैं। प्रत्येक द्वार पर एक काला विशाल फाटक है। काले पत्थर की दीवारें हैं। 1496 में यहाँ एक पादरी ने आश्रम बनाया था। आग लगने से यह मंदिर नष्ट हो गया। बाद में 'ओसाका जो' बना। 1931 ई. में इसका नवीनीकरण हुआ । इसमें किले का संग्रहालय है। रात के समय यह नयनाभिराम लगता है।
यहीं एक पेड़ के नीचे बैंच पर बैठकर हमने पैक किये हुए शाकाहारी सैंडविच खाए । बच्चा गाड़ी में लेटे बच्चे गटापार्चा के बबुआ से लगते हैं। सुरेश जी ने पूछा- बताइए गटापार्चा क्या होता है ? ताकाहाशि तुरंत बोले 'प्लास्टिक !', शब्दों की जानकारी उन्हें अचूक है।
जापानी लोग अपने सम्राट के प्रति श्रद्धा प्रेम रखते हैं। किले के पथ पर पारंपरिक पोशाक में एक भिक्षुक काँसे का कटोरा लिए भिक्षा ग्रहण कर रहा है।
हमारे पास की बेंच पर एक व्यक्ति घड़ियाल के बच्चे को रंग-बिरंगी पोशाक पहनाए बैठा है। कई लोग उस घड़ियाल के बच्चे के साथ फोटो खिंचवाते हैं। हमारी टोली के कुछ सदस्यों ने भी यही किया।
रात की दावत हरजेन्द्र चौधरी के घर पर थी। यहाँ हरजेन्द्र चौधरी के कहानी संग्रह 'पता नहीं क्या होगा' का लोकार्पण कार्यक्रम था। खाना बनाने का काम दो शोध छात्राओं ने सँभाल रखा था। प्रो. ताकाहाशी का अभिनंदन किया जाता है। हिन्दी, उर्दू बोलने वाले प्रो. यामानेयो जिस तपाक से आदाब अर्ज करते हैं और वे कुरता पाजामा पहनकर आए हैं, उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो लखनऊ के कोई नवाब हों जो ओसाका में बस गए हों। यास्मीन सुल्ताना नकबी भी इलाहाबाद की हैं और वे पिछले पाँच वर्षों से यहीं ओसाका विश्वविद्यालय में अतिथि प्राध्यापक रह चुकी हैं।
अगले दिन यानी 28 नवम्बर को सेमिनार का उद्घाटन होता है। तमाम जापानी हिन्दी भाषी थे, सबसे यहाँ मुलाकात हुई। भारत सरकार के उच्चायुक्त एवं भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् के निदेशक भी मंच पर विराजमान थे। प्रो. तोमियो मिजोकामी प्रथम सत्र के अध्यक्ष हैं। उन्होंने 1951 से 1980 तक के फिल्मी गानों का जापानी अनुवाद किया है। जापान में हिन्दी फिल्मी गाने बहुत पसन्द किए जाते हैं।
भारतीय उच्चायुक्त विकास स्वरूप की किताब पर ऑस्कर विजेता फिल्म 'स्लमडॉग मिलियनेर' बनी, परन्तु इसका कोई शोर उन्होंने नहीं मचाया और दूसरी किताब लिखने में लग गए। उनकी चित्रकार पत्नी अपर्णा से भी हम मिले। वे भी इलाहाबाद की हैं।
प्रो. लक्ष्मीधर जी मालवीय का आग्रह था कि हम उनके घर चलें पर समय की कमी ने हमें ऐसा नहीं करने दिया । यद्यपि उनके बच्चों - अमित और तारा को देखने की इच्छा है। पता चला अब अमित पत्रकार हैं और तारा- एक्यूप्रेशरिस्ट ।
ताकाहाशिसान एक जगह गाड़ी रुकवाकर हमें ढलान पर ले चलते हैं। यहाँ एक जलप्रपात है । रवीन्द्र और अजय गुप्ता कुछ कदम चलकर लौट आते हैं और गाड़ी में बैठ जाते हैं। यहाँ चौसर भूमि पर नन्हा सा बाजार भी है। ताकाहाशिसान हम सबके लिए मिष्ठान खरीदते हैं।
रेल से ‘नारा' पहुँचने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। यहाँ का प्रसिद्ध मंदिर है-तोदायजी जो 743 ई. में बनाया गया। इस मंदिर के अधिष्ठाता गौतम बुद्ध हैं। जिन्हें जापानी में 'दायबुत्सु' कहते हैं । विशाल परिसर में काली भूरी लकड़ी का स्थापत्य देखकर विस्मय होता है। बड़े से आँगन के बीचों-बीच एक गोलाकार वृत्त में आग जलती रहती है। श्रद्धालु यहाँ आकर आरती की जोत की तरह राख अपने माथे पर लगाते हैं। दानपात्र है, पर दान की बाध्यता यहाँ नहीं है। मंदिर के गर्भगृह में गौतम बुद्ध की 55 फुट ऊँची 500 टन भारी कांस्य प्रतिमा है। गर्भगृह को ‘दायबुत्सु–देन' कहा जाता है। बौद्ध प्रतिमा के नीचे एक छोटा-सा मार्ग है। इतना संकरा कि उसमें से आदमी का निकलना कठिन है। इसीलिए यहाँ यह मान्यता है कि जो इस मार्ग को पार कर जाये उसे मोक्ष प्राप्त हो जाएगा। हरजेन्द्र चौधरी हम सबके मना करते-करते भी उसे पार कर जाते हैं। तोदायजी के बरामदे में एक अन्य मूर्ति 'भारद्वाज' नाम से जानी जाती है। बुद्ध की ही मुद्रा में बैठी इस मूर्ति के बारे में यह प्रचलित है कि इसके जिस अंग का स्पर्श किया जाए, छूने वाले के उस अंग का दर्द दूर हो जाएगा। ममता जी ने इसके घुटनों का स्पर्श किया क्योंकि घुटनों में दर्द रहता था पर कुछ भी अन्तर न पड़ा।
उनके मंदिर से जुड़े बाजार में अनेक वस्तुएँ बिक रहीं थी । हमने कुछ स्मृति चिन्ह खरीदे। चीनी सामान सस्ता जरूर है पर जापानी हस्तशिल्प जैसा नही। तोदायजी मंदिर से जुड़ा एक हिरन - वन है जिसके हिरन हमारी गायों के बछड़े जैसे हैं। क्यों न हों क्योकि यहाँ सैलानी बिस्कुट के पैकेट खरीदकर उन्हें खिलाते हैं। प्रो. ताकाहाशिसान उन्हें बिस्कुट न खिलाकर केले खिलाते हैं । हिरनों का हौसला इतना बुलंद है कि एक हिरन तो मेरे हाथ से अधखाए केले को छीनकर खा जाता है।
एक जमाने में ‘नारा’ जापान की राजधानी हुआ करता था। यहाँ यूनानी, तुर्की, चीनी सभ्यताओं के प्राचीन अवशेष अब भी मिलते हैं। बौद्ध मंदिरो में प्राचीन विचारधारा एवं आकृतियाँ हैं। यहाँ अंधविश्वास नहीं है। ओसाका की 100 येन वाली दुकान पर हमने एक छोटा-सा पौधा और पर्स खरीदा। पता चला कि पौधे को हवाई यात्रा में नहीं ले जा सकते। एक मित्र ने सुझाव दिया इसे कागज में लपेटकर अटैची में एक ओर रख दो, आठ-दस घंटे तक यह आराम से हरा भरा बना रहेगा। मैंने ऐसा ही किया। सामान कार्गों में पहुँच गया। मैंने सबसे पहले पौधा निकाला वह जीवित था, जापान की यादों की तरह ।
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