जैसे उनके दिन फिरे का व्यंग्य सारांश: 'जैसे उनके दिन फिरे' हिंदी साहित्य के सफल व्यंग्यकार हरिशंकर परसाईजी की रचना है। जैसे उनके दिन फिरे व्यंग्य को इ
जैसे उनके दिन फिरे व्यंग्य का सारांश - Jaise Unke Din Phire Summary
जैसे उनके दिन फिरे व्यंग्य का सारांश: 'जैसे उनके दिन फिरे' हिंदी साहित्य के सफल व्यंग्यकार हरिशंकर परसाईजी की रचना है। जैसे उनके दिन फिरे व्यंग्य को इन्होंने एक बहुत रोचक कहानी के माध्यम से व्यक्त करते हुए राजा अर्थात् प्रशासनिक व्यवस्था देखने वाले नेताओं अधिकारियों के गुणों को व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। इस व्यंग्य में निहित कथा कुछ इस प्रकार है।
एक राजा की अनेक पत्नियाँ और चार पुत्र थे। बड़ी रानी ने बाकी की रानियों के पुत्रों को जहर देकर मार डाला था क्योंकि वह अपने पुत्रों को राजगद्दी पर बैठाना चाहती थी। राजा उससे खुश थे क्योंकि वे चाणक्य की नीतियों का अनुसरण करने वाले थे। चाणक्य के अनुसार राजा को अपने पुत्रों को भेड़िया समझना चाहिए। और सच भी यही था कि उनके चारों पुत्र राजगद्दी पर बैठना चाहते थे।
एक दिन राजा चारों पुत्रों को बुलाकर अपने बूढ़े होने के कारण किसी एक को राजगद्दी पर बैठाने हेतु उनकी परीक्षा लिए जाने की बात कहता है। परीक्षा यह थी कि उनके चारों पुत्रों को अपने राज्य की सीमा से कहीं दूर जाकर अपनी योग्यता सिद्ध करनी होगी, अधिक से अधिक धन कमाना होगा, उसी के आधार पर राजा सुनिश्चित किया गया। चारों पुत्र बिना श्रध्दा के राजा को प्रणाम करके चले जाते हैं और ठीक एक साल बाद फाल्गुन की पूर्णिमा को राजदरबार में हाजिर होते हैं। राजा के आदेशानुसार चारों पुत्र अपनी-अपनी योग्यता सिध्द करते हैं।
राजा के पहले पुत्र के अनुसार राजा के लिए ईमानदारी और परिश्रम बहुत आवश्यक गुण है अतः उसने पूरे एक साल तक व्यापारी के यहाँ परिश्रम और ईमानदारी से बोरे ढोने का काम किया है और उसके पास सौ स्वर्णमुद्राएँ हैं। इसलिए वह राजा बनने योग्य है।
राजा के आदेश पर उनके दूसरे पुत्र ने कहा कि उसके अनुसार राजा को साहसी, लुटेरा और अपने बाहुबल पर भरोसा होना चाहिए, तभी वह राज्य का विस्तार कर सकता है इसीलिए उसने पड़ोसी राज्य में जाकर डाकुओं का एक गिरोह संगठित किया और खूब लुटमार करने लगा, उसे राज्य के कर्मचारियों का सहयोग मिला। उसके बड़े भाई के सेठ के यहाँ भी उसनें दो बार डाका डाला था। इस एक वर्ष में उसने पाँच लाख स्वर्ण मुद्राएँ कमाई हैं अतः वही राजगद्दी का अधिकारी है।
राजा के संकेत पर उनके तीसरे पुत्र ने कहा कि राजधानी में उसकी बहुत बड़ी दुकान है जिसमें वह घी में मूँगफली का तेल और शक्कर मे रेत मिलाकर बेचता था । उसने राजा से लेकर मजदूर तक को सालभर मिलावटी घी-शक्कर खिलाया । राजकर्मचारी उसे पकड़ते नहीं थे क्योंकि सबको वह अपने मुनाफे से हिस्सा देता था। बड़े भाई के सेठजी और मँझले भाई को भी उसने मिलावटी सामान खिलाया है। तीसरे पुत्र के अनुसार राजा को बेईमान और धूर्त होना चाहिए तभी वह टिक सकता है। सीधे राजा को कोई एक दिन नहीं रहने देगा । उसमें ये सारे गुण हैं उसने पिछले एक साल में दस लाख रुपए कमाए हैं अतः राजगद्दी का वह अधिकारी है।
राजा का सबसे छोटा पुत्र वेश-भूषा, भाव-भंगिमा में तीनों से भिन्न था सादे - मोटे कपड़े पहने हुए था, न सिर पर पगड़ी थी न पैरों में खड़ाऊँ या चप्पल । परन्तु उसके मुख पर बड़ी प्रसन्नता और आँखों में बड़ी करूणा थी। राजा का संकेत पाकर उसने राजा को बताया कि जब वह दूसरे राज्य में गया तो उसे समझ नहीं आया कि वह क्या करे। वह कई दिनों तक भूखा-प्यासा भटकता रहा। चलते-चलते वह एक अट्टालिका में पहुँचा, उस पर 'सेवा आश्रम' लिखा था। अंदर तीन-चार आदमी बैठकर ढेर सारी स्वर्ण मुद्राएँ गिन रहे थे। छोटे पुत्र द्वारा बार-बार उनके काम धंधे के बारे में पूछे जाने पर उनमें से एक दयावान व्यक्ति ने बताया कि वे त्याग और सेवा का धंधा करते हैं। राजा के छोटे पुत्र ने उन सभी लोगों से इस त्याग और सेवा के धंधे को सिखाने की प्रार्थना की। उनमें से एक दयालु व्यक्ति ने कहा कि वे लोग उसे अपने विद्यालय में प्रवेश करवा कर मात्र एक सप्ताह में उसे त्याग और सेवा के धंधे में पारंगत कर देंगे, जब उसका अपना धंधा चल पड़ेगा तब वह श्रध्दानुसार गुरूदक्षिणा दे देगा। छोटा पुत्र उस सेवा आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने लगा। सेवा आश्रम का जीवन राजसी ठाट-बाट वाला था सुंदर वस्त्र, स्वादिष्ट भोजन नौकर-चाकर सब कुछ। आश्रम के प्रधान ने उसे अंतिम दिन बुलाकर मोटे सस्ते वस्त्र देते हुए कहा कि इन वस्त्रों को बाहर पहनना क्योंकि कर्ण के कवच कुंडल की तरह ये मोटे सादे वस्त्र बदनामी से उसकी रक्षा करेंगे। वह अब सब कलाएँ सीख गया है ईश्वर का नाम लेकर उसे अपना कार्य आरंभ कर देना चाहिए। जब तक उसकी अट्टालिका नहीं बन जाती तब तक वह वहीं रह सकता है।
उसके बाद छोटे पुत्र ने 'मानव - सेवा - संघ' खोलकर इस बात को प्रचारित किया कि मानव मात्र की सेवा, गरीबों, भूखों, नंगों, अपाहिजों, जरूरतमंदों की सेवा करना ही हमारा परम धर्म है। इसलिए इस पुण्यकार्य में उसका हाथ बँटाने के लिए, मानव सेवा, समाज और राष्ट्र की उन्नति के लिए खुलकर दान करें। जनता बड़ी भोली है उसने खूब दान किया। बड़े भईया के सेठ ने भी दिया और बड़े भैया ने भी पेट काटकर दो स्वर्ण मुद्राएँ दान में दी।
एक बार लुटेरे भाई के अन्य चेले डाकूओं को राजा के सैनिक पकड़ने आए। उस समय उन डाकूओं को छोटे भाई के चेलों ने 'मानव सेवा संघ' आश्रम में छुपा लिया था।
इसके बाद लुटेरे भाई ने भी उसके चेलों को एक सहस्त्र मुद्राएँ दी थी। इस एक वर्ष में चंदे से उनके पास बीस लाख स्वर्ण मुद्राएँ हैं। वह पुनः राजा से कहता है कि उसके अनुसार राज्य का आधार धन है। राजा को प्रजा से प्रसन्नतापूर्वक धन खींचने, वसूल करने की विद्या आनी चाहिए, यह राजा का आवश्यक गुण है इसलिए वह इस राजगद्दी को योग्य है।
अपने चारों पुत्रों के विषय में राजा ने अपने मंत्री से सलाह माँगी तो मंत्री ने कहा कि राजा के सभी पुत्रों में छोटे राजकुमार ही सर्वश्रेष्ठ हैं, सबसे योग्य हैं क्योंकि उनमें अपने गुणों के सिवाय शेष तीनों राजकुमार के गुण विद्यमान हैं। वह बड़े भाई की तरह परिश्रमी है, दूसरे के समान साहसी और लुटेरा है और तीसरे के समान बेईमान और धूर्त भी है। उसने एक साल में सबसे अधिक धन बीस लाख स्वर्ण मुद्राएँ भी इकट्ठी की है अतः राजा बनने की योग्यता मात्र उसी में है। मंत्री की बात सुनकर सभी प्रसन्नता से ताली बजाने लगे। दूसरे दिन छोटे राजकुमार को राजा बनाया गया, तीसरे दिन पड़ोसी राज्य की गुणवंती कन्या से उसका विवाह हुआ चौथे दिन उसे मुनि की कृपा से पुत्र रत्न प्राप्त हुआ और वह सुख से राज-काज चलाने लगा ।
कहानी यहीं समाप्त होती है। जैसे राजा के छोटे पुत्र का दिन फिरा वैसे ही सबके दिन फिरे ।
COMMENTS