युगे-युगे क्रांति नाटक की समीक्षा: 'युगे युगे क्रांति' के रचनाकार श्री विष्णु प्रभाकर जी है। इस नाटक में लेखक ने युगीन परिस्थितियों का चित्रण किया है।
युगे-युगे क्रांति नाटक की तात्विक समीक्षा - Yuge Yuge Kranti ki Tatvik Samiksha
युगे-युगे क्रांति नाटक की समीक्षा: 'युगे युगे क्रांति' के रचनाकार श्री विष्णु प्रभाकर जी है। इस नाटक में लेखक ने युगीन परिस्थितियों का चित्रण किया है। युगे-युगे क्रांति नाटक में विष्णु जी ने यह सिद्ध करने का यत्न किया है कि प्रत्येक युग में रूढ़ियों और कुरीतियों के विरूद्ध कुछ जागरूक लोग विद्रोह करते हैं। प्रत्येक युग में परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ मूल्यों और रीति रिवाजों में परिवर्तन होता रहता है। बुजुर्ग पीढ़ी मूल्यों को स्थिर रखने की जिद्ध करती है, जबकि युवा पीढ़ी विद्रोही होती है और मूल्यों के बदलने के लिए संघर्ष करती है, जो बुर्जुग पीढ़ी के लोगों के संस्कारों, आचरण के मूल्यों, रीति रिवाजों के विद्रोही होते हैं और उन्हें दकियानूसी, रूढ़िवादी, प्रगति विरोधी समझते हैं। जबकि पुरानी पीढ़ी, नयी पीढ़ी को प्रतिक्रियावादी, मर्यादाहीन, सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने वाली मानती है। इसी का चित्रण इस नाटक में हुआ है। नाटकीय तत्वों के आधार पर प्रस्तुत नाटक की आलोचना निम्नांकित रूप में की जा सकती है-
1) कथावस्तु अथवा कथानक - कथावस्तु नाटक का मूल आधार है। यह नाटक का प्राण तत्व भी माना जाता है। कथावस्तु में कार्य, समय और स्थान की एकता का होना भी आवश्यक माना गया है। प्रस्तुत नाटक में लेखक ने युगीन सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण किया है। इसमें नाटककार ने 1875 ई., 1920-21 ई., 1942 ई. और आधुनिक युग का प्रतिनिधित्व करने वाले पाँच युगों के माध्यम से क्रांति की खोज करने का प्रयत्न किया है।
पहली क्रांति: सन् 1875 के आस-पास की है। उस समय पति द्वारा पत्नी का मुख देखना पाप माना जाता था। कल्याण सिंह स्वामी दयानन्द जी से प्रभावित हैं। वह अपनी पत्नी रामकली का मुख देखना चाहता है परन्तु उसकी पत्नी उसे कुल की मर्यादा का उल्लंघन मानती है और उसे अपना मुँह दिखाने से मना कर देती है। वह अपनी पत्नी रामकली का मुख देखना पाप नहीं मानता। वह घर परिवार में स्त्रियों के पर्दे के रिवाज़ के विरूद्ध क्रांति करता है और अपनी पत्नी से पर्दा उठवा लेता है। जिसके कारण कल्याण सिंह को अपने पिता के हाथों पिटना पड़ा।
दूसरी क्रांति: सन् 1901 में हुई दिखाई गई है। जिसमें कल्याण सिंह का पुत्र प्यारे लाल अनमेल विवाह और बाल विवाह का विरोध करता है। वह विधवा विवाह का समर्थन करता है और विधवा के पुनर्विवाह के पक्ष में है और अपने पिता का विरोध करके विधवा से आर्य समाज मन्दिर में विवाह कर लेता है।
तीसरी क्रांति: 1920-21 में प्यारे लाल की पुत्री शारदा करती है। वह गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से प्रभावित है। स्त्रियों को बराबरी का हक दिलाने के पक्ष में वह प्यारे लाल का विरोध करके अपनी इच्छा से विमल से विवाह कर लेती है।
चौथी क्रांति: 1942 ई. में विमल और शारदा का पुत्र प्रदीप करता है। वह जैनेट से कोर्ट में जाकर अन्तधार्मिक विवाह कर लेता है। प्रदीप के माता-पिता जैनेट को धर्म-परिवर्तन करने के लिए कहते हैं तो वह इसका विरोध करता है। दूसरी तरफ प्रदीप की बहन सुरेखा भी इन्हीं विचारों की पक्षधर है। वह भी इन रूढिवादी विचारों, मूल्यों आदि का विरोध करती है और मानवता को महत्त्व देती है।
पाँचवीं क्रांति: आधुनिक युग में प्रदीप और जैनेट की संतानें करती हैं। वे विवाह को बंध ान मानते हैं और प्रेम को मुक्ति । अन्ततः हम कह सकते हैं कि नाटक का आरम्भ पति-पत्नी में भी पर्दे की स्थिति से होता है और अन्त विवाह हीन मौन सम्बन्धों की स्वीकृति पर।
2) पात्र और चरित्र-चित्रण - नाटक में कुल 22 पात्र हैं। सभी पात्र मध्यवर्ग से सम्बन्ध रखते हैं। संस्कारों से भी यह पात्र मध्यवर्गीय लगते हैं। लेखक ने इस नाटक के माध्यम से बताने का प्रयत्न किया है कि युवावस्था में जो पात्र क्रांति लाने का प्रयत्न करते हैं, परिवार से विद्रोह करते हैं, वही वृद्धावस्था में समझौतावादी और परम्परावादी बन कर अपनी संतान की क्रांति को नहीं स्वीकार करते हैं। उनके मार्ग में अवरोध पैदा करते दिखाई देते हैं। चाहे वह कल्याण सिंह है, चाहे प्यारे लाल, चाहे शारदा, विमल, प्रदीप या जैनेट सभी पात्र समय के साथ परम्परावादी बन जाते हैं।
3) कथोपकथन/संवाद योजना - पात्रों की परस्पर बातचीत संवाद या कथोपकथन कहलाती है। नाटक की संवाद योजना सरल, सरस होनी चाहिए। संवाद छोटे, तीखे और श्रृंखलाबद्ध और पात्रानुकूल होने चाहिए। युगे युगे क्रांति नाटक के संवाद कहीं तो बहुत छोटे हैं, कहीं भाव, विषय और विचार की गति के अनुसार लम्बें भी हो गए हैं। नाटक के संवाद पात्रों की मनः स्थिति और उनके चरित्र को भी उजागर करते हैं, उनकी समस्या को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करते हैं। संवादों में कहीं-कहीं व्यंग्य और हास्य का पुट भी दिखाई देता है तो वहीं गुस्सा और आक्रोश भी है। नाटक की संवाद योजना सराहनीय है ।
उदारणार्थ-
जैनेट: जरा रूको, इतने उतावले मत बनो ।
शारदा: (प्रार्थना के स्वर में ) जैनेट बेटी, तुम्हीं इसे समझाओ। तुम तो इस बात को समझती हो ।
जैनेट: मैं सब समझती हूँ माताजी! लेकिन यदि आप जैसी मैं हूँ वैसी ही को स्वीकार नहीं करती तो मैं भी इनको यहाँ रहने के लिए कैसे कह सकती हूँ।
प्रदीप: चलो, जैनेट, अब चलें । नमस्ते ।
4) देशकाल और वातावरण- देशकाल और वातावरण भी नाटक का महत्त्वपूर्ण तत्व होता है। नाटक में समय और स्थान ही वेशभूषा, परिस्थितियाँ, आचार-व्यवहार आदि का चित्रण करना चाहिए। विष्णु जी ने नाटक में देशकाल की समस्याओं के अनुसार ही वातावरण का निर्माण किया। इसी के फलस्वरूप ही वह सामाजिक समस्याओं को प्रस्तुत करने में सफल हो सके। जैसे- पर्दा प्रथा, विधवा विवाह, अन्तधार्मिक विवाह, स्त्रियों को बराबरी दिलाना आदि।
5) भाषा-शैली - नाटक की भाषा ऐसी होनी चाहिए जो सामान्य दर्शक आसानी से समझ सके। नाटक की भाषा पात्रानुकूल होनी चाहिए। प्रस्तुत नाटक की भाषा शैली युगीन घटनाओं, पात्रों की मानसिक स्थिति और अवस्था अनुसार परिवर्तनशील रही है। इसमें लेखक ने पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग किया है। नाटक की भाषा सरल, सरस, सहज और बोधगम्य है। इसमें लेखक ने मुहावरों का, तदभव तत्सम शब्दावली का भी प्रयोग किया है।
6) उद्देश्य - प्रत्येक रचना का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य होता है। नाटक दर्शकों के साथ सीधे सम्पर्क तथा संवाद स्थापित करता है। इसीलिए यह सर्वाधिक लोकप्रिय तथा प्रभावशाली विधा है। नाटककार समाज की समस्याओं और कुरीतियों पर व्यंग्य करके समाज में सुधार का प्रयत्न करता है। विष्णु जी ने भी इस नाटक के माध्यम से समाज में क्रांति की खोज करती हुई कई पीढ़ियों का वर्णन किया है और उनके जीवन मूल्यों पर प्रकाश डाला है।
7) अभिनेयता और संकलनत्रय - सम्पूर्ण नाटक 1875, 1901, 1920-21, 1942 और अति आधुनिक पाँच खण्डों में विभक्त है। ऐसी स्थिति में कार्य की एकता, समय की एकता और स्थान की एकता को बनाए रखना आसान नहीं परन्तु विष्णु प्रभाकर जी ने इस एकता अर्थात् संकलनत्रय को बनाए रखा। उन्होंने मंच पर हर एक युग के नर-नारी को प्रस्तुत करते हुए उनकी ईद-गिर्द की घटनाओं, वातावरण आदि को दर्शाया है।
8) सारांश - नाटक अभिनय की दृष्टि से भी सफल है, सार्थक है। इसे मंच पर प्रस्तुत करने में अधिक साज सज्जा की आवश्यकता नहीं। मंच सज्जा भी सुगम है। अतः इस दृष्टि से भी नाटक सफल है। अन्ततः हम यह कह सकते हैं कि विष्णु प्रभाकर जी द्वारा रचित नाटक युगे-युगे क्रांति तत्त्वों के आधार पर एक सफल रचना है।
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