आलोक वृत्त खंड काव्य का सारांश - Alok Vritt Khand Kavya ka Saransh:'आलोक-वृत्त' खण्डकाव्य की कथा गाँधी जी के जन्म से लेकर स्वतन्त्रता-प्राप्ति तक की ऐ
आलोक वृत्त खंड काव्य का सारांश - Alok Vritt Khand Kavya ka Saransh
'आलोक-वृत्त' खण्डकाव्य की कथा गाँधी जी के जन्म से लेकर स्वतन्त्रता-प्राप्ति तक की ऐतिहासिक कथा है। इस कथा को आठ सर्गों में विभाजित किया गया है। आलोक वृत्त खंड काव्य का सारांश इस प्रकार है-
प्रथम सर्ग: भारत का अतीत का सारांश- कवि भारत के स्वर्णिम अतीत का वर्णन कर तत्कालीन भारत की दशा का वर्णन करता है। इसमें नयी मानवता का जयघोष किया है और गुलाम भारत के जागरण की आवाज ऊँची की है। देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था। स्वतन्त्रता की प्रथम क्रान्ति के ठीक बारह वर्ष पश्चात् गुजरात प्रदेश के पोरबन्दर नामक स्थान पर महात्मा गाँधी का जन्म हुआ । गाँधी जी के जन्म के साथ ही प्रथम सर्ग समाप्त हो जाता है।
द्वितीय सर्ग का सारांश: गाँधी जी का प्रारम्भिक जीवन- खण्डकाव्य की कथा दूसरे सर्ग से प्रारम्भ होती है। मोहनदास करमचन्द गाँधी के मन में 'गोरे शासन' के विरुद्ध बचपन से ही चिन्ता व्याप्त हो जाती है। अंग्रेजों से टक्कर लेने के लिए वे अपने को शक्तिशाली बनाना चाहते हैं और इसके लिए वे मांसाहार करने की सोचते हैं। घर से पैसे चुरा - चुराकर चोरी-चोरी मांस खाया करते हैं, किन्तु झूठ और चोरी से वे मन-ही-मन लज्जित होते हैं। फिर अपने रोगी पिता को पत्र लिखकर अपनी कमजोरियों के लिए क्षमा याचना करते हैं। पिता पुत्र की सच्चाई पर गद्गद होकर छाती से लगा लेते हैं।
समय बीतता है। उनकी शादी कस्तूरबा के साथ होती है। मानवीय दुर्बलताओं से प्रेरित बापू भी कस्तूरबा के प्रति आसक्त हो जाते हैं और इसी समय रोग-शैय्या पर पड़े पिता की मृत्यु हो जाती है। बापू को इसका आघात पहुँचता है और वे आत्मचिन्तन व पश्चाताप करते हैं। पुरानी परम्पराओं को तोड़कर उच्च शिक्षा के लिए बापू अपनी माता पुतली बाई से आज्ञा लेकर विदेश जाते हैं और वहाँ अपनी माता को दिये वचन के अनुसार वे बराबर 'मद्य, मांस, मदिरादि से बचते हैं। एक बार पोर्ट स्मिथ शाकाहारी सम्मेलन के प्रतिनिधि के रूप में एक कलुषित स्थान पर पहुँच जाते हैं, जहाँ भगवान की कृपा से पथभ्रष्ट होते-होते बच जाते हैं। अध्ययन समाप्त करके बापू स्वदेश लौटते हैं, किन्तु माता पुतली बाई का देहान्त हो चुका रहता है। वह माता के लिए व्याकुल हो उठते हैं। उन्हें ऐसा प्रतीत होता है, जैसे उनको माता आकाश से कह रही हों-
दुःखी न होना पुत्र न मिल पाऊँ धरती पर मैं।
सौंप गयी हूँ तुझको एक बड़ी माता के कर में।।
कोटि-कोटि पुत्रों के रहते, भी वंध्या सी होती ।
माता वह जंजीरों में जकड़ी, सदियों से रोती ।।
बापू देश सेवा का व्रत ले लेते हैं।
तृतीय सर्ग का सारांश: अफ्रीका प्रवास - बापू अफ्रीका जाते हैं। वहाँ एक गोरा यात्री जाड़े की रात में प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बापू को बाहर निकाल देता है। वे रात भर प्लेटफार्म पर ठिठुरते हैं और भारतवासियों की हीनावस्था के सम्बन्ध में चिन्तन करते हैं-
आत्मा बँटी विचार बँटे बँट गयी जातियाँ दल में ।
मानवता बँध गयी इसी मिथ्याभिमान से छल में ।।
रंग देखकर ही तन का क्या वह लघु महत् बनाता ।
नहीं मनुज ही अपमानित हो रहा मनुज निर्माता ।।
बापू विचार-मन्थन करके 'अहिंसा' को 'हिंसा' से शक्तिशाली मानते हैं। वे निश्चय करते हैं कि प्रेम और अहिंसा द्वारा मैं शत्रुओं का हृदय परिवर्तित करूँगा । पाशविक शक्तियों के आगे आत्मशक्ति को जगाऊँगा । इसमें कठिनाई आने पर भले ही मुझे सूली पर चढ़ना पड़े। हृदय-मन्थन के परिणामस्वरूप महात्मा गाँधी को जो अहिंसात्मक प्रतिकार का मार्ग सूझता है, वही बाद में 'सत्याग्रह' नाम से अभिहित होता है। बापू दक्षिणी अफ्रीका में हजारों सत्याग्रहियों का नेतृत्व करते हैं। कवि अन्त में सत्याग्रह के महत्त्व को बतलाता है—
सत्याग्रह के शब्द कोष में शब्द नहीं दुर्बलता का ।
पथ का हर व्यवधान यहाँ बनता सोपान सफलता का ।।
जिसके सिर पर पग रखकर भी, सत्य अहर्निश बढ़ता है।
गति जितनी ही बाधित होती, उतना ऊँचा चढ़ता है।
चतुर्थ सर्ग का सारांश: वापस भारत आगमन - अफ्रीका से महात्मा गाँधी भारत वापस आते हैं। गाँधी जी के आह्वान पर देश बन्धु चितरंजन दास, पं. मोतीलाल नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, वल्लभ भाई पटेल आदि नेता उनका नेतृत्व ग्रहण करते हैं। सर्ग के प्रारम्भ में चम्पारण के संघर्ष का चित्रण है। गोरे निलहों का किस प्रकार हृदय परिवर्तित किया गया, कवि ने बड़ी सूक्ष्मता से इस सर्ग में विवेचन किया है। इस आन्दोलन की सफलता के पश्चात् खेड़ा सत्याग्रह का वर्णन हुआ है, जिसमें वल्लभ भाई पटेल का चरित्र उभर कर सामने आता है। भीषण अकाल के समय अंग्रेजों द्वारा लगान वसूली का दमन चला। महात्मा गाँधी के नेतृत्व में किसानों ने लगान देना बन्द कर दिया और अंग्रेजों के हिंसात्मक दमन को बापू की अहिंसात्मक विरोध के आगे झुकना पड़ा-
सेना भी क्या करे, नहीं यदि अन्न-वस्त्र मिल पाये ।
गाँव-गाँव घर-घर विरोध का दावानल लहराये ।।
संगीनों से एक फूल भी खिला नहीं सकते हैं ।
बन्दूकों से मार भले दें, जिला नहीं सकते हैं ।।
इस अहिंसात्मक क्रान्ति का ब्रिटिश शासन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। इससे अंग्रेज काँप गये और फिर एक बार पुनः कोलकाता में क्रान्ति का श्रीगणेश हुआ।
पंचम सर्ग का सारांश: असहयोग आन्दोलन - प्रारम्भ में असहयोग आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार होती है। नागपुर कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर बापू का ओजस्वी भाषण होता है। इसी बीच चौरी-चौरा की घटना हो जाती है। महात्मा गाँधी आन्दोलन को स्थगित कर देते हैं, किन्तु अंग्रेजी सरकार उन्हें गिरफ्तार कर लेती है। अस्वस्थता के कारण जेल की अवधि पूरी किये बिना ही ये छोड़ दिये जाते हैं। अपनी सजा की शेष अवधि तक वे राजनीति से पृथक् रहकर हिन्दू-मुस्लिम एकता, हरिजनोद्धार, खादी-प्रचार आदि रचनात्मक कार्य करते हैं। इन्हीं दिनों बापू को हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए इक्कीस दिनों का उपवास भी करना पड़ता है। अनशन का संकल्प लेते हुए बापू कहते हैं-
रुके न बाढ़ घृणा की तो मेरे जीवन का अर्थ नहीं है ।
कोई भी बलिदान मनुजता की सेवा में व्यर्थ नहीं है ।।
सत्य अहिंसा की धरती पर क्यों यह रक्तपात मचता है ।
मैं सौ बार मरूँ यदि मेरे मरने से भारत बचता है ।।
बापू की प्राण-रक्षा के लिए सभी धर्मावलम्बी ईश्वर से प्रार्थना करते हैं और बापू की प्राण-रक्षा हो जाती है। जब बार-बार कहने पर भी अंग्रेजों का ध्यान इस ओर नहीं जाता तो पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में - " पूर्ण स्वतन्त्रता हमारा उद्देश्य है" का नारा लगाया जाता है।
षष्ठ सर्ग का सारांश: नमक सत्याग्रह (डाँडी यात्रा ) - छठे सर्ग में नमक सत्याग्रह का चित्रण है। बापू बतलाते हैं कि नमक तो सबके लिए भोज्य पदार्थ है। इस पर किसी का नियन्त्रण नहीं होना चाहिए। इस सिद्धान्त को लेकर बापू नमक सत्याग्रह का प्रारम्भ करते हैं। वे डाँडी यात्रा पर पैदल नमक कानून को तोड़ने के लिए चल पड़ते हैं। जेल सत्याग्रहियों से भर जाता है। गोलियाँ चलती हैं, बम के धमाके होते हैं; किन्तु सत्याग्रहियों के उत्साह में कमी नहीं आती। अंग्रेजी सत्ता बापू के इस सत्याग्रह से बदल जाती है। फिर बापू अंग्रेजों द्वारा गोलमेज परिषद् के लिए बुलाये जाते हैं और सन् 1937 में प्रान्तीय स्वराज्य की स्थापना का अधिकार मिल जाता है।
सप्तम सर्ग का सारांश: जनक्रान्ति - सन् 1942 की जन - क्रान्ति का प्रारम्भ होता है। 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नारा बुलन्द होता है। बापू के आह्वान पर सारा देश क्रान्ति की ज्वाला में टूट पड़ता है। फिर साम्राज्यवादी कुचक्र प्रारम्भ होता है। सभी नेता बन्दी बना लिये जाते हैं, किन्तु क्रान्ति की ज्वाला बुझती नहीं। अंग्रेजों का दमन चक्र प्रारम्भ होता है। युवकों को गोलियाँ खानी पड़ती हैं। इसी समय कस्तूरबा की मृत्यु हो जाती है। उनकी मृत्यु से बापू को गहरी ठेस पहुँचती है। वे टूट जाते हैं।
अष्टम सर्ग का सारांश: स्वतन्त्रता- आखिर अन्त में देश स्वतन्त्र होता है। आकाश में तिरंगा फहराने लगता है। किन्तु देशव्यापी हिंसात्मक साम्प्रदायिक उपद्रव से बापू दुखी हो जाते हैं। वे भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान इस देश को सच्चा मार्ग दिखलाओ। मुझमें ऐसी शक्ति दो कि मैं इन्हें शान्त कर सकूँ और-
विषमता फूट मिथ्याचार भागे ।
सभी का हो उदय, नव ज्योति जागे ।।
विजित हों प्यार में तक्षक विषैले ।
दयामय ! विश्व में सद्भाव फैले ।।
बापू की प्रार्थना के साथ खण्डकाव्य की कथा समाप्त हो जाती है।
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