बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम की अवधारणा और विशेषताएं: पाठ्यक्रम का बाल केन्द्रित प्रारुप विद्यार्थियों को उनके वास्तविक वातावरण में सक्रिय रखकर अध्ययन- अध्
बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम की अवधारणा और विशेषताएं
बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम की अवधारणा: शिक्षा के क्षेत्र में मनोविज्ञान के पर्यावरण ने एक नये युग की शुरूआत की है। शिक्षा का स्वरूप शिक्षक केन्द्रित के स्थान पर बाल केन्द्रित हो गया है। इस कारण बाल केन्द्रित शिक्षा के सही क्रियान्वयन हेतु शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष पाठ्यक्रम है। क्योंकि शिक्षक अधिगम की प्रक्रिया की सम्पूर्ण प्रक्रिया पाठ्यक्रम के इर्द-गिर्द ही घूमती है। शिक्षाविद्, नीति निर्माताओं व पाठ्यक्रम निर्माताओं के लिए मनोविज्ञान के उन सभी तत्वों को जानकर एवं उसके अनुरूप पाठयक्रम निर्माण करना अनिवार्य हो जाता है, जो कि बालक के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकें।
पाठ्यक्रम का बाल केन्द्रित प्रारुप विद्यार्थियों को उनके वास्तविक वातावरण में सक्रिय रखकर अध्ययन- अध्ययापन की बात करता है। अर्थात पाठ्यचर्या का यह प्रारुप शिक्षण को वास्तविक जीवन से अलग नहीं मानता है। पाठ्यक्रम के बाल केन्द्रित प्रारूप के निर्माण में शिक्षक एवं विद्यार्थी दोनों की सक्रिय भूमिका होती है। दोनों मिलकर पाठयचर्या के लिए योजना बनाते हैं, उसके उद्देश्य तय करते हैं, कार्य-कलाप तथा प्रयोग में लाए जानेवाले साधनों को तय करते हैं। इस तरह के पाठ्यचर्या प्रारुप के समर्थकों में जॉन डीवी, रुसो, पेस्टालॉजी, फ्रॉबेल का नाम उल्लेखनीय है। पाठ्यक्रम का संगठन करते समय बालक की रूचि, आयु, अभियोग्यता, मानसिक बौद्धिक स्तर आदि सभी पक्षों को दृष्टिगत रखते हैं। पाठ्यक्रम का गठन करते समय मनोविज्ञान की सहायता से यह ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है कि शिक्षक बालक के साथ कैसा व्यहार करें ? बालक में अधिगम अभिप्रेरणा विकसित करने हेतु कौन सी विधि प्रयुक्त की जाएं। विभिन्न नवीन शिक्षण विधियों के माध्यम से बालकों में अधिगम, रूचि, जिज्ञासा योग्यता विकसित करना । मनोविज्ञान ने पाठ्यक्रम निर्माण करने में बालक की आवश्यकता, रूचि, जिज्ञासा स्तर, अधिगम स्तर, व अभिप्रेरणा स्तर जैसे महत्वपूर्ण आयामों को विशेष महत्व दिया है।
बाल केंद्रित पाठ्यक्रम की विशेषताएं
- सरंचनात्मक अधिगम को प्रोत्साहित करता है
- पाठ्यवस्तु को अलग-अलग विषयों में नहीं बल्कि अनुभव की इकाइयों के रुप में विभाजित किया जाता है।
- कर के सीखने पर ज़्यादा बल देता है, फलस्वरुप विद्यार्थी शिक्षक और वातावरण के मध्य अंतर्क्रिया को भी बल मिलता है।
बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम की सीमाएं या दोष
- पाठ्यवस्तु निश्चित नहीं होती है।
- बाल केन्द्रित पाठ्यचर्या में अत्यधिक क्रियाशीलता का भय बना रहता है।
- कर के सीखने की विधि हर तरह के पाठ्यवस्तु के लिए उपयुक्त नहीं होती है।
- बालकों की रुचियों एवं मानसिक स्तर में भिन्नता कारण अलग-अलग पाठ्यचर्या उपलब्ध कराना संभव नहीं होता।
- बाल केन्द्रित पाठ्यचर्या में बालक की प्रकृति एवं रुचियों को महत्त्व दिए जाने के कारण अच्छे व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों का निर्माण तो किया जा सकता है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वे अच्छे नागरिक भी सिद्ध होंगे।
- विद्यालय के कार्यक्रम में अव्यवस्था आ जाने की संभावना बढ़ जाती है।
- विभिन्न विषयों को समुचित एवं सुनिश्चित ढंग से पढ़ाये जाने के कारण ज्ञान क्षेत्र सीमित रह जाता है।
- बाल केन्द्रित पाठ्यचर्या में समाज की अवहेलना होती है।
बालक की अभिवृद्धि, परिपक्वता विकास एवं पाठयक्रम में सम्बन्ध (Relation of Curriculum and Growth, Maturity, Development of Child )
पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय बाल केन्द्रित पक्ष का महत्वपूर्ण योगदान है, क्योंकि सीखना बालक की शरीर की स्थिति तथा उसके नाड़ी संस्थान की स्थिति पर निर्भर करता है । कम उम्र के बालक के लिए शारीरिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में ऊँचाई आधारित क्रियाओं को सम्मिलित करने से अधिगम में अवरोध उत्पन्न होना स्वाभाविक है। अधिगम परिस्थितियों का चयन बालक के शारीरिक विकास की दृष्टि से किया जाना चाहिए अर्थात् पाठ्यक्रम का निर्धारिण करते समय शारीरिक अवस्था को दृष्टिगत रखा जाना चाहिए।
परिपक्वता से आशय बालक की आयु में वृद्धि के साथ समुचित ढंग से होने वाले शारीरिक मानसिक परिवर्तनों से होता है। बालक के शारीरिक विकास के दौरान आने वाले परिवर्तन कुछ विशिष्ट अभिप्रेरणा का परिणाम होते हैं। परिपक्वता की स्थिति के किए गए प्रयास उपलब्धि का परिणाम या उपलब्धि में सहायक होते हैं। पाठ्यक्रम नियोजन में अधिगम अनुभवों को बालक के परिपक्वता स्तर से सम्बद्ध किया जाना आवश्यक है।
बालक का शारीरिक-मानसिक विकास आयु के अनुसार होता है। किन्तु उस विकास क्रम में आयु वर्षानुक्रम के साथ-साथ पर्यावरण (वातावरण) की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वातावरण या पर्यावरण पाठ्यक्रम का ही एक रूप है। अतः पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय बालक की शरीरिक बौद्धिक, मानसिक क्षमता, दक्षता को दृष्टिगत रखा जाना अनिवार्य है। इसके लिए परिपवक्ता एवं विकास क्रम जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। पेस्टालॉजी ने विकास क्रम को पाठ्यक्रम निर्माण का प्रमुख आधार माना है।
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