श्रवण कुमार खंडकाव्य का सारांश - Shravan Kumar Khand Kavya ka Saransh: कविवर डॉ0 शिवबालक शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य 'श्रवण कुमार' नौ सर्गों में बँटा
श्रवण कुमार खंडकाव्य का सारांश - Shravan Kumar Khand Kavya ka Saransh
श्रवण कुमार खंडकाव्य का सारांश- कविवर डॉ0 शिवबालक शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य 'श्रवण कुमार' नौ सर्गों में बँटा हुआ है। पौराणिक कथा पर आधारित इस खण्डकाव्य की पृष्ठभूमि वाल्मीकि रामायण से बीज रूप में ली गयी है और कवि ने अपनी कलात्मक काव्य-प्रतिभा से उसे युगानुरूप परिवेश में पुनरुद्भाषित करने का प्रयास किया है। इस श्रवण कुमार खण्डकाव्य की कथा मंगलाचरण को छोड़कर अयोध्या आश्रम, आखेट, श्रवण, दशरथ, सन्देश, अभिशाप, निर्वाण और उपसंहार नौ सर्गों में विभक्त है। मंगलाचरण में कवि सरस्वती और गणेश की वन्दना करके खण्डकाव्य का प्रारम्भ करता है।
श्रवण कुमार प्रथम सर्ग का सारांश
प्रथम सर्ग: अयोध्या वर्णन - खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग में अयोध्या की स्थापना, नामकरण, राजकुल- वैभव तथा उसकी उपलब्धियों का विवरण देकर कथा की पृष्ठभूमि तैयार की गयी है। तत्कालीन वातावरण के चित्रण में कवि ने अपनी युग-बोध की जागरूकता को भी स्थान-स्थान पर परिलक्षित कराने का प्रयास किया है। 'स्वर- वेधी' कुमार दशरथ पावसी - सौन्दर्य और सरसतापूर्ण वातावरण में राजसी वृत्ति के अनुसार सरयू वन में मृगया के लिए योजना बनाते हैं।
श्रवण कुमार द्वितीय सर्ग का सारांश
द्वितीय सर्ग: आश्रम- खण्डकाव्य के दूसरे सर्ग में सरयू नदी से थोड़ी दूर स्थित उस आश्रम का मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया गया है, जहाँ श्रवण कुमार और उनके अन्धे माता-पिता ऋषि - दम्पति के रूप में शान्त और सुखमय जीवन बिता रहे हैं। आश्रम और वन- प्रदेश के प्रकृति-चित्रण में कवि ने जीवन की सहजता, पशु-पक्षियों एवं कीट-पतंगों की निर्वैरता का उल्लेख करते हुए युग-बोध के नये परिवेश में भावात्मक एकता एवं समाजवादी झाँकियों को निरूपित किया है।
भारतीय गृहस्थ के अध्यात्मपरक जीवन के आदर्शों का आधिभौतिक मान्यताओं के दो किनारों के बीच बहती हुई भावधारा का चित्रण भी इस सर्ग में बड़ी सुन्दरता से हुआ है। युवक श्रवण कुमार इसी पवित्र वातावरण में अपने चरित्र का विकास करता है। वह नित्य अपने अन्धे माता-पिता को श्रद्धापूर्वक स्नान कराता है, पूजा सामग्री जुटाता है। नित्य माता-पिता की सेवा में लीन रहता है। दोनों को 'काँवर' में बिठाकर देवालयों और तीर्थ स्थानों पर ले जाता है।
श्रवण कुमार तृतीय सर्ग का सारांश
तृतीय सर्ग: आखेट - एक दिन गोधूलि बेला में महाराज दशरथ भोजन करने के बाद विश्राम कर रहे थे कि उनके मन में आखेट की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने सारथि को बुला भेजा और रात्रि के चतुर्थ पहर में प्रस्थान करने की इच्छा प्रकट की। रात्रि में सोते समय राजा ने स्वप्न में देखा कि एक हिरन का बच्चा उनके बाण से मर गया है और हिरनी खड़ी हुई आँसू बहा रही है।
राजा दशरथ बहुत सबेरे रथ पर सवार होकर शिकार के लिए चल दिये। वे शीघ्र ही अपने इच्छित स्थान पर पहुँच गये। रथ से उतरकर वे घने वन में एक अन्धकारमय स्थान में छिपकर बैठ गये। धनुष-बाण सँभाले वे किसी वन्य पशु की प्रतीक्षा करने लगे।
श्रवण कुमार चतुर्थ सर्ग का सारांश
चतुर्थ सर्ग: श्रवण कुमार - इधर श्रवण कुमार के माता-पिता को प्यास लगी। उन्होंने श्रवण कुमार से जल लाने को कहा। श्रवण जल लेने के लिए नदी के तट पर गया और जल भरने के लिए कलश नदी के जल में डुबोया। घड़े के शब्द को राजा दशरथ ने किसी वन्य पशु की आवाज समझा। उन्होंने तुरन्त शब्दवेधी बाण चला दिया। बाण श्रवण कुमार को लगा। श्रवण कुमार चीत्कार करता हुआ धरती पर गिर पड़ा। मानव स्वर सुनकर राजा दशरथ चिन्तित हो उठे और 'प्रभु कल्याण कर' कहते हुए नदी के किनारे जा पहुँचे।
राजा दशरथ के बाण से घायल श्रवण नदी के तट पर पड़ा था। वह अपने माता - पिता की चिन्ता में व्याकुल था और बिलख- बिलखकर कह रहा था कि मेरे असहाय अन्धे माता-पिता का भविष्य क्या होगा ?
श्रवण कुमार पंचम सर्ग का सारांश
पंचम सर्ग: दशरथ - पंचम सर्ग में दशरथ के अन्तर्द्वन्द्वों का चित्रण हुआ है। आश्रम को जाते समय रास्ते में आत्म-चिंतन द्वारा दशरथ पश्चात्ताप कर रहे हैं। दशरथ अपने अपराध की गम्भीरता और अक्षम्यता पर विचार करते हैं और कहते हैं-
करें मुनीश क्षमा वे होंगे, निस्पृह करुणा सिंधु अगाध,
पर मेरे मन न्यायालय में, क्षम्य नहीं है यह अपराध ।
किस प्रकार किन शब्दों में मैं दुःखत वृत्त सुनाऊंगा ?
हो ऋषि कोप अनल से बच कर भी कैसे सुख पाऊंगा ?
इन्हीं विकल्पों-संकल्पों के साथ कुमार दशरथ आश्रम में पहुँच जाते हैं।
श्रवण कुमार छठा सर्ग का सारांश
छठा सर्ग: सन्देश — छठे सर्ग में श्रवण कुमार के माता-पिता की वृद्धावस्था की असहाय स्थिति तथा ममता भरे वात्सल्य का चित्रण है तथा दूसरी ओर दशरथ के क्षोभ भरे आत्म - लांछन का मार्मिक चित्रण है। ऋषि- दम्पति श्रवण कुमार के आगमन की प्रतीक्षा में चिन्तित और व्याकुल हैं। दशरथ के पैरों की आहट सुनकर वे बोल उठते हैं
कहाँ पुत्र थे ? मेरी लकुटी, वाहन मेरे — मेरी आँख,
दीन-कृष्ण की सोन चिरैया, भीगे हुए विहग की पाँख।
गति हीनों की गति उर- उपनिधि, अंध लोचनों के आलोक,
जीवन के प्रिय जीवन हो तुम, करो बोल कर हमें अशोक।
दशरथ कहते हैं—“कृपया जल लीजिए" यह सुनते ही वे पूछ बैठते हैं-
“आप कौन हैं? मेरा पुत्र जल लाता होगा। आप किसलिए जल लाये हैं अतिथिवर ? आपके शुभागमन से मेरा आश्रम पवित्र हो गया।"
कुमार दशरथ एक ओर अपने कुकृत्य और दूसरी ओर ऋषि - दम्पति के आतिथ्य -भाव की तुलना पर आत्मग्लानि से झुक जाते हैं। वे अपना परिचय देते हुए अपने अपराध को ऋषि- दम्पति के सामने कहते हैं और क्षमा-याचना करते हैं। दोनों माता-पिता पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनते ही शोक सन्तप्त हो जाते हैं और पुत्र को देखने के लिए कुमार दशरथ के साथ चल पड़ते हैं।
श्रवण कुमार सातवाँ सर्ग का सारांश
सातवाँ सर्ग: अभिशाप - खण्डकाव्य का सातवाँ सर्ग सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण है। इसमें करुण रस का सांगोपांग परिपाक हुआ है। माता-पिता श्रवण कुमार की पूर्व स्मृतियों को दोहरा कर करुण विलाप करते हैं—
कौन हमारे लिए विपिन से कन्द मूल फल लायेगा ?
कौन अतिथि सा हमें खिलाने, में सच्चा सुख पायेगा ?
मज्जन- स्नान कार्य सम्पादन, हित जल लायेगा अब कौन ?
पूजा के उपचार हमारे हेतु जुटायेगा अब कौन ?
रो-रो कर पिता कहते हैं— “पुत्र ! तुम मेरे लिए सदैव जल लाया करते थे, अब क्या तुम मुझसे ही जलांजलि लोगे ? तुम हमारे आगे-आगे चलते रहे, क्या मृत्यु में भी आगे चल दिये ? तुम हमें साथ लेकर अनेक तीर्थों का दर्शन कराते रहे, क्या अब अकेले ही स्वर्ग का उपयोग करने चल पड़े? यहाँ तुम्हारा कैसा अविवेक है? यदि तुम अपने पिता से रुष्ट हो तो मुझसे भले ही मत बोलो, किन्तु अपनी वृद्धा असहाय माता के प्रति तो अपने कर्तव्य को याद करो। "
तुमने दशरथ ? हा लेने में, नाम सिहर जाता है प्राण,
कहूँ अधिक क्या छोड़ एक दो, मुझ पर भी कराल निज बाण।
अन्त में व्यथित हो पिता कुमार दशरथ से कहते हैं- “राजन् ! आपने यह दुःखद समाचार सुनाकर मेरे रोम-रोम में सैकड़ों बाण बेध दिये हैं। यदि आप अपना अशुभ कर्म मुझसे आकर न कहे होते तो आज मेरे ललाट के टुकड़े-टुकड़े हो गये होते। आपने अपना अपराध स्वीकार कर लिया अन्यथा आपको महापाप लगता। आर्य - पुत्र होकर भी आप गोहत्या के पापी होते। यदि जान-बूझकर आपने बाण चलाये होते तो आज रघुवंश की कोई रक्षा न कर पाता। भला बस इतना ही हुआ कि आपने अनजान में ही बाण चलाया; किन्तु फिर भी आपको अपराध का दण्ड तो मिलेगा ही। जो बबूल लगायेगा उसे आम कैसे मिल सकता है।" अन्त में वे शाप देते हैं-
पुत्र-शोक में कलप रहा हूँ, जिस प्रकार मैं अज नन्दन।
सुत वियोग में प्राण तजोग, इसी भाँति करके क्रन्दन ।।
शाप सुनकर माता को खेद होता है । दशरथ तो सुनकर काँप जाते हैं।
श्रवण कुमार आठवाँ सर्ग का सारांश
आठवाँ सर्ग: निर्वाण-अभिशप्त दशरथ दुःखी हैं, सारथि भी शोक सन्तप्त है। उधर श्रवण कुमार के माता-पिता भी रोते-रोते निरुपाय हो जाते हैं। अतः अन्त में उनकी मोह - निद्रा टूटती है। ज्ञान - ज्योति के कारण उनका पैतृक कर्त्तव्य जाग उठता है। पिता क्रोध के वशीभूत होकर दशरथ को शाप देने के लिए पश्चाताप करते हैं। किन्तु अब शाप - निवारण के लिए कोई उपाय तो है ही नहीं। वे विवश हैं। अन्त में रोना रोककर जलांजलि देने के लिए उठते हैं। श्रवण दिव्य रूप में पिता को आश्वस्त करता है। साथ ही माता-पिता भी आवागमन के बन्धनों से मुक्त हो गये हैं। उन्हें वह स्थान मिला है जहाँ-
नहीं जहाँ कुंठाएँ होंगी, होगा हेय, न होगा राग ।
होंगे सुलभ अयोध्या, काशी, मथुरा और प्रयाग ।।
इतना कहकर दिव्य शरीरधारी श्रवण कुमार स्वर्गलोक को चल पड़ता है। जलांजलि देकर सूत द्वारा निर्मित चिता पर प्राण दे देते हैं और उनकी जीवात्मा ब्रह्म में लीन हो जाती है।
श्रवण कुमार नवाँ सर्ग का सारांश
नवाँ सर्ग: उपसंहार- खिन्न दशरथ सारथि सहित अयोध्या लौट आते हैं। लोकापवाद के भय से यह घटना कोई किसी से नहीं कहता। किन्तु राम-वन-गमन के समय मृत्यु के कुछ पूर्व दशरथ को मुनि का उक्त शाप याद आता है और वे कौशल्या से कहकर अपने मन की व्यथा को दूर कर देते हैं।
COMMENTS