काव्य के प्रयोजन पर प्रकाश डालिए: जिस प्रकार बिना कारण कर्म नहीं होता, उसी प्रकार कर्म बिना प्रयोजन नहीं हो सकता। काव्य यदि कवि-कर्म है तो उस कर्म के
काव्य के प्रयोजन पर प्रकाश डालिए।
जिस प्रकार बिना कारण कर्म नहीं होता, उसी प्रकार कर्म बिना प्रयोजन नहीं हो सकता। काव्य यदि कवि-कर्म है तो उस कर्म के भी कुछ प्रयोजन होना चाहिए। साहित्य के अंतर्गत प्रयोजन इस शब्द का प्रयोग 'फल' से लगाया जाता है । इस दृष्टि से काव्य प्रयोजन का अध्ययन 'काव्य-फल' का अध्ययन है।
काव्य के भारतीय प्रयोजन
1) यश (कीर्ति):-संसार में केवल यश ही ऐसी वस्तु है जो निस्पृह और निरीह आत्माओं को भी अपने आकर्षण शक्ति से प्रभावित करती है। यही कारण है कि कवि यश या कीर्ति पाने के उद्देश्य से ही काव्य की सृष्टि करने में संलग्न होते हैं। कालिदास, सूरदास, तुलसीदास, बिहारी, प्रसाद, निराला आदि इसके प्रमाण हैं। इनकी कीर्ति इनके काव्यों से ही है।
कुछ ऐसे महान कवि भी होते हैं, जिनका उद्देश्य काव्य करते समय यश प्राप्ति न होकर लोकहित अथवा स्वान्तः सुखाय होता है, किंतु काव्य-रचना के उपरांत उनकी भी यह अभिलाषा होती है कि संसार उनकी रचना का आदर करें। जायसी ने अपनी अंतिम इच्छा प्रकट करते हुए कहा था कि मैंने काव्य का सृजन इसलिए किया कि मरणोपरान्त यह मेरी स्मृति चिह्न बनी रहें।
2) अर्थ: काव्य के भौतिक प्रयोजनों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण अर्थ है। क्योंकि संसार में प्रत्येक व्यक्ति को इसकी आवश्यकता होती है। पैसा कमाना कवि का प्रमुख उद्देश्य नहीं होता, किंतु परिस्थिति के कारण ही उसे ऐसा करना पड़ता है। प्राचीन काल में कवि राजदरबारों का आश्रय लेकर काव्य-रचना करते थे और इसके लिए आश्रयदाता उनके भरण-पोषण की व्यवस्था करते थे, उन्हें पुरस्कृत करते थे।
बिहारी को प्रत्येक दोहे पर एक सोने की मुहर मिलती थी । केशवदास को इक्कीस गाँव पुरस्कार स्वरूप मिले थे । अंग्रेजी के प्रसिध्द उपन्यासकार स्कॉट ने कर्ज चुकाने के लिए उपन्यास लिखे। आज कवियों के आश्रयदाता राजे-महाराजे तो नहीं रहे पर साहित्य की बिक्री से आय होती है, रॉयल्टी प्राप्त होती है। अतः काव्य अर्थप्राप्ति का भी एक साधन है।
3) व्यवहार ज्ञान: यह भी काव्य का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है। बहुत से साहित्यकार अपने मित्रों, निकट संबंधियों, पुत्रों तथा शिष्य आदि को व्यवहार की शिक्षा देने के लिए काव्य द्वारा उन्हें उचित-अनुचित तथा कर्तव्य - अकर्तव्य का ज्ञान कराते हैं । काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी आदि विधाओं में चित्रित पात्रों के अध्ययन से पाठकों का दर्शकों को यह ज्ञात होता है कि किन परिस्थितियों में कैसा व्यवहार और आचरण करना चाहिए। काव्य अर्थात् साहित्य के अध्ययन से पाठक को लोक व्यवहार का ज्ञान होता है। बिहारी, रहीम, वृंद आदि कवियों ने यत्र-तत्र व्यवहार ज्ञान की बातें कहीं हैं। महाकवि तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में आदर्श व्यवहार की बातें कही हैं।
4) अमंगल की निवृत्ति: कवि समाज का एक सदस्य होता है। समाज में सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् की भावना उत्पन्न करना उसका मुख्य लक्ष्य होता है । अतएव जब कभी वह समाज में अमंगलकारी एवं अशिव तत्त्वों को पनपते देखता है, तो उन्हें नष्ट करने के लिए काव्य का आश्रय लेता है । वह अपने समाज एवं युग को अमंगल से बचाने का भरसक प्रयास करता है । उसका मुख्य लक्ष्य ही होता है समाज को सड़ी-गली रूढ़ियों एवं परंपराओं से मुक्त कराना । अतः वह अपने साहित्य के माध्यम से समाज में पनप रहे अमंगल तत्त्वों पर जमकर प्रहार करता है।
5) अलौकिक आनंद: अलौकिक आनंद को लोकोत्तर आनंद भी कहा जाता है। यह सबसे महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है। काव्य से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। काव्यानंद की अनुभूति के समय मनुष्य लौकिक सुख-दुख को भूलकर पूर्ण रूप से तन्मय हो जाता है। यह प्रयोजन मुख्यतः पाठक की दृष्टि से है। किंतु काव्य-रचना में कवि को भी आनंद की प्राप्ति होती है।
मनुष्य काम, क्रोध, राग, द्वेष, मद-मोह, सुख-दुख आदि विकारों से ग्रस्त रहता है। कवि का मन भी भटका हुआ रहता है। उसकी आत्मा भौतिक साधनों से संतुष्ट नहीं रहती। उसकी तृप्ति के लिए वह नई कल्पनाओं से युक्त काव्य की सृष्टि करता है। काव्य लिखते समय कवि का मन भौतिक वासनाओं से ऊपर उठ जाता है। तभी उसे अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। यह अवस्था काव्य के अतिरिक्त किसी अन्य साधन से प्राप्त नहीं होती।
6) सरस - मधुर उपदेश: इसे कांता सम्मित उपदेश भी कहा जाता है। आनंद के साथ उपदेश दुर्लभ है। प्रायः उपदेश में कठोरता होती है। और वह मन को स्वीकार नहीं होती। किंतु काव्य के माध्यम से सरस शैली में कर्तव्य - अकर्तव्य, क्या करना चाहिए ? क्या नहीं करना चाहिए ? इसका उपदेश मिलता है। यह उपदेश कठोर न होकर सरस एवं मधुर होता है। इसलिए इस उपदेश की तुलना पत्नी के द्वारा दिए गए उपदेश से की है। स्वामी या गुरूजनों की तुलना में यह उपदेश अधिक मधुर होता है।
काव्य के पाश्चात्य प्रयोजन
पाश्चात्य काव्यशास्त्र में काव्य को 'कला' माना गया है। पाश्चात्य काव्यशास्त्र में काव्य अर्थात् कला के अनेक प्रयोजन दिखाई देते हैं। उनमें से प्रमुख प्रयोजन निम्न प्रकार :-
1) कला, कला के लिए :- इस प्रयोजन के समर्थक साहित्य का प्रयोजन स्वयं के आनंद से भिन्न अन्य नहीं मानते। इनके मतानुसार कला का क्षेत्र नीति, सदाचार आदि से भिन्न है। वे कला या साहित्य का जीवन से कोई संबंध नहीं मानते। साहित्य द्वारा समाज प्रबोधन की बात को वे गौण मानते है। वे मानते है कि कला, कला के लिए, काव्य, काव्य के लिए है। नैतिक और धार्मिक उपदेश देने के लिए काव्य या कला नहीं होती।
2) कला जीवन के लिए :- इस सिध्दांत को माननेवालों का मत है कि साहित्य तथा जीवन का गहरा संबंध है। साहित्य और जीवन एक दूसरे पर आश्रित है। साहित्य जीवन को उचित दिशा देकर मंगलमय बनाने का प्रयत्न करता है। वे मानते है कि कला का संबंध मनुष्य के संपूर्ण जीवन से है। अतः नीति, सदाचार और उनकी उपयोगिता की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
काव्य जीवन को प्रेरणा देता है। उसमें एक सरसता और उत्साह का संचार करता है। उदासी और चिंता के क्षणों में मन को प्रसन्न करने की उसमें शक्ति है। जीवन के यथार्थ और आदर्श दोनों पक्षों का चित्रण साहित्य करता है। काव्य जीवन को सुंदर, स्वस्थ और उदात्त दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है। हम एक साथ थोड़े ही समय में व्यापक और संपूर्ण जीवन के दर्शन कर ज्ञान, आनंद और शिक्षा प्राप्त करते हैं । यदि कला या साहित्य जीवन के लिए नहीं है तो उसका उपयोग ही क्या हो सकता है। यह मत कला या काव्य के सामाजिक पक्ष से संबंध रखता है। जीवन को सही दिशा देने में काव्य या साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
3) कला जीवन से पलायन के लिए :- इस मत के माननेवालों का विचार है कि संसार का सुधार असंभव है। अतः इसके संघर्ष में पड़कर सुख-शांति भंग करना व्यर्थ है। कवि या लेखक केवल अपनी ही मस्ती में जीवन जीना चाहते है और सुखद आनंद की प्राप्ति करना चाहते है । यथार्थ जीवन की कटुता और अभावों के बीच रहते-रहते जब दम घुटने लगता है, तब हम जीवन के उस रूप में प्रवेश करना चाहते है जहाँ जीवन में कटुता और अभाव न हो। अर्थात् हम वास्तविक जीवन से भाग है।
कवि काल्पनिक जीवन को काव्य में उतारने का प्रयत्न करता है। जीवन में चाहे उसे उतारने की क्षमता और साधन उसके पास न हो। यथार्थ जीवन की कटुता से ऊबकर काल्पनिक जीवन के चित्र प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति इसमें आती है। कवि अपने नित्यप्रति के चिंतापूर्ण कटु और एकरस जीवन से ऊबकर अधिक व्यापक, बहुरंगी और सुंदर जीवन के दर्शन करने के लिए काव्य या कला का आश्रय ग्रहण करते हैं।
4) कला जीवन में प्रवेश के लिए :- साहित्य का उद्देश्य जीवन से पलायन करना नहीं है, बल्कि इस संघर्षमय संसार में प्रवेश करना है। जिसके कारण व्यक्ति अपने जीवन में आयी हुई संघर्षमय स्थिति से लड़ता हुआ आदर्श स्थिति में पहुँचता है । साहित्य द्वारा व्यक्ति में आशावाद पनपता है। वह निराशा की स्थिति से बाहर निकल जीवन में आगे बढ़ता है। साहित्य से उसे जीवन जीने के प्रेरणा प्राप्त होती है।
5) कला सेवा के लिए:- कला का मानवीय लक्ष्य है कि मानव को न केवल मानव की, बल्कि प्राणियों की भी सेवा करनी चाहिए। अर्थात् मानव, प्राणी और प्रकृति के प्रति सहानुभूति एवं संवेदना होनी चाहिए। काव्य अथवा कला से तो सेवा होती ही रहती है । कलाकार स्वयं अपने युग की आवश्यकता के अनुसार मानव सेवा व्रत अपनाता है।
6) कला आत्मानुभूति और आनंद के लिए:- यह प्रयोजन भारतीय सभ्यता और आदर्श के अनुकूल है। साहित्य में हमारे भाव, विचार, भाषा का परिधान धारण कर अभिव्यक्त होते हैं। जिससे आत्मानुभूति का आनंद प्राप्त होता है। साहित्यकार साहित्य के माध्यम से अपने अनुभव का प्रकाशन करता है । इससे उसे आनंद की अनुभूति होती है।
7) कला मनोरंजन के लिए:- इस मत को मानने वाले कला या साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन मानते है। वे मानते है कि साहित्य दिल बहलाने का साधन है। काव्य और कला का प्रमुख ध्येय मनोरंजन और आनंद माना जाता है। काव्य से मनोरंजन भी होता है और आनंद भी प्राप्त होता है। कला के माध्यम से आत्मिक विकास के साथ-साथ प्रसन्नता भी प्राप्त होती है। इस प्रयोजन के संबंध में कोई मतभेद नहीं है।
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