उत्साह निबंध का सारांश - Utsah Nibandh Ka Saransh: दुःख के वर्ग में जो स्थान भय का है, आनन्द-वर्ग में वही स्थान उत्साह का है। साहसपूर्ण आनन्द की उमंग
उत्साह निबंध का सारांश - Utsah Nibandh Ka Saransh
उत्साह निबंध का सारांश- दुःख के वर्ग में जो स्थान भय का है, आनन्द-वर्ग में वही स्थान उत्साह का है। साहसपूर्ण आनन्द की उमंग का नाम उत्साह है। कर्म - सौन्दर्य के उपासक ही सच्चे उत्साही कहलाते है। कष्ट या हानि पूर्वक कार्य भी साहस और उत्साह के साथ किये जाते हैं। कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद होते हैं। साहस और उत्साह में अन्तर होता है। उदाहरणार्थ- बिना बेहोश हुए भारी फोडा चिराने को तैयार होना साहस कहलाता है, पर उत्साह नहीं। धीरता और साहस उत्साहपूर्ण कार्य में साथ देते हैं। दान- वीर, युद्ध और कर्म-वीर उत्साह के अन्तर्गत ही आते हैं। कर्ममात्र के संपादन में होनेवाले तत्परतापूर्ण आनन्द उत्साह कहलाता है।
1. उत्साह के व्यावहारिक रूप
मान-अपमान तथा निन्दा-स्तुति की कुछ भी परवाह न करके किसी प्रचलित प्रथा के विरूद्ध पूर्ण तत्परता और प्रसन्नता के साथ कार्य करनेवाले वीर और उत्साही कहलाते हैं। शुभ या अशुभ परिणाम से उनसे कोई मतलब नहीं। कभी-कभी कुछ लोग तुच्छ मनोवृत्ति में भी उत्साह प्रदर्शित करते हैं। 'सुधार' के नाम पर साहित्य के क्षेत्र में भी कुछ लोग गन्दगी फैलाते हैं। आत्मरक्षा, पर- रक्षा, देश-रक्षा आदि के साथ परपीडन डकैती आदि कर्मों में भी उत्साह या साहस की प्रशंसा होती है।
क्रिया-व्यापार में आनन्द का लगाव होना उत्साह ही है। प्रयत्न और कर्म संकल्प 'उत्साह' नामक आनन्द के नित्य लक्ष्य है। कर्मवीर की तरह बुद्धिवीर भी हो हैं। मुद्राराक्षस नाटक में चाणक्य और राक्षस के बीच नीति की चोटें चली थीं- शस्त्र की नहीं। भारी सभा में शास्त्रार्थी पण्डित से चर्चा करना या भिडना बुद्धि वीरता है। यहाँ शुक्ल जी चुनौती देते हुए कहते हैं-" आजकल बडी-बडी सभाओं के मैचों पर से लेकर स्त्रियों के उठाये हुए पारिवारिक प्रपंचों तक तस्वीर काफी तादाद में पाये जाते श्रद्धा या दया की प्रेरणा से दान देना भी उत्साह है” यहाँ आचार्य शुक्ल जी सिद्धान्तीकरण करते हैं-'उत्साह एक यौगिक भाव है, जिसमें साहस और आनन्द का मेल होता है।'
2. कर्म भावना और उत्साह
कर्म भावना ही उत्साह उत्पन्न करती है, वस्तु या व्यक्ति की भावना नहीं, यहाँ आचार्य शुक्ल एक उदाहरण देते हैं - समुद्र के लिए जिस उत्साह के साथ हनुमान उठे हैं, उसका कारण समुद्र नहीं बल्कि समुद्र लाँघने का विकट कर्म है। किसी कर्म के सम्बन्ध में दिखाई देनेवाली आनन्दपूर्ण तत्परता 'उत्साह' कहलाती है। कर्म के अनुष्ठान में आनन्द की प्राप्ति तीन रूपों में दिखाई देती है -
- 1. कर्म भावना से उत्पन्न
- 2. फल - भावना से उत्पन्न और
- 3. आगन्तुक, अर्थात विषयान्तर से प्राप्त।
कर्म भावना प्रसूत आनन्द सच्चे वीरों का आनन्द है। युद्ध मैदान में उतरने वाले वीर के सामने कर्म और फल के बीच कोई अन्तर नहीं होता। कर्म - प्रवर्तक आनन्द की मात्रा के हिसाब से शौर्य और साहस का स्फुरण होता है। फल की भावना से उत्पन्न आनन्द साधक कर्मों की और तत्परता के साथ प्रकृत करता है। कर्म-भावना प्रधान उत्साह बराबर एक रस रहता है। फलासक्त उत्साही असफल होने पर खिन्न और दु:खी होता है। कर्मासक्त उत्साही केवल कर्मानुष्ठान में ही रत रहता है। अतः कर्मभावना - प्रधान उत्साह ही सच्चा उत्साह है। फल-भावना- प्रधान उत्साह लोभ का एक प्रच्छन्न रूप है। यहाँ गीताकार का उद्दरण देना समुचित है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
3. कर्म और फल की समन्वय अनुभूति
उत्साह वास्तव में कर्म और फल का समन्वय अमुक स्थान पर जाने से हमें यह निश्चय हो जाय दर्शन होगा, तो हमारी यात्रा भी अत्यन्त प्रिय हो जायेगी। फल की इच्छा मात्र से किये जानेवाले प्रयत्न में आनन्द की प्राप्ति नहीं होती। कर्म - रूचि - शून्य प्रयत्न में कभी-कभी मनुष्य साधना के उत्तरोत्तर क्रम का निर्वाह न कर सकने के कारण बीच में ही चूक जाता है। फल की विशेष आसक्ति से कर्म के लाघत की वासना उत्पन्न होती है। कृष्ण ने भी कर्म-मार्ग से फलासक्ति हटाने का उपदेश दिया था –‘कर्मण्येवाधिकारस्ते माफलेषु कदाचन।' लेकिन भारतवासी कर्म से उदासीन बैठे होकर फल के इतने पीछे पडे हुए हैं कि गर्मी में ब्राह्मण को एक पेठा देकर पुत्र की आशा करने लगते है, चार आने रोज का अनुष्ठान कराके व्यापार में लाभ, शत्रु पर विजय, रोग से मुक्ति, धन-धान्य की वृद्धि आदि-आदि चाहते हैं। कर्म सामने उपस्थित रहता है, किन्तु आसक्ति फल पर रहती है जो उत्तेजना और आनन्द कर्म करते समय तक बराबर चला रहता है, उसी का नाम उत्साह है।
उपसंहार
कर्म के मार्ग पर चलता हुआ उत्साही मनुष्य यदि अन्तिम फल तक न पहुँचने पर भी उसका आदर कर्म न करनेवाले की अपेक्षा अधिकतर अवस्थाओं में अच्छा रहेगा। फल पहले से ही कोई बना-बनाया पदार्थ नहीं होता। अनुकूल प्रयत्न-कर्म के अनुसार उसके एक एक अंग की योजना होती है। 'बुद्धि-द्वारा' पूर्ण रूप से निश्चित की हुई व्यापार - परम्परा का नाम ही प्रयत्न है। प्रयत्न की अवस्था में मानव का जीवन संतोष, आशा और उत्साह में बीतता है; अप्रयत्न की दशा में शोक और दुःख में करता है।
कर्म में आनन्द अनुभव करनेवालों ही का नाम कर्मण्य है। अत्याचार का दमन और क्लेश का शमन करते हुए चित्त में उल्लास और दृष्टि होती है। वही लोकोपकारी कर्म - वीर का सच्चा सुख है। उत्तम फल या सुख-प्राप्ति की आशा या निश्चय से उत्पन्न आनन्द उत्साह के रूप में दिखाई पडता है। यदि हमारा चित्त किसी विषय में उत्साहित रहता है तो अन्य विषयों में भी हम उत्साह दिखा देते हैं। यदि हमारा मन बढ़ा हुआ रहता है तो हम बहुत से काम प्रसन्नतापूर्वक करने के लिए तैयार हो जाते हैं।
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