रंगभूमि उपन्यास में सूरदास का चरित्र चित्रण: 'रंगभूमि' उपन्यास का केंद्रीय पात्र 'सूरदास' गांधी जी के विचारों का प्रतिनिधि है। वह शारीरिक रूप से दुर्ब
रंगभूमि उपन्यास में सूरदास का चरित्र चित्रण
'रंगभूमि' उपन्यास का केंद्रीय पात्र 'सूरदास' गांधी जी के विचारों का प्रतिनिधि है। वह शारीरिक रूप से दुर्बल होते हुए भी उपन्यास में मजबूत चरित्र के रूप में उभरकर आया है। सूरदास में गजब की संघर्ष क्षमता है वह विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष करता है। प्रेमचंद ने बड़े सहज भाव से उपन्यास के आरंभ में ही सूरदास का जो परिचय दिया है वह उसके वर्ग-गत व्यक्तित्व को भूमिका - स्वरूप प्रस्तुत करता है। वे लिखते हैं: "भारतवर्ष में अंधे आदमियों के लिए न नाम की जरूरत होती है, न काम की। सूरदास उनका बना-बनाया नाम है, और भीख माँगना बना-बनाया काम है। उनके गुण और स्वभाव भी जगत-प्रसिद्ध हैं - गाने-बजाने में विशेष रुचि, हृदय में विशेष अनुराग, अध्यात्म और भक्ति में विशेष प्रेम, उनके स्वाभाविक लक्षण हैं। बाह्य दृष्टि बंद और अंतर्दृष्टि खुली हुई। "
सूरदास का चरित्र व्यक्तिप्रधान या विलक्षण उन्हीं स्थलों पर बनता है जहाँ उसके स्वभाव में अंतर्विरोध का तत्व प्रबल होता है, या जहाँ वह अपनी उदारता और न्यायप्रियता को दृढ़ता प्रदान करता है। साधारणतः सूरदास की वर्गगत विशेषताओं की उपन्यास में आद्यांत व्याप्ति है। सूरदास एक ओर त्याग और सन्तोष का जीता-जागता प्रतीक है। किन्तु, सड़क के किनारे बैठे भीख माँगते जब उसे इक्के या फिटन के आने-जाने की आवाज सुन पड़ती है तो उनके पीछे दौड़ने में उसके पैरों में पर लग जाते हैं। एक पैसे के लिए वह पूरे एक मील की दौड़ लगा सकता है। यहाँ कहना न होगा, प्रेमचंद पात्रों और परिस्थिति के चित्रण में, मौज में आकर, सहज रूप से अतिरेक का पुट भी देते चलते हैं। यह बात उपन्यास में अनेक प्रकरणों में द्रष्टव्य है। सूरदास की निर्मिति में प्रेमचंद के अतिरेक का स्पर्श अनायास पड़ता है, फिर भी कुल मिलाकर यह चरित्र इतना भव्य और प्रभावी बन पड़ा है कि इसके चित्रण में अनायास रेंग आए किंचित् दोषों को, पाठक - आलोचक, अनदेखा कर देना पसन्द करेंगे। अस्तु।
सूरदास अत्याचारी पति भैरों के हाथों से उसकी पत्नी सुभागी की रक्षा करने में बदनामी और कष्ट उठाता चलता है। भैरों उसकी झोपड़ी में आग ही नहीं लगाता, वरन पाँच सौ से ऊपर रुपयों की थैली भी उड़ा ले जाता है। यह धनराशि उस युग में बहुत बड़ी है और भिखारी सूरदास की चिरसंचित पूँजी है। सुभागी के हाथों भैरो के घर से रुपयों की वही थैली पुनः प्राप्त होने पर सूर उसे भैरो का धन मानकर लौटा आता है। थैली की वापसी का भेद खुलने पर भैरो जो वितण्डा खड़ा करता है उससे सूर के ही नहीं, गाँव के जीवन में भूकम्प आ जाता है। साधारणतः ऐसी विरक्ति और त्याग की घटना अस्वाभाविक जान पड़ सकती है। किन्तु सूर जैसा विलक्षण चरित्र सामान्य से ऊपर होता है। वह अपनी अस्मिता को स्थापित करने के लिए ऐसा भी कर बैठे तो क्या आश्चर्य !
एक ओर सूर इतना उदार है और दूसरी ओर, सुभागी को छेड़े जाते देख पड़ोस के नौजवानों के प्रति उतना ही कठोर हो उठता है। वह किसी की नहीं सुनता और उन्हें जेल की सजा दिलाकर रहता है। वह जमीन छिनने के प्रश्न पर दो बार आंदोलन छेड़ता है। धरम के काम के लिए वह उसे त्याग सकता था। किन्तु अन्याय और जबरदस्ती के आगे घुटने टेकना नहीं जानता। अहिंसात्मक सत्याग्रह मे कई लोग मारे जाते हैं और वह स्वयं भी प्राण गँवाता है।
सूरदास की दृढ़ता औचित्य के पक्ष में है। वह जो कुछ करता है असंलग्न भाव से, उसे केवल अपना परम कर्तव्य समझकर। वह पूँजीपति और उसके समर्थक जनों से टक्कर लेता है। किन्तु वर्ग-विद्वेष का उसमें लेश नहीं। वर्ग संघर्ष प्रेमियों को यह बात खटक सकती है। पर यहाँ ध्यान देने योग्य है, सूरदास की व्यक्तिगत स्थिति और उसका मानसिक चिंतन स्तर। सूरदास बच्चों के रोने पर सोचता है:
“वाह! मैं तो खेल में रोता हूँ ।....खेल में रोना कैसा? खेल हँसने के लिए, दिल बहनाले के लिए है, रोने के लिए नहीं।"
मरणासन्न दशा में वह मानो इस कथन का भाष्य बड़बड़ाता है:
"तुम्हारा धरम तो है हमारी पीठ ठोकना । हम हारे तो क्या मैदान से भागे तो नहीं, रोए तो नहीं, धाँधली तो नहीं की। फिर खेलेंगे जरा दम ले लेने दो, हार-हार कर तुम्हीं से खेलना सीखेंगे और एक न एक दिन हमारी जीत होगी, जरूर होगी।"
अन्त में उपन्यासकार पूरे अनुच्छेद में सूर के चरित्र पर जो टिप्पणी करता है। उसका सार है कि सूर में गुण कम थे, अवगुण बहुत । किन्तु ये सभी दुर्गुण उसके एक गुण के संपर्क से नमक की खान में जाकर खो जाने वाली वस्तुओं की भाँति, देवगुणों का रूप धारण कर लेते थे। वह गुण था न्याय- प्रेम। अन्याय देखकर उससे न रहा जाता था. अनीति उसके लिए असह्य थी।
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