काव्य के हेतु का परिचय लिखिए। काव्य निर्माण के पीछे भी कोई न कोई कारण होते हैं। काव्य-हेतु का अर्थ है काव्य के कारण। अर्थात् काव्य-रचना के पीछे कौन-कौ
काव्य के हेतु का परिचय लिखिए।
काव्य का हेतु: संसार का कोई भी ऐसा कार्य नहीं है, जिसके करने के पीछे कोई कारण न हो। अर्थात् कारण के बिना कोई कार्य हो ही नहीं सकता। काव्य निर्माण के पीछे भी कोई न कोई कारण होते हैं। काव्य-हेतु का अर्थ है काव्य के कारण। अर्थात् काव्य-रचना के पीछे कौन-कौन से कारण काम करते हैं, किन कारणों से काव्य-रचना संभव हो पाती है। काव्य के हेतु के संबंध में आचार्यों निम्नलिखित कारणों की चर्चा की हैं -
(1) प्रतिभा (शक्ति) :- शक्ति का अर्थ है - प्रतिभा। जो जन्मजात होती है। काव्य का सबसे प्रमुख कारण प्रतिभा ही है। हमेशा नई-नई वस्तुओं की उद्भावना करनेवाली शक्ति को प्रतिभा कह है। क्या कारण है कि अनेक कवियों ने रामकथा को काव्य का आधार बनाया किंतु किसी को वह महत्त्व प्राप्त नहीं हुआ, जो तुलसीदास को प्राप्त हुआ। कृष्ण - काव्य की लंबी परंपरा में सूरदास ही सर्वोच्च स्थान के अधिकारी माने गये। निश्चित ही अपनी प्रतिभा के कारण। प्रतिभा के अनुपात (प्रमाण) में ही कवि की रचना उत्कृष्ट होती है।
रूद्रट ने प्रतिभा के दो भेद माने हैं - (1) सहजा और (2) उत्पाद्या। सहजा स्वाभाविक होती है और उत्पाद्या शास्त्र आदि के अध्ययन से उन्नत की जा सकती है। राजशेखर ने भी प्रतिभा के दो प्रकार माने हैं - (1) कारयित्री प्रतिभा, (2) भावयित्री प्रतिभा: कवि कर्म की सहयोगिनी तथा कवि का उपकार करनेवाली प्रतिभा कारयित्री प्रतिभा कहलाती है। भावक, पाठक या समालोचक (आलोचक) का उपकार करनेवाली प्रतिभा का नाम भावयित्री प्रतिभा है।
(2) व्युत्पत्ति (ज्ञान) :- संस्कृत के आचार्यों ने प्रतिभा के बाद काव्य-हेतु में व्युत्पत्ति का स्थान महत्त्वपूर्ण माना है। व्युत्पत्ति का अर्थ है - ज्ञान । व्युत्पत्ति दो प्रकार की होती है - शास्त्रीय और लौकिक। शास्त्रीय व्युत्पत्ति अध्ययन द्वारा प्राप्त होती है और लौकिक व्युत्पत्ति निरीक्षण- परीक्षण करने से मिलती है। लौकिक व्युत्पत्ति से काव्य का विषय मिलता है और शास्त्रीय व्युत्पत्ति से अभिव्यंजना पध्दति सक्षम होती है।
इनका पूर्ण ज्ञान होने पर कवि अनेक दोषों से बच सकता है। जिस कवि को लोक का जितना गहरा एवं विस्तृत ज्ञान होगा वह उतना ही सच्चा और अच्छा चित्र अप काव्य में प्रस्तुत कर सकेगा। यह ज्ञान लोक निरीक्षण से और शास्त्रों के अध्ययन से होता है। लेकिन शास्त्र- ज्ञान की तुलना में लोक-ज्ञान अधिक उपयोगी है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष रूप से अर्जित होता है। काव्य का उत्कर्ष कवि की प्रतिभा के समान उसकी व्युत्पत्ति पर निर्भर करता है।
अतः व्युत्पत्ति का काव्य-रचना में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, क्योंकि काव्य-रचना में केवल कल्पना से सजीवता नहीं आती बल्कि उसकी प्राणवत्ता के लिए लोक और शास्त्र का ज्ञान भी बहुत आवश्यक है। व्युत्पत्ति को निपुणता और बहुज्ञता भी कहते हैं।
(3) अभ्यास :- प्रतिभा और व्युत्पत्ति के साथ-साथ अभ्यास का योग होने से काव्य-रचना श्रेष्ठ बनती है। अभ्यास का अर्थ है - बार-बार अथवा निरंतर प्रयत्न करते रहना। ऐसा कहा जाता है कि भाग्य धोखा दे सकता है, किंतु अभ्यास कभी धोखा नहीं देता। बात यह है कि अभ्यास करते रहने से सारी बातें हमेशा प्रस्तुत रहती है। अतः उनका उपयोग अनायास हो सकता है। अभ्यास किसी काव्यज्ञ अर्थात् काव्य का ज्ञान रखनेवाले के निर्देशन में करना चाहिए। काव्यज्ञ से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है, जिसमें काव्य-रचना की क्षमता हो तथा गुण- दोष विवेचन का ज्ञान। ऐसे व्यक्ति का मार्गदर्शन हमेशा उपयोगी सिध्द होगा।
निरंतर प्रयास करने से व्यक्ति निपुण बन जाता है। इसीलिए अंग्रेजी में कहा जाता है कि Practice makes man perfect । अभ्यास के अभाव में अनेक प्रतिभाएँ असफल हो जाती है। अभ्यास द्वारा ही कवि श्रेष्ठ रचना का सृजन कर सकता है।
(4) समाधी :- राजशेखर ने समाधी को काव्य का हेतु स्वीकार किया है। वे मन की एकाग्रता को समाधी कहते है। कवि - कर्म के लिए समाधी या एकाग्रता सर्वोत्कृष्ट साधना है। समा आतंरिक होती है तथा अभ्यास बाहरी। समाधी के लिए पहले अभ्यास की आवश्यकता है। समाधी अभ्यास का प्रतिफल है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते है कि भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य के हेतु पर विस्तार से विचार हुआ है। वे प्रतिभा, व्युत्पत्ति, अभ्यास और समाधी है। यह सब अलग-अलग नहीं, बल्कि मिलकर ही काव्य को श्रेष्ठ बनाते हैं। जिस प्रकार वृक्ष के विकास के लिए बीज, खाद, जल और प्रकाश की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार काव्य-वृक्ष भी प्रतिभा रूपी बीज से व्युत्पत्ति रूपी खाद से, अभ्यास रूपी जल से तथा समाधी रूपी प्रकाश से अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होता है।
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