समरकांत का चरित्र चित्रण - अमरकांत के पिता समरकांत नगर के धनी साहूकारों में थे। हालाँकि जब उनके पिता का निधन हुआ था तब उनके पास रहने का भी ढंग का प्रब
समरकांत का चरित्र चित्रण - Samarkant Ka Charitra Chitran
समरकांत का चरित्र चित्रण - अमरकांत के पिता समरकांत नगर के धनी साहूकारों में थे। हालाँकि जब उनके पिता का निधन हुआ था तब उनके पास रहने का भी ढंग का प्रबंध न था। यह सब समरकांत के श्रम का ही फल है कि उन्होंने झोंपड़ी के स्थान पर लाखों की संपत्ति जमा कर ली। लेखक उनके परिश्रम एवं चातुर्य का परिचय देते हुए लिखता है - "पहले उनकी एक छोटी सी हल्दी की आढ़त थी। हल्दी से गुड और चावल की बारी आयी। तीन बरस तक लगातार उनके व्यापार का क्षेत्र बढ़ता ही गया। अब आढतें बंद कर दी थीं। केवल लेन-देन करते थे। कोई महाजन रुपये न दे, उसे वह बेखटके दे देते और वसूल कर लेते। उन्हें आश्चर्य होता था, किसी के रुपये मारे कैसे जाते हैं। ऐसा मेहनती आदमी भी कम होगा।
समरकांत एक कुशल व्यापारी हैं और धन कामने की कला जानते हैं। पिता-पुत्र में वैचारिक असहमति है। परिस्थितियों से प्रभावित होकर अंत में समरकांत भी अपने सिद्धांतों को छोड़कर समाजसेवा के मार्ग को अपनाता है। इस तरह उनका चरित्र गतिशील रहा है। व्यवसाय में बिना झूठ बोले काम नहीं चलता, समरकांत भी झूठ और शोषण के द्वारा धन एकत्रित करने के पक्ष में थे। काले खां से चोरी के माल न खरीदने के कारण अमरकांत को उसके पिता डांटते हैं। इसी तरह उपन्यास के उत्तरार्द्ध में जब गरीबों के मकान बनाने के लिए कमेटी को जमीन नहीं मिलती है तब भी वे डॉ. शांतिकुमार को अधिकारियों को रिश्वत देकर जमीन लेने का परामर्श देते हैं। किन्तु लाला समरकांत अपने इस कुत्सित व्यवहार के प्रति लज्जित भी हैं। गाँव में अमरकांत के बंदी हो जाने पर जब वे उसके मित्र अफसर सलीम से मिलते हैं तब इन शब्दों में अपने कार्यों का उन्होंने प्रायश्चित किया है- "बहू जेल में है, लड़का जेल में है, शायद लड़की भी जेल की तैयारी कर रही है। और मैं चैन से खाता-पीता हूँ। आराम से सोता हूँ। मेरी औलाद मेरे पापों का प्रायश्चित कर रही है। मैंने गरीबों का कितना खून चूसा है, जवानी में समझ आ गयी होती तो कुछ अपना सुधार करता।"
लाला समरकांत झूठ बोलने और बेईमानी करने वाले व्यक्ति होने के बावजूद ईश्वर में आस्था रखते हैं। वे नित्य प्रति भगवान् की आरती करते हैं, किन्तु उनके हृदय में संकीर्णता ने इतनी जगह बना राखी है कि वे अछूतों को उस ठाकुरद्वारे में जूते उतरने वाले स्थान के समीप बैठकर भी कथा नहीं सुनने देते। वे वहां से उन्हें पिटवाकर भगा देते हैं और उनकी भीड़ पर गोली चलवा देते हैं। वास्तव में उनमें मानवमात्र के प्रति सहानुभूति नहीं है, केवल धर्म का दिखावा है। पिता-पुत्र में वैचारिक विरोध और अनबन के बीच पुत्र के सुख से वंचित लाला समरकांत के जीवन में कठोरता स्वाभाविक है। अमरकांत के शहर छोड़कर भाग जाने पर वे कहते हैं- "मैंने तो बेटे का सुख ही नहीं जाना। तब भी जलाता था, अब भी जला रहा है। ”
उपन्यास में वर्णित विभिन्न कथा-प्रसंगों से स्पष्ट है कि लाला समरकांत के हृदय की कठोरता आरोपित है। मूल रूप से उनका हृदय भी पुत्र के प्रति स्नेह से युक्त है। जब सकीना के प्रेम में उलझकर बदनामी के डर से अमरकांत नगर छोड़कर जाने लगता है उस समय समरकांत उनके सम्मुख रुकने के लिए गिडगिडाते हैं। बहुत प्रार्थना करने पर भी अमरकांत द्वारा न मानने पर वे पुत्र के प्रति अपने स्नेह का परिचय देते हुए कहते हैं - "चलते-चलते घाव पर नमक न छिड़को लल्लू। बाप का हृदय नहीं मानता। कम-से-कम इतना तो करना कि कभी-कभी पत्र लिखते रहना। तुम मेरा मुँह न देखना, चाहो लेकिन मुझे कभी-कभी आने-जाने से न रोकना। जहाँ रहो, सुखी रहो, यही मेरा आशीर्वाद है। "
कठोर हृदय दिखनेवाले लाला समरकांत के चरित्र के कुछ कोमल पक्ष भी हैं। वे अपने एक कर्मचारी की विधवा पत्नी पठानिन को नियमित रूप से पांच रुपये मासिक देते रहते हैं। आगे चलकर यह राशि बढ़कर पच्चीस रुपये प्रति मास कर दी गयी । जनता के लिए ठाकुरद्वारा बनवाते है और अंत में सुखदा का साहस देखकर अछूतों के लिए भी उस मंदिर का प्रवेश-द्वार खुलवा देते हैं। गरीबों के मकान बनवाने के लिए वे लाखों रुपये देने को तत्पर हो जाते हैं और उत्तर दिशा के पर्वतीय गांव में अमरकांत की गिरफ्तारी की सूचना पाकर वहाँ जाते हैं और अधिकारियों की मार से घायल अछूतों को एक हजार रूपया सेवा-सुश्रुषा के लिए दान दे आते हैं।
इस तरह लाला समरकांत का चरित्र 'कर्मभूमि' में परिवर्तनशील रहा है। वे उपन्यास के अंत में धार्मिक पाखण्ड, धन के प्रति निर्मम आसक्ति और समाज-विरोधी विचारधारा का त्याग करके अपने पुत्र-पुत्री और पुत्रवधू के विचारों से सहमत होकर जन-आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने लगते हैं तथा उनकी सहानुभूति में जोशीला भाषण देते हुए स्वयं को गिरफ्तार करवा कर मानो अपने पूर्व-कृत्यों का प्रायश्चित करते हैं। सद्वृत्तियों का सूर्योदय दुर्वृत्तियों के गहन अन्धकार को चीर देता है और तब जो प्रकाश दिखाई देता है, वह बहुत उज्ज्वल और सुस्पष्ट होता है। समरकांत के जीवन में भी इसी प्रकार की सद्वृत्ति का विकास हुआ।
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