रश्मिरथी खंड काव्य की विशेषताएं - Rashmirathi Khand Kavya ki Visheshtayen: खण्डकाव्य की दृष्टि से 'रश्मिरथी' एक अत्यन्त ही सफल कृति है। यह 1952 में प्
रश्मिरथी खंड काव्य की विशेषताएं - Rashmirathi Khand Kavya ki Visheshtayen
रश्मिरथी हिंदी के महान कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित प्रसिद्ध खण्डकाव्य है। यह 1952 में प्रकाशित हुआ था। इसमें 7 सर्ग हैं। रश्मिरथी खंड काव्य की विशेषताएं हैं- (1) भाव - सौन्दर्य, और (2) कलात्मक सौन्दर्य/विशेषताएं।
रश्मिरथी खंड काव्य का भाव-सौन्दर्य / विशेषताएं
1. वर्ण्य-विषय: खण्डकाव्य की दृष्टि से 'रश्मिरथी' एक अत्यन्त ही सफल कृति है। आधुनिक युग मानवतावाद का युग है जहाँ व्यक्ति को समस्त जड़ परम्पराओं, बासी जीवन-मूल्यों, विवेकहीन नैतिक मान्यताओं तथा धार्मिक अन्धविश्वासों से ऊपर स्थान दिया जाता है।
‘रश्मिरथी' का कर्ण उन व्यक्तियों का प्रतीक है, जो वर्ण-व्यवस्था को अमानवीय क्रूरता एवं जड़ नैतिक मान्यताओं की विभीषिका के शिकार हैं। आधुनिक युग की यह एक ज्वलन्त समस्या है, जहाँ कुल और जाति व्यक्ति के विकास के बाधक अथवा साधक बन जाते हैं। वर्ण-व्यवस्था से जर्जरित भारतीय समाज में योग्य और कर्मठ व्यक्तियों की उपेक्षा आम बात है। कर्ण ऐसे ही उपेक्षित और पीडित जाता है।
‘रश्मिरथी' का कर्ण उन व्यक्तियों का प्रतीक है, जो वर्ण-व्यवस्था को अमानवीय क्रूरता एवं जड़ नैतिक मान्यताओं की विभीषिका के शिकार हैं। आधुनिक युग की यह एक ज्वलन्त समस्या है, जहाँ कुल और जाति व्यक्ति के विकास के बाधक अथवा साधक बन जाते हैं। वर्ण-व्यवस्था से जर्जरित भारतीय समाज में योग्य और कर्मठ व्यक्तियों की उपेक्षा आम बात है । कर्ण ऐसे ही उपेक्षित और पीड़ित जनों का आदर्श है।
पात्रों के मनोभावों के अंकन में, मार्मिक स्थानों के निर्माण में 'दिनकर' विश्व के श्रेष्ठ कवियों में अपना स्थान रखते हैं। यद्यपि ‘रश्मिरथी' में ऐसे मार्मिक स्थल बहुत ही थोड़े हैं, किन्तु जो भी हैं काव्य - जगत में दुर्लभ ही हैं। पंचम सर्ग में कर्ण- कुन्ती प्रसंग अपनी मार्मिकता में बेजोड़ है। इसमें दिनकर ने क्रूर व्यवस्था के शिकार दो अभागे प्राणियों - 'कर्ण' और 'कुन्ती' की मर्मवेदना का सफल उद्घाटन किया है। इसी प्रकार परशुराम के मन के द्वन्द्व और कर्ण के प्रति स्नेह से उत्पन्न उनकी अन्तर्व्यथा को कवि ने दूसरे सर्ग में बड़ी सफलता से संजोया है।
इस प्रकार ‘रश्मिरथी’ के माध्यम से 'दिनकर' ने अपने युग की व्यथा को वाणी देने का एक बड़ा ही सुन्दर काव्यात्मक प्रयास किया है, जिससे भारत का असहाय पिछड़ा वर्ग और वे सभी लोग जो आज की क्रूर जाति व्यवस्था के शिकार हैं, इस सामाजिक विषमता की पीड़ा और दंश को महसूस करते हैं और 'रश्मिरथी' में उसे पाकर तृप्त तथा भाव-विभोर होते हैं।
2. रस-निरूपण: ‘रश्मिरथी' वीर रस - प्रधान खण्डकाव्य है, किन्तु यत्र-तत्र करुण और वात्सल्य रस का भी समावेश हुआ है। कर्ण और कुन्ती-प्रसंग में वात्सल्य रस का बड़ा ही सुन्दर परिपाक हुआ है-
मेरे ही सुत मेरे सुत को ही मारें।
हो क्रुद्ध परस्पर ही प्रतिशोध उतारें।।
यह विकट दृश्य मुझसे न सहा जायेगा।
अब और न मुझसे मूक रहा जायेगा।।
कर्ण के कथन में करुण रस का परिपाक देखिए-
पर हाय हुआ ऐसा क्यों बाम विधाता।
मुझे और पुत्र की मिली भीरु क्यों माता।
जो जनकर पत्थर हुई जाति के भय से।
सम्बन्ध तोड़ भागी दुधमुँहे तनय से।।
इस प्रकार जब कुन्ती कर्ण से यह कहती है कि “बेटा, धरती पर बड़ी दीन है नारी अबला होती सचमुच योषिता कुमारी" तो नारी की सारी विशेषताएँ व दशाएँ एक साथ ही आर्तनाद करती हुई करुणा से आप्लावित हो उठती हैं ।
रश्मिरथी खंड काव्य का कलात्मक सौन्दर्य / विशेषताएं
1. प्रकृति-चित्रण: वर्णन के क्रम से 'रश्मिरथी' में प्रकृति और पात्रों के सौन्दर्य का वर्णन अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। 'रश्मिरथी' में यद्यपि प्रकृति-चित्रण का विषय नहीं है, किन्तु पात्रों के परिवेश में यत्र-तत्र उनका वर्णन आ जाता है।
2. भाषा-शैली: खण्डकाव्य की भाषा में तद्भव शब्दों की प्रधानता है, किन्तु पौराणिक इतिवृत्त पर आधारित होने के कारण संस्कृत के तत्सम शब्दों का बिल्कुल ही बहिष्कार नहीं किया जा सका। युद्ध की घटनाओं तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों को स्वाभाविक रूप देने के लिए पुरानी शब्दावली का यथासम्भव प्रयोग किया गया है। कुल मिलाकर भाषा में काफी निखार और कसाव है। भाषा तत्सम शब्दों के बोझ से सर्वथा मुक्त और विचार तथा भावों को वहन करने में सर्वथा समर्थ है। भाषा में सूक्तिपरकता भी है, जिसके कारण अभिव्यक्ति में सुनियोजित संक्षिप्तता के दर्शन होते हैं।
खण्डकाव्य काव्यात्मक संवाद-शैली में लिखा गया है। प्रायः प्रत्येक सर्ग में कवि ने संवादात्मक परिस्थितियों को सफलतापूर्वक उरेहने का प्रयास किया है। कर्ण का कृपाचार्य, कृष्ण, इन्द्र, कुन्ती, भीष्म इन सभी से संवाद चलता है। संवादात्मक शैली का प्रयोग करके कवि ने काव्य में नाटकीयता का समावेश किया है।
3. छन्द और अलंकार: अलंकारों के प्रति कवि का विशेष आग्रह नहीं है। यत्र-तत्र स्वाभाविक रूप से अलंकार आ गये हैं, जिनमें सहजता एवं संक्षिप्तता है। प्रत्येक सर्ग में अलग-अलग छन्दों का प्रयोग हुआ है। छन्दों का यह परिवर्तन विषय और मानसिक परिस्थितियों तथा संवेदनात्मक पकड़ को ध्यान में रखकर किया गया है।
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