सत्य की जीत खण्डकाव्य का सारांश - Satya ki Jeet Khand Kavya ka Saransh: कवि द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी द्वारा प्रणीत 'सत्य की जीत' खण्डकाव्य का कथानक मह
सत्य की जीत खण्डकाव्य का सारांश - Satya ki Jeet Khand Kavya ka Saransh
सत्य की जीत खण्डकाव्य का सारांश: कवि द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी द्वारा प्रणीत 'सत्य की जीत' खण्डकाव्य का कथानक महाभारत महाकाव्य के सभा पर्व से लिया गया है। इसमें द्रौपदी चीरहरण की घटना का प्रमुखता से उल्लेख है। द्रौपदी का चीर हरण महाभारत की एक अत्यन्त लोकप्रिय एवं मार्मिक घटना है। 'सत्य की जीत' कथा का आधार महाभारत के सभा पर्व में दूत पर्व के 67वें अध्याय से 75वें अध्याय तक की कथा है। प्रस्तुत खण्डकाव्य का सारांश इस प्रकार है- धर्मराज युधिष्ठिर दुर्योधन द्वारा आयोजित जुये में अपना सर्वस्व और स्वयं को हारने के पश्चात् द्रौपदी को हार जाते हैं। कौरव भरी सभा में द्रौपदी को लेकर निर्वस्त्र कर उसे अपमानित करना चाहते हैं। दुर्योधन दुःशासन से द्रौपदी को भरी सभा में लाने का आदेश देता है । दुःशासन द्रौपदी का केश खींचते हुए उसे भरी सभा में लाता है। द्रौपदी को यह अपमान असह्य हो जाता है। वह सिंहनी की भाँति दहाड़ती हुई दुःशासन को न्याय की चुनौती देती हुई सभा में उपस्थित होती है-
अरे ! दुःशासन निर्लज्ज ! देख तू नारी क्रोध |
किसे कहते उसका अपमान, कराऊँगी मैं उसका बोध ।।
समझ कर एकाकी निःशंक लिया मेरे केशों को खींच।
रक्त का घूँट पिये मैं मौन, आ गई भरी सभा के बीच ।।
द्रौपदी की इस गर्जना से सभा में निस्तब्धता छा जाती है। खण्डकाव्य की कथा का प्रारम्भ बस यहीं से होता है । तदनन्तर द्रौपदी और दुःशासन में नारी-वर्ग पर पुरुष वर्ग द्वारा किये गये अत्याचार, नारी और पुरुष की सामाजिक समता, उनकी शक्ति और उनके अधिकार, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, अस्त्र-शस्त्र आदि विविध विषयों पर अत्यन्त ही तर्क-संगत, प्रभावपूर्ण वाद-विवाद होते हैं। दुःशासन क्रोध से आग-बबूला हो उठता है और द्रौपदी से कहता है कि अब अधिक बकवास न करो, तुम्हें युधिष्ठिर हार चुका है। तुम्हें दासी की भाँति यहाँ रहना है। द्रौपदी पूछती है -
प्रथम महाराज युधिष्ठिर मुझे, या कि ये गये स्वयं को हार ।
स्वयं को यदि, तो उनको मुझे, हारने का क्या था अधिकार ?
नहीं था यदि उनको अधिकार, हारने का मुझको तो व्यर्थ ।
हो रहा क्यों यह वाद-विवाद, समझ पा रही नहीं मैं अर्थ ।
द्रौपदी के इस तर्क से सभासद प्रभावित होते हैं। द्रौपदी अपना पक्ष प्रस्तुत करती हुई आगे कहती है कि धर्मराज युधिष्ठिर सरल हृदय हैं। वे कौरवों की कुटिल चालों से छले गये हैं । अतः सभा में उपस्थित धर्मज्ञ अपना निर्णय दें कि उन्हें कपट और अधर्म की विजय स्वीकार है अथवा सत्य और धर्म की । दुःशासन शास्त्र चर्चा को शस्त्र बल से दबा देना चाहता है। वह कहता है-
धर्म क्या है औ, क्या सत्य, मुझे क्षण भर चिन्ता इसकी न
शास्त्र की चर्चा होती वहाँ, जहाँ नर होता शस्त्र विहीन ।।
शस्त्र जो कहे वही है सत्य, शस्त्र जो करे वही है कर्म ।
शस्त्र जो लिखे वही हैं शास्त्र शस्त्र बल पर आधारित है धर्म ।।
दुःशासन के इस तर्क को सुनकर भीम की भुजाएँ फड़कने लगती हैं। कौरव पक्ष का नीतिज्ञ विकर्ण भी शस्त्र बल पर आधारित इस नीति-विवेचन का विरोध करता है। वह इस बात पर बल देता है कि द्रौपदी द्वारा उठाये गये प्रश्न पर सभा गम्भीरतापूर्वक विचार करे तथा धर्म और न्याय संगत निर्णय होना चाहिए।
कौरव पक्ष को विकर्ण के ये विचार स्वीकार नहीं हैं। वह अपने हठ पर अडिग हैं। युधिष्ठिर अपने उत्तरीय वस्त्र उतार देते हैं। उनकी देखा-देखी सभी पाण्डव अपने वस्त्र उतार देते हैं। विदुर और विकर्ण उदास हो जाते हैं। दुःशासन अट्टहास करता है। द्रौपदी मर्यादा का ध्यान रखते हुए सब कुछ चुपचाप देखती रहती है। जब सभासदों की ओर से कोई निर्णय नहीं होता, तो दुःशासन द्रौपदी को निर्वस्त्र करने के लिए हाथ आगे बढ़ता है। द्रौपदी उसे पापी कहकर डाँट देती है और कहती है कि भले ही यह शरीर चला जाय, किन्तु इस शरीर से कभी वस्त्र नहीं उतर सकता। यहाँ पर जो अन्याय हो रहा है, मैं उसे सहन नहीं कर सकती। सभासदों की राय बिल्कुल ही ऐसी नहीं है। यहाँ तो न्याय का मुँह बन्द हैं। यह शक्ति पर आधारित एकपक्षीय न्याय है। मैं सत्य, न्याय और धर्म का पक्ष लेकर चल रही हूँ। मुझे देखना है कि कौन मुझ पर हाथ उठाता है ? दुःशासन द्रौपदी का चीर खींचने के लिए आगे बढ़ता है, किन्तु अनुपम तेजोप्त रूप में द्रौपदी उसे साक्षात् दुर्गा-सी प्रतीत होती है। वह काँप उठता है और चीर खींचने में अपने को असमर्थ पाता है।
द्रौपदी कौरवों को पुनः ललकारती है। सभी सभासद कौरवों की निन्दा करते हैं तथा द्रौपदी के सत्य और न्यायपूर्ण पक्ष की प्रशंसा करते हैं। अन्त में धृतराष्ट्र पाण्डवों को मुक्त करने तथा उनका राज्य वापस करने का आदेश देते हैं। द्रौपदी के विचारों का समर्थन करते हुए सत्य, न्याय और धर्म की प्रतिष्ठा के लिए वे लोक-कल्याण को ही मानव-जीवन का परम लक्ष्य मानते हैं। वे पाण्डवों के प्रति अपनी शुभकामना प्रकट करते हैं।
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