मनुष्य के श्वसनांगों का वर्णन करते हुए श्वसन की क्रियाविधि को समझाइए। मनुष्य में प्रमुख श्वसनांग फेफड़े (lungs) हैं तथा इनके सहायक अंग हैं - नासिका (n
मनुष्य के श्वसनांगों का वर्णन करते हुए श्वसन की क्रियाविधि को समझाइए।
- मनुष्य के श्वसन तंत्र का सचित्र वर्णन कीजिए।
- मनुष्य के श्वसन अंग कौन-कौन से होते हैं ?
- फेफड़ों की संरचना का वर्णन कीजिए।
- श्वसन विधि पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
मानव के श्वसन अंग (Respiratory Organs in Hindi)
मनुष्य में प्रमुख श्वसनांग फेफड़े (lungs) हैं तथा इनके सहायक अंग हैं - नासिका (nose), नासामार्ग (nasal passage), कण्ठ या स्वर यंत्र (larynx) व श्वास नलिका (trachea)। इसके अतिरिक्त मुखगुहा, ग्रसनी, तन्तु पट तथा वक्षीय कटहरा भी श्वसन में सहायक अंग हैं।
1. नासिका एवं नासामार्ग (Nose and Nasal Passage) चेहरे पर स्थित नासिका दो बाह्य नासाछिद्रों (nostrils) के द्वारा बाहर खुली होती है। नासिका नासागुहा में खुलती है। नासागुहा पीछे एक टेढ़े-मेढ़े, घुमावदार मार्ग में खुलती है, जिसे नासामार्ग कहते हैं। यह सीलिकायुक्त श्लेष्मक कला (mucous membrane) से ढका रहता है। इसकी कोशिकाएँ श्लेष्म स्रावित करती रहती हैं। नासामार्ग मुखगुहा के पीछे ग्रसनी (pharynx) में खुलता है।
2. स्वरयंत्र (Larynx) - ग्रसनी घाटी अथवा कण्ठ द्वार या ग्लॉटिस (glottis ) द्वारा - श्वास नलिका में छिद्र होता है। स्वरयंत्र एक छोटे से बाक्स की तरह होते हैं। यह कई उपास्थियों से मिलकर बना होता है तथा अन्दर से यह श्लेष्मक झिल्ली से ढका रहता है। इसके अन्दर की गुहा में दो सफेद मजबूत स्वर रज्जु होते हैं, जिनमें कम्पन होने से ध्वनि उत्पन्न होती है।
3. श्वास नलिका (Trachea or Wind Pipe ) - यह कण्ठ से फेफड़ों तक फैली नलिका होती है। यह 10-11 सेमी लम्बी, 1.5 से 2.5 सेमी व्यास की होती है। वक्ष में पहुँचकर यह दो छोटी नलिकाओं में बंट जाती है, जिन्हें श्वसनियाँ या ब्रॉकाई (bronchi) कहते हैं। प्रत्येक शाखा अपनी ओर के फेफड़े में प्रवेश करती है। श्वास नाल की दीवार में उपास्थियों के अधूरे छल्ले होते हैं। इन छल्लों से श्वास नाल पिचकने नहीं पाती तथा वायु के आने-जाने में कोई बाधा नहीं पड़ती है। ऐसे छल्ले श्वसनियों में भी होते हैं।
सम्पूर्ण नलियों में भीतर श्लेष्मक कला होती है जो श्लेष्मक उत्पन्न करती है। इनमें अनेक रोमाभ (cilia) भी होते हैं, जो श्लेष्म और उसमें फँसी गन्दगी को कण्ठ की ओर ढकेलते रहते हैं। ऐसे रोमाभ नासामार्ग में भी होते हैं।
4. फेफड़े या फुफ्फुस (Lungs) - फेफड़े मुख्य श्वसनांग हैं। ये वक्षगुहा (thoracic cavity) में हृदय के इधर-उधर स्थित अत्यन्त कोमल तथा लचीले अंग होते हैं। प्रत्येक फेफड़े के चारों ओर एक गुहा होती है, जो दोहरी झिल्ली से घिरी होती है। इस गुहा को फुफ्फुस गुहा (pleural cavity) कहते हैं। इसमें एक लसदार तरल पदार्थ भरा रहता है। झिल्लियों को फुफ्फुसावरण (pleura) कहा जाता है। यह गुहा तथा तरल फेफड़ों की सुरक्षा करते हैं।
फेफड़ों की संरचना (Structure of Lungs in Hindi)
श्वसन तंत्र के प्रमुख अंग फेफड़े हैं। फेफड़े संख्या में दो होते हैं। दायां फेफड़ा बायें फेफड़े की अपेक्षा कुछ बड़ा होता है। यह अधूरी खाँचों के द्वारा तीन पिण्डों में बँटा रहता है। बायां फेफड़ा एक ही अधूरी खाँच द्वारा दो पिण्डों में बँटा होता है। इन खाँचों के अलावा फेफड़ों की बाहरी सतह सपाट तथा चिकनी होती है किन्तु भीतरी संरचना एकदम मधुमक्खी के छत्ते की तरह स्पंजी एवं असंख्य वायुकोषों (alveoli) में विभक्त रहती है, जिनकी संख्या वयस्क व्यक्ति में लगभग पन्द्रह करोड़ होती है।
प्रत्येक वायुकोष का सम्बन्ध एक श्वसनी से होता है। प्रत्येक श्वसनी, जो श्वास नलिका के दो भागों में बँटने से बनती है, फेफड़े के अन्दर प्रवेश कर अनेक शाखाओं-उपशाखाओं में बँट जाती है। अत्यन्त महीन उपशाखाएँ जो अन्तिम रूप से बनती हैं, कूपिका नलिकाएँ ( alveolar ducts) कहलाती हैं। प्रत्येक कूपिका नलिका के सिरे पर अंगूर के गुच्छे की तरह अनेक वायुकोष जुड़े रहते हैं। प्रत्येक वायुकोष अति महीन झिल्ली का बना होता है। इसको बनाने वाली कोशिकाएँ चपटी होती है। इसकी बाहरी सतह पर रुधिर कोशिकाओं (blood capillaries) का जाल फैला रहता है। यह जाल फुफ्फुस धमनी के अत्यधिक शाखान्वित होने से बनता है।
इन कोशिकाओं में शरीर का आक्सीजन रहित रक्त आता है तथा इसमें कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है। यह कार्बन डाइऑक्साइड वायुकोष की वायु में विसरित हो जाती है। बाद में ये कोशिकाएँ मिलकर फुफ्फुस शिरा बनाती हैं।
श्वसन की क्रियाविधि (Mechanism of Respiration in Hindi)
एक निश्चित दर से (12 से 15 बार प्रति मिनट) बाहरी वायु को फेफड़ों में बार-बार भरना और निकालना ही श्वसन (श्वासोच्छ्वास) की प्रक्रिया है। इसे फेफड़ों का वायु संचालन या संवातन (ventilation of lungs) भी कहते हैं। यह एक यांत्रिक क्रिया (mechanical process) होती है।
श्वसन की क्रिया को पदों में समझा जा सकता है पहला, जिसमें वायु फेफड़ों में भरती है, निश्वसन (expiration) कहलाती है। ये दोनों प्रक्रियाएँ डायफ्राम तथा पसलियों के मध्य स्थित बाह्य तथा अन्तरापर्शुक पेशियों (intercostal muscles) के कारण सम्पन्न होती है। डायाफ्राम द्वारा होने वाली श्वसन क्रिया को उदर श्वासोच्छ्वास श्वसन (abdominal breathing) तथा अन्तरापर्शुक पेशियों से सम्पन्न होने वाली क्रिया को पर्शुक श्वसन (costal breathing) कहते हैं। ये क्रियाएँ निम्नलिखित प्रकार से सम्पन्न होती हैं-
1. निश्वसन (Inspiration) - वक्षगुहा के अधर तल पर स्थित डायफ्राम विश्रामावस्था में गुम्बदनुमा होता है, लेकिन जब रेडियल पेशियाँ सिकुड़ती हैं तो डायफ्राम गुम्बद की तरह न रहकर पश्च दिशा में हटता हुआ चपटा हो जाता है। इसके चपटे हो जाने से वक्षीय गुहा का आयतन बढ़ जाता है। इसी समय बाह्य अन्तरापर्शुक पेशियाँ सिकुड़ती हैं, पसलियाँ आगे को खिसकने के साथ कुछ बाहर भी खिसकती हैं और स्टर्नम नीचे को झुकता है। पसलियों के खिसकने से वक्षीय गुहा का आयतन पार्श्व दिशा में तथा कुछ नीचे की ओर बढ़ जाता है। इस प्रकार पसलियाँ, स्टर्नम तथा डायफ्राम सभी वक्षीय गुहा का आयतन बढ़ाते हैं। वक्षीय गुहा का आयतन बढ़ने के साथ फेफड़ों का भी आयतन बढ़ने लगता है और वे फूल जाते हैं। फेफड़ों के फूलने के कारण फेफड़ों के अन्दर वायु का दबाव कम हो जाता है। दबाव एक-सा रखने के लिए वायुमंडल से वायु फेफड़ों में स्वतः खिचती चली जाती है। इस प्रकार वायु के फेफड़ों के अन्दर तक पहुँचने से अन्तःश्वसन की क्रिया पूर्ण हो जाती है।
2. निःश्वसन (Expiration ) - सामान्य दशाओं में तो निःश्वसन बगैर किसी पेशी संकुचन के ही होता रहता है। केवल बाह्य अन्तरापर्शुक पेशियों तथा डायफ्राम में शिथिलन से ही पसलियाँ, स्टर्नम तथा डायफ्राम अपनी पहले की स्थिति में लौट आते हैं जिससे वक्षीय गुहा के आयतन पर दबाव पड़ता है फलस्वरूप फेफड़ों की वायु बाहर निकल जाती है। इस प्रकार के निःश्वसन को निष्क्रिय निःश्वसन (passive expiration) कहते हैं। इस श्वसन के विपरीत जन्तु जब परिश्रम करता है, दौड़ता अथवा लम्बी साँस भरता है, तो निःश्वसन (inspiration) की गति बढ़ जाती है। इस समय सक्रिय निःश्वसन (active expiration) होता है। सक्रिय निःश्वसन के अन्तर्गत अन्तरापर्शुक पेशियों के सिकुड़ने से पसलियाँ पीछे तथा स्टर्नम के ऊपर की ओर खिसककर अपनी पूर्व दशा में आ जाती हैं। इस दशा में वक्षीय गुहा का आयतन कम होकर उतना ही रह जाता है जितना की निश्वसन से पहले था। इसी समय डायफ्राम की सिकुड़ी हुई पेशियों में शिथिलन होता है जिसके कारण यह अधिक चपटा न रहकर गुम्बद के समान हो जाता है। इस प्रकार डायफ्राम तथा पसलियों के सामूहिक प्रयास से वक्षीय गुहा का आयतन घट जाता है। फेफड़ों पर दबाव पड़ता है तथा वायु बाहर निकल जाती है।
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