'सेवा सदन' उपन्यास में 'गजाधर' का चरित्र चित्रण: 'सेवासदन' नायिका प्रधान उपन्यास है। नायक निश्चित करना कठिन है, परन्तु उपन्यासकार की विचारधारा को अभिव
'सेवा सदन' उपन्यास में 'गजाधर' का चरित्र चित्रण
'सेवासदन' नायिका प्रधान उपन्यास है। नायक निश्चित करना कठिन है, परन्तु उपन्यासकार की विचारधारा को अभिव्यक्त करने वाला पात्र गजाधर होने के कारण उसी को इस उपन्यास का नायक कहना उचित होगा। जीवन पर्यन्त दुखों को भोगते हुए गजाधर कथानक की चरमसीमा के समय सुखद और त्यागमय जीवन की ओर अग्रसर होता है। नायिका भी आजीवन अलग मार्ग पर चलकर अन्त में नायक के उपदेशों से प्रभावित होकर उसी का अनुसरण करती है। इसके अलावा कथानक में स्थान - स्थान पर गजाधर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः वही नायक होने का आदर पात्र है।
1. क्रोधी प्रवृत्ति
गजाधर वस्तुतः क्रोधी स्वभाव वाला है। पत्नी सुमन के गृह निर्वाह में कुशल न होने के कारण और अत्यन्त शंकालु स्वभाववाला होने के कारण उसका क्रोध व्यक्त होता रहता है। छोटी - छोटी बातों पर वह सुमन पर क्रोध प्रकट करता है, जैसे - " रूपये तो तुमने खर्च कर दिये, अब बताओं कहाँ से आये ? तो मैं डाका तो नहीं मार सकता।" आदि छोटी - छोटी बातों पर उसका क्रोधी स्वभाव प्रकट होता जाता है। उसके क्रोध का प्रधान कारण गृहस्थी में आर्थिक संकट है।
सुमन भोली बाई के घर जाकर देर से लौटती गजाधर और उत्तेजित होता है। छोटी सी बात पर भी इस प्रकार गजाधर अवांछित गति से उग्र रूप धारण कर सुमन पर टूट पडता है। धर्म का महत्त्व वह धन से कहीं बड़ा मानता है।
एक दिन गजाधर नियमानुसार रातनौ बजे धर आता है। किवाड बन्द था। पता लगा सुमन सुभद्रा के धर गयी है। दस बज गये तो उसने खाना परसा। लेकिन क्रोध में कुछ खाया न गया। उसने सारी रसोई उठाकर बाहर फेंक दी और भीतर विवाड बन्द करके सो रहा। किन्तु नीन्द न लगी तो वह द्वार पर स्वयं बैठता है। सुमन एक बजे घर पहुँचती है तो गजाधर उसे उसी वक्त बाहर कर देता है।
2. कंजूस
गजाधर स्वभावतः कंजूस है। जलपान की जलेबियाँ उसे विष के समान लगती हैं। दाल में घी देख कर उसके हृदय में शूल होने लगता है। दरवाजे पर दाल-चावल फेंका देख कर शरीर में ज्वाला सी लग जाती है। खाने - पीने में भी अधिक व्यय हो जाने पर गजाधर को कष्ट का अनुभव होता है। सुमन की अनुपस्थिति में उसका संशयशील हृदय खा-पीकर बराबर की गर्व दशा में बहुत दुःखी रहता है।
3. निर्धनता
गजाधर निर्धन है। उसकी आर्थिक कमजोरी सुमन के लिए शाप बन जाती है। फल स्वरूप प्रत्येक परिस्थिति में घटित होने वाली घटना को वह इसका मूल कारण मानती है। इस दशा पर सुमन की उक्तियों से गजाधर का हृदय धक धक करता है।
" इतने रूपयों में बरकत थोड़े ही हो जायेगी। "
'वह चाहे तो हम जैसों को नौकर रख लें। "
ये उक्तियाँ निर्धन चरित्र का सफल और यथार्थ चित्रण देती हैं। स्वयं गजानन्द का कथन भी उसकी निर्धनता को द्योतित करता है - "निर्धन था, इसीलिए आवश्यक था कि मैं धन के अभाव को अपने प्रेम और भक्ति से पूरा करता। मैं ने इसके विपरीत उस से निर्दयता का व्यवहार किया। उसे वस्त्र और भोजन का कष्ट दिया। "
4. अव्यवस्थित चित्त
गजाधर अव्यवस्थित - चित्त का व्यक्ति है । परिणाम के बारे में सोचे बिना ही वह कार्य करता है। पत्नी सुमन के प्रति वह दुर्व्यवहार करता है- "अपने गहने-कपडे लेती जा, यहाँ कोई काम नहीं है।” कहते हुए वह पत्नी को घर से निकाल देता है।"
5. सामाजिक व्यंग्य
गजाधर सामाजिक व्यंग्य भी करता है। वेश्या - नाच की माँग किए जाने पर वह जन समूह को सम्बोधित करता है, “देखिए - चलो मैं नाचदिखाऊँ" - "चलो मैं नाच दिखाऊँ। देवताओं का नाच देखना चाहते हो? देखो, सामने वृक्ष की पत्तियों पर निर्मल चन्द्र की किरणें कैसी नाच रही हैं। देखो, तालाब में कमल के फूल पर पानी की बूंदे कैसी नाच रही हैं। जंगल में जाकर देखो, मोर पर - फैलाये कैसे नाच रहा है। क्यों यह देवताओं का नाच पसन्द नहीं है ? अच्छा चलो, पिशाचों का नाच दिखाऊँ - तुम्हारा पड़ोसी दरिद्र किसान जमींदार के जूते खाकर कैसा नाच रहा है। तुम्हारे भाइयों के अनाथ बालक क्षुधा से बावले होकर कैसे नाच रहे हैं। अपने घर में देखो, विधवा भावज की आँखों में शोक और वेदना के आँसू कैसे नाच रहे हैं। क्या यह नाच देखना पसन्द नहीं ? तो अपने मन को देखो, कपट और छल कैसा नाच रहा है। सारा संसार नृत्यशाला है। उसमें लोग अपना - अपना नाच नाच रहे हैं। क्या यह देखने के लिए तुम्हारी आँखें नहीं हैं ? आओ, मैं तुम्हें शंकर का तांडव नृत्य दिखाऊँ। किन्तु तुम वह नृत्य देखने योग्य नहीं हो। तुम्हारी काम - तृष्णा को इस नाच का क्या आनन्द मिलेगा। हाँ! अज्ञान की मूर्तियो! विषयभोग के सेवको ! तुम्हें नाच का नाम लेते हुए लज्जा नहीं आती! अपना कल्याण चाहते हो तो इस रीति को मिटाओ। कुवासना को तजो, वेश्या - प्रेम का त्याग करो।"
गजाधर के इस उपदेश में जो शक्ति है, वास्तव में वही उसे इस उपन्यास के नायक पद पर प्रतिष्ठित करने वाली है। उसका लोगों को वेश्या का नृत्य देखने से वर्जित करने का ढंग कितना सुन्दर है। दूसरी भाषा में उसके द्वारा लोगों को कुप्रवृत्ति से अलग करना उसके श्रेष्ठ चरित्र का परिचायक है।
6. आत्मोद्धार का मार्ग
सुमन को निकालने के पश्चात् अकस्मात् उसके स्वभाव में कुछ परिवर्तन आता है और वह पहले की अपेक्षा कुछ अधिक उदार प्रकृति वाला हो जाता है। गत जीवन का स्मरण कर वह सेवा - धर्म स्वीकार कर लेता है। निर्वाण मार्ग पर चलने के लिये सेवा धर्म ही श्रेष्ठ है। यह सिद्ध करने वाला गजानन्द का कथन - " अज्ञान अविद्या के अन्धकार में पड़े हुए मेरे पास अपना उद्धार करने का साधन न रहा, न ज्ञान था, न विद्या थी, न भक्ति की सामर्थ्य थी। मैंने अपने बन्धुओं की सेवा करने का निश्चय किया। यही मार्ग मेरे लिए सबसे सरल था। तब से मैं यथाशक्ति इसी मार्ग पर चल रहा हूँ और अब मुझे अनुभव हो रहा है आत्मोद्धार के मार्गों में केवल नाम का अन्तर है। मुझे इस मार्ग पर चलकर शान्ति मिली है और मैं तुम्हारे लिये भी यह मार्ग सबसे उत्तम समझता हूँ।" अक्षरशः सत्य प्रतीत होता है। निःस्वार्थ भावना का महत्त्व समझाते हुए नायिका को भी इस मार्ग के लिए प्रेरित करना उसके नायकत्व की पुष्टि करता है।
उपन्यासकार ने ‘उन्होंने निर्धनों की कन्याओं का उद्धार करने के निमित अपना जीवन अर्पण कर दिया, इस अन्तिम परिच्छेद में यह लिखकर उसके त्यागमय व्यक्तित्व पर पूर्ण रूप से प्रकाश डाल दिया है।
7. उपसंहार
संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि गजाधर के चरित्र में मानवीय कमजोरियाँ भी उसकी चारित्रिक श्रेष्ठता को प्रभावित नहीं करतीं। एक साधारण सामाजिक दरिद्र मनुष्य के रूप में उसके स्वभाव का जो रूप होना चाहिए, वह प्रेमचन्द ने बड़े ही शान्तिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। यह उपन्यासकार की अद्भुत वर्णनात्मक क्षमता तो है ही, गजाधर के चरित्र को ऊँचा भी उठाती है।
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