सुवासिनी का चरित्र चित्रण - 'अजातशत्रु' में जो चरित्र मागंधी में बोलता है, जो चरित्र 'स्कंदगुप्त' में विजया के रूप में अवतरित होता है, वही चरित्र परिव
सुवासिनी का चरित्र चित्रण - Suvasini Ka Charitra Chitran
सुवासिनी का चरित्र चित्रण - 'अजातशत्रु' में जो चरित्र मागंधी में बोलता है, जो चरित्र 'स्कंदगुप्त' में विजया के रूप में अवतरित होता है, वही चरित्र परिवर्तित परिस्थिति में 'चन्द्रगुप्त' में आकर सुवासिनी का रूप धारण करता है। सुवासिनी, शकटार की पुत्री सुवासिनी, नंद की नर्तकी सुवासिनी, चाणक्य की पूर्व परिचिता एवं अनुराग रंजिता तथा राक्षस की प्रणयनी सुवासिनी - सभी रूपों में सुवासिनी का एक रूप परिस्थिति के सतरंगी आइने के समान है। परिस्थितियों के कारण अपने चरित्र को कितनी ही उलझनों से भर देने पर भी वह मूलतः एक ही है।
चाणक्य की सहायता करने के कारण शकटार को उसके सात पुत्रों के साथ अंधकूप की सजा मिली थी। उसकी एक मात्र पुत्री सुवासिनी बाहर रह गयी थी। अन्धकूप में शकटार के सातों बच्चों का देहावसान, अन्नपान बिना हो गया। शकटर ने उस अंधकूप में भूख से तडपते हुए अपने सात बच्चों की जानें जाती हुई देखी थी। इस विशाल संसार में सुवासिनी अकेली रह गयी थी। उसका कोई अवलम्ब नहीं रहा। इस कारण वह अपने महल को खंडहर होने से बचा नहीं सकी। ऐसी परिस्थिति में उसने नुत्य एवं संगीत - कला को अपने जीवन का आधार बना लिया। इस प्रकार नंद के क्रोध के परिणाम स्वरूप सुवासिनी को नर्तकी बनना पडा।
विलास तथा अभिनय
रंगमच पर सुवासिनी सर्वप्रथम नंद के विलास - कानन की सुंदरियों की रानी के रूप में आती है। परंतु हृदय पक्ष में वह राक्षस की प्रोयसी है। जब राक्षस मंत्री बनता है तो सुवासिनी नंद के अभिनय - शाला की रानी बनायी जाती है। नंद स्वयं घोषित करता है - " और सुवासिनी, तुम मेरी अभिनयशाला की रानी।" वह मगध की सर्वश्रेष्ठ संदरी थी। उसमें कुसुम की भाँति कोमल थी। नारीगत सहज आकर्षण था। वह राक्षस की चरमसीमा थी जिसे चूमने भर में जीवन के सभी उल्लास और अभिलाषाएँ यथार्थ में परिवर्तित हो जाने को थी।
सुवासिनी एक ओर नंद के अभिनय - शाला की रानी है और दूसरी ओर राक्षस की प्रणयिनी। अभिनय - शाला की रानी होने के कारण नंद सुवासिनी को 'प्रणोश्वरी' का सम्बोधन भी कर देता है। वह कभी - कभी दुर्भावना से सुवासिनी की ओर बढ़ जाता है। तब सुवासिनी स्पष्ट करती है कि वह आगे न बढ़े क्यों कि वह नंद के यहाँ आर्य राक्षस की धरोहर मात्र है। वह राक्षस की प्रणयिनी है। वह किसी भी प्रकार सम्राट की भोग्या नहीं बन सकती। नंद भी राक्षस के सामने स्वीकार करता है कि सुवासिनी राक्षस की अनुरक्त T। वह अपनी दुर्भावनाओं के कारण लज्जित है। इस प्रकार यहाँ सुवासिनी के दो रूपों का एकाकार हो जाता है। यह सुवासिनी के चरित्र की विजय है।
सुवासिनी के चरित्र में और एक उलझन है। वह है चाणक्य की बाल्य सखी होना। सुवासिनी और चाणक्य के बीच बचपन का परिचय और आकर्षण रहा है। उसका संस्कार भली प्रकार सुवासिनी के मन पर बना रहता है।
कर्तव्यध्यान
कर्तव्यपालन करने पर सुवासिनी गर्व करती है। अपनी मर्यादा एव स्त्रीत्व की रक्षा। वह सदा अपने कर्त्तव्य का ध्यान रखतीं है राक्षस प्रणय निवेदन करता है तो सुवासिनी कहती है - " मैं तुम्हारा प्रणय अस्वीकार नहीं करती। किंतु अब इसका प्रस्ताव पिताजी से करो। तुम मेरे रूप और गुण के ग्रहक हो और सच्चे ग्राहक हो।" यहाँ प्रणय पर कर्त्तव्य की विजय होती है।
राक्षस सुवासिनी को चाणक्य के बाल्य - परिचय की याद दिलाता है तो सुवासिनी कहती है - " ठहरो अमात्य! मैं चाणक्य को एक प्रकार से विस्मृत हो गयी थी। तुम इस सोई हुई भ्रमरी का न जगाओ।" इससे स्पष्ट होता है कि सुवासिनी का बाल्य - परिचय उसे चाणक्य की ओर झुका सकता है, परतु सुवासिनी उसे सोई हुई भ्रमरी कहकर टाल देती है।
उपसंहार
सुवासिनी सौन्दर्यमयी नारी है। उसमें मानवीय दुर्बलताएँ हैं। वह महत्वाकांक्षिणी है। एक बार वह चाणक्य की स्मृति संजोती है, फिर राक्षस के बाहुपाशों में मुक्तहृदय सोना चाहती है। दूसरी बार पुन: चाणक्य की ओर घूमती है। राक्षस से परिणय - संबध की घोषणा में समाप्ति तथा उसके जीवन का अंत होता है।
COMMENTS