बाल्यकाल में शारीरिक शिक्षा क्यों महत्वपूर्ण है: बाल्यकाल या बाल्यावस्था की अवधि 4 वर्ष से 12 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में वृद्धि की गति धीमी परन्तु
बाल्यकाल में शारीरिक शिक्षा क्यों महत्वपूर्ण है (Balyakal me sharirik Shiksha kyon Mahatvapurn hai)
उत्तर - बच्चें की जीवन यात्रा और वृद्धि एवं विकास की शुरूआत माँ के गर्भ में आने के साथ- साथ ही शुरू हो जाती है। वह माँ के गर्भ में एक पौधे की तरह छोटे अंकुर के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ करता है तथा धीरे-धीरे वृद्धि और विकास को प्राप्त होता रहता है। इस वृद्धि और विकास की क्रिया जैसे-जैसे बढ़ती है, उसमें विभिन्न सामाजिक, मानसिक, शारीरिक, संवेगात्मक और नैतिक परिवर्तन आते रहते हैं। इन सबके आधार पर उसे क्रमशः शिशु, बालक, किशोर, प्रौढ़ तथा वृद्ध आदि कहकर पुकारा जाता रहा है। ये सभी नाम बच्चों की वृद्धि और विकास की उन सभी अवस्थाओं के घोतक है जिनमें से होकर उन्हें अपनी जीवन यात्रा पूरी करनी होती है।
बाल्यकाल या बाल्यावस्था की अवधि 4 वर्ष से 12 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में वृद्धि की गति धीमी परन्तु लगातार एक सी बनी रहती है। शिशु को प्रायः सभी परिस्थितियों में दूसरे के आश्रित रहना अच्छा लगता है परन्तु बाल्यावस्था में पदार्पण करते ही उसमें स्वावलम्बन भावना आने लगती है। अब वह अपने कार्य स्वयं करने का इच्छुक होता है। उसे स्वतन्त्र रूप से कार्य करना अच्छा लगता है, यहाँ तक कि वह अपने माता-पिता और परिजनों का भी अपने खेलकूद और अन्य कार्यक्रमों में हस्तक्षेप पसन्द नहीं करता है।
बाल्यकाल में शारीरिक शिक्षा का महत्व (Balyakal mein Sharirik Shiksha ka mahatva)
बाल्यावस्था से ही बच्चों को यदि शारीरिक शिक्षा का ज्ञान करायेगें तब ही आगे चलकर शारीरिक शिक्षा के लक्ष्य की प्राप्ति कर सकेगें। यही वह अवस्था हैं जिसमें बच्चों को शारीरिक शिक्षा के उद्देश्यों से पूर्ण तथा परिचित कराना होगा। इस अवस्था में वृद्धि और विकास लगातार एक समान होती रहती है। बच्चों में अनेक शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन देखने को मिलते हैं।
शारीरिक शिक्षा का अर्थ तो शरीर की शिक्षा है परन्तु इसका भाव शरीर तक सीमित नहीं है । वास्तव में शारीरिक शिक्षा के माध्यम से बालक का शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आत्मिक विकास होता है, उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व सुगठित होता है। शारीरिक शिक्षा केवल शारीरिक क्रिया नहीं है। शारीरिक शिक्षा, वह शिक्षा है जो शारीरिक क्रियाओं द्वारा बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व, शरीर, मन एवं आत्मा के पूर्ण विकास हेतु दी जाती है। इन सभी दृष्टिकोण से बाल्यावस्था में शारीरिक शिक्षा बच्चों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है और यह सभी के लिए अनिवार्य भी होना चाहिए।
शारीरिक शिक्षा बच्चों के सर्वांगीण विकास में सहायक
''शरीर माद्यं खलु धर्म साधनम्" शरीर समस्त धर्म का साधन है। हमारी ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति की भी अभिव्यक्ति का माध्यम शरीर है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन निवास करता है। जीवन के सुख के लिए स्वस्थ मन आवश्यक है। इस स्वस्थ मन के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है। शरीर के स्वास्थ्य के लिए शारीरिक शिक्षा का महत्व सभी ने स्वीकार किया है। शारीरिक प्रशिक्षण से छात्रों में सामूहिक भावना, अनुशासन एवं व्यवस्थित कार्य करने की अभूतपूर्व क्षमता उत्पन्न होती है। उससे स्वस्थ समाज का निर्माण होता है। इस प्रकार शारीरिक शिक्षा व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है।
बाल्यावस्था की वृद्धि और विकास के स्तर को ध्यान में रखते हुए शारीरिक शिक्षा के कुछ विकासात्मक महत्वपूर्ण पहलू निम्नलिखित है। शारीरिक विकास के तीन प्रधान उद्देश्य हैं:-
- शरीर को हष्ट-पुष्ट, सुन्दर, सुडौल बनाना एवं उसकी क्षमताओं का विकास करना।
- शरीर के सभी अंगों एवं संस्थानों की क्रियाओं का सर्वांग, प्रणालीबद्ध और सामजस्यपूर्ण विकास करना।
- शरीर का पूर्णतया निरोग रहना। यदि शरीर में कोई दोष और विकृति हो तो उसे सुधारना। विशेष रूप से आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियों को निरोग एवं क्षमतावान बनाना।
वृद्धि और विकास को हम समान अर्थों में प्रयुक्त करें तो बच्चे के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हमें निम्न रूपों अथवा पहलुओं में गति करता हुआ दिखलाई पड़ता है- शारीरिक विकास, बौद्धिक या मानसिक विकास, संवेगात्मक विकास, नैतिक अथवा चारित्रिक विकास, सामाजिक विकास आदि। बाल्यावस्था मे शारीरिक शिक्षा क्यों महत्वपूर्ण है इस तथ्य को समझने के लिए उपरोक्त समस्त तथ्यों को समझना अत्यन्त आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है।
बाल्यकाल की अवस्था को प्रायः खेल अवस्था या खेलने-कूदने की अवस्था कहा जाता है। यह अवस्था चार-पाँच वर्ष की आयु से लेकर ग्यारह बारह वर्ष की आयु तक चलती है। इस अवस्था के बच्चों को यदि खेलने की पूरी स्वतंत्रता दे दी जाये तो वे तब तक खेलते रहते है जब तक थककर चूर न हो जाये । उनकी यह खेल प्रवृति आत्म- केन्द्रित नहीं होती बल्कि अब उसमें सामूहिक प्रवृति जाग्रत होने लगती है। अब वह अकेला रहना पसन्द नहीं करता बल्कि दूसरों के साथ घूमना-फिरना और खेलना चाहता है। वे छोटी-छोटी टोलियाँ बना लेते हैं। हर टोली का कोई न कोई नेता भी बन जाता है जिसका अनुसरण प्रत्येक बच्चा स्वयं करने लगता है। इस प्रकार बच्चों में नेतृत्व की योग्यता तथा समूह में व्यवहार करने की योग्यताओं का विकास होता है ।
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