सदन का चरित्र चित्रण - Sadan ka Charitra Chitran: ‘सेवासदन' में नवयुवक के रूप में सदन के चरित्र का विकास होता है। परिस्थितियों के अनुसार अपने चरित्र म
सदन का चरित्र चित्रण - Sadan ka Charitra Chitran (सेवासदन उपन्यास)
‘सेवासदन' में नवयुवक के रूप में सदन के चरित्र का विकास होता है। परिस्थितियों के अनुसार अपने चरित्र में सुधार करने वाला एक गतिशील चरित्र के रूप में उमड़ता है। अपने चाचा पद्मसिंह की फैशन की सामग्रियों से प्रभावित होकर सदन गाँव छोड़कर शहर जाता है। गाँव को छोड़कर शहर की तरफ दौड़ना उसके फैशन के प्रति होने वाली सहज लालसा वाले गुण को दिखा रहा है, जो एक नवयुवक में होना स्वाभाविक है। सदन के चरित्र के माध्यम से उपन्यासकार ने वेश्या - प्रेम और नये प्रेम (अर्थात् विवाह के पश्चात् होने वाले प्रेम की) सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की है। साथ ही धार्मिक एवं सामाजिक प्रथाओं का सूक्ष्म निरूपण किया है। उसके चरित्र की कतिपय विशिष्टताओं को निम्न शीर्षकों द्वारा भली-भाँति प्रकट किया जा सकता है-
स्वच्छन्द व्यवहार
यौवन-काल की चंचलता और स्वच्छन्दता को सदन के चरित्र - अवलोकन मात्र से ही देखा जा सकता है। उपन्यासकार का यह कथन - " धीरे-धीरे सदन के चित्त की चंचलता यहाँ तक बढ़ी कि पढ़ना-लिखना सब छूट गया। मास्टर आते और पढ़ाकर चले जाते। लेकिन सदन को उनका मन हर घड़ी बाजार की ओर लगा रहता, वही दृश्य आँखों में फिरा करते, रमणियों के हाव-भाव और मृदु मुस्कान के स्मरण में मग्न रहता।" सदन की चंचल प्रकृति को स्पष्ट करता है।
स्वभाव में परिवर्तन
सदन के विचार मर्यादा के क्षेत्र के प्रति पूर्णरूपेण उपेक्षापूर्ण हैं, परन्तु घटनाएँ उसकी उस उपेक्षा को दूर करती हैं। वह सामाजिक मर्यादाओं को आदर देने के प्रति ही नहीं, अपितु, अपने विगत जीवन को एक नया मोड़ देने की ओर भी झुकता है । एक समय कभी वह जिस सुमन पर आसक्त था, उसी से यह कहता है – ‘“बाईजी, आपने पहले ही मेरा मुँह बन्द कर दिया है, इसलिए मैं कैसे कहूँ कि जो कुछ किया मेरे बड़ों ने किया, मैं उनके सिर दोष रखकर अपना गला नहीं छुड़ाना चाहता। उस समय लोक-लज्जा से भी डरता था । इतना तो आप भी मानेंगी कि संसार में रहकर संसार की चाल चलनी पड़ती हैं. मैं इस अन्याय को स्वीकार करता हूँ, लेकिन यह अन्याय हमने नहीं किया, वरन् उस समाज ने किया है, जिसमें हम लोग रहते हैं।" इस कथन द्वारा हमें उसकी संकुचित विचारधारा का परिचय मिल जाता है।
मर्यादा का क्षेत्र जब विस्तृत अर्थात् उदार हो जाता है तो बदलते हुए विचार स्वतः ही व्यापक हो जाते हैं, तब यह सुधारवादी दृष्टिकोण कर्तव्यपरायणता का रूप धारण कर लेता है। इन्हीं परिवर्तित विचारों का सुन्दर समागम सदन के गतिशील चरित्र में दृष्टव्य है – “सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी मानो उसने कोई बड़ा पाप किया हो. वह बार- बार अपने शब्दों पर विचार करता है और यही निश्चय करता है कि मैं बड़ा निर्दयी हूँ । मुझे संसार का इतना भय क्यों है ? संसार मुझे क्या देता है? क्या केवल झूठी बदनामी के भय से मैं उस रत्न को त्याग दूँ, जो मालूम नहीं मेरे पूर्वजन्म की कितनी तपस्याओं का फल है? अगर अपने धर्म का पालन करने के लिए मेरे बन्धुगण मुझे छोड़ दें तो क्या हानि है ? लोकनिन्दा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य मार्ग में बाधक हो तो उससे डरना कायरता है ....... लोक- निन्दा का भय मुझसे यह अधर्म नहीं करा सकता, मैं उसे मँझधार में न डूबने दूँगा। संसार जो चाहे कहे, मुझसे यह अन्याय न होगा।"
मनोदशा की पवित्र विचारधारा
स्थान-स्थान पर आये हुए अन्तर्द्वन्द्व, सदन की कतिपय चारित्रिक विशेषताओं का प्रकटीकरण कर देते हैं। उदाहरणस्वरूप - "हाय ! मैं कैसा कठोर पाषाण हृदय हूँ। वह रमणी जो किसी निवास की शोभा बन सकती है, मेरे सम्मुख एक दीन, दया - प्रार्थी के समान खड़ी रहे और मैं जरा भी न पसीजूँ? वह ऐसा अवसर था कि मैं उसके चरणों पर सिर झुका देता और हाथ जोड़कर कहता, देवि ! मेरे अपराध क्षमा करो!" गंगा से जल लाता और उसके पैरों पर चढ़ाता जैसे कोई उपासक अपनी इष्ट देवी को चढ़ाता है। पर मैं पत्थर की मूर्ति के सदृश खड़ा अपनी कुल - मर्यादा का बेसुरा राग अलापता रहा। हाँ, मंद बुद्धि! मेरी बातों से उसका कोमल हृदय कितना दुःखी हुआ होगा । यह उसके मान करने से ही प्रकट होता है, उसने मुझे शुष्क, प्रेम-विहीन, घमंडी और धूर्त्त समझा होगा, मेरी ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं। वास्तव में मैं इसी योग्य हूँ। यह अन्तर्द्वन्द्व सदन के प्रत्युत्पन्न मति न होने पर प्रकाश डाल रहा है।
उपदेशों को धारण करने की दृढ़ता
साधारणतः लोग उपदेश सुनते हैं और उन्हें वह जहाँ सुनते हैं वहीं छोड़ भी आते हैं, क्योंकि उन्हें धारण करने की क्षमता नहीं होती। ऐसा कोई विरला ही होता है जो उन्हें धारणा करे, सदन का हृदय और व्यवहार-परिवर्तन उसे उनमें से ही एक बना देता है।
आदर्श समाज के उत्सव एवं विभिन्न व्याख्यानों को सुनने से उसके तार्किक शक्ति का प्रादुर्भा होता है और वह सत्यासत्य का निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता आ जाती है। उपन्यासकार का यह कथन -"अपनी अवस्था के अनुकूल उसकी समालोचना पक्षपात से भरी हुई और तीव्र होती थी उसमें इनती उदारता न थी कि वह विपक्षियों की नेकनीयती को स्वीकार करो।" उसकी समालोचक दृष्टि को व्यक्त करता है ।
सौन्दर्याकर्षण
यौवन के वेग में बहे हुए मनुष्य के स्वाभाविक चरित्र और व्यवहार से वह अछूता नहीं है। वह सुमन के प्रति आकर्षित होता है, क्योंकि सौन्दर्य के प्रति आकर्षण उसकी ही नहीं बल्कि उसकी उम्र के हर युवक की कमजोरी हो सकती है। हृदय परिवर्तन के बाद वह शान्ता के सौन्दर्य का अभिनन्दन करता है। सुमन की मनोहारिणी मृर्ति उसके कल्पना लोक में सुसज्जित हो जाती है। वह इस सरल सौन्दर्य-मूर्ति को अपना प्रेम अर्पण करने का परम अभिलाषी है। सुमन के प्रति उसके आसक्त होने का कारण भी उसका सौन्दर्य था और था उसका युवक हृदय।
उपसंहार
अपने जीवन में दृढ़ निष्ठा रखने की पक्की लगन से वह ओत-प्रोत है । प्रारम्भ में एक नाव लेकर अन्त में पाँच नावें लेकर स्टीमर लेने की योजना एवं गंगा के किनारे झोंपड़े में व्यवसाय बढ़ाने के लिये रहना उसकी पक्की लगन का द्योतक है।
उसके व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं- " वह अत्यन्त रूपवान, सुगठित, बलिष्ठ युवक था। देहात में रहा, न पढ़ना, न लिखना, न मास्टर का भय न परीक्षा की चिन्ता, सेरों दूध पीता था, उस पर कसरत का शौक । शरीर बहुत सुडौल निकल आया था । चेहरे पर गम्भीरता और कोमलता के स्थान पर वीरता और उद्दंडता झलकती थी। आँखे मतवाली, सतेज और चंचल थीं। उसने रंग-रूप, ठाट-बाट पर बूढ़े - जवान सबकी आँखे उठ जातीं। युवक उसे ईर्ष्या से देखते, बूढ़े स्नेह से। लोग राह चलते - चलते उस एक आँख देखने के लिए ठिठक जाते। दुकानन्दर समझते किसी रईस का लड़का है। "
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