सिंहरण का चरित्र चित्रण - Singhran Ka Charitra Chitran: जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित 'चंद्रगुप्त नाटक सिंहरण में मालवगण - मुख्य का पुत्र है। वह सच्चा व
सिंहरण का चरित्र चित्रण - Singhran Ka Charitra Chitran
जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित 'चंद्रगुप्त नाटक सिंहरण में मालवगण - मुख्य का पुत्र है। वह सच्चा वीर है। सिंहरण एक स्पष्ट वक्ता है और विनम्रता के साथ निर्भीक होना उसका वंशानुगत लक्षण है। उसमें तक्षशिला की शिक्षा का भी गर्व है। वह आर्यावर्त की दशा से दुखी है। कथानक में सिंहरण का चरित्र उभाकर आया है। नाटक के आरम्भ में ही सिंहरण चाणक्य को बताता है कि उत्तरापथ के खण्ड - राज द्वेष से जर्जर है और शीघ्र ही भयानक विस्फोट होनेवाला है।
राष्ट्रीय भावना
सिंहरण ने चाणक्य द्वारा प्रतिपादित राष्ट्रीय भावना को हृदयंगम कर लिया है। वह समस्त आर्यावर्त को अपना मानता है। वह अलका से कहता है- “मेरा देश मालव ही नहीं, गांधार भी है, यही क्या, समग्र आर्यावर्त है .....गान्धार आर्यावर्त से भिन्न नहीं है, इसीलिए उनके पतन को मैं अपमान समझता हूँ।" सिंहरण के लिए जन्मभूमि ही जीवन है।
स्वच्छन्द हृदय
आम्भीक सिंहरण पर कुचक्र रचने का आरोप लगाता है तो वह धीरयुक्त कहता है – “यह तो वे ही कर सकते है, जिनके हाथ में कुछ अधिकार हो।.... जिनका स्वार्थ समुद्र से भी विशाल और सुमेरु से भी कठोर हो, जो यवनों की मित्रता के लिए बाल्हीक तक ....।" वह आगे आम्भीक की आज्ञा का निरादर करते हुये कहता है – “गुरुकुल में केवल आचार्य की आज्ञा शिरोधार्य होती है । अन्य आज्ञायें, अवज्ञा के कान से सुनी जाती हैं, राजकुमार। "
अलका सिंहरण के इस गुणं पर मुग्ध होती है। वह अपने भाई आम्भीक को समझाती है - " भाई इस वन्य निर्झर के समान स्वच्छ और स्वच्छंद हृदय में कितना बलवान वेग है । यह अवज्ञा भी स्पृहणीय है। जाने दो।” वह अन्यत्र कहती है- 'सुन्दर निश्छल हृदय, तुमसे हँसी करना भी अन्याय है ।"
सिंहरण अम्भीक को अपने मार्ग पर ले आना चाहता है। इसे अलका अनधिकार चेष्टा बताती है - 'भाई ने तुम्हारा अपमान किया है, पर वह अकारण न था, जिसका जो मार्ग है, उस पर वह चलेगा। तुमने अनधिकार चेष्टा की थी।" परंतु सिंहरण उसके मत से सहमत नहीं होता। वह कहता है - " जीवन - काल में भिन्न - भिन्न मार्गों की परीक्षा करते हुए, जो ठहरता हुआ चलता है, वह दूसरों का लाभ ही पहुँचाता है। यह कष्टदायक तो है; परन्तु निष्फल नहीं ।"
अलका के प्रति प्रेम
गुरुकुल में ही सिंहरण अलका के प्रति आकृष्ट होता है । समान लक्ष्य तथा समान गुणों के कारण वे दोनों परस्पर निरंतर समीप आते हैं। अलका सिंहरण को बंदीगृह से छुडाने के लिये पर्वतेश्वर से विवाह करना चाहती है तो सिंहरण कहता है -" अलका। तुम पर्वतेश्वर की प्रणयिनी बनोगी। अच्छा होता कि इसके पहले ही मैं न रह जाता।" वह यह भी कहता है - " कठिन परीक्षा न लो अलका। मैं बडा दुर्बल हूँ। मैं ने जीवन और मरण में तुम्हारा संग न छोडने का प्रण किया है।" उन दोनों का प्रेम सफल होकर अन्त में उनका विवाह होता है।
देशभक्ति
सिंहरण आर्थावर्त में यवनों को यथाशक्ति आगे बढने से रोकना चाहता है। उभंड में सिन्धु पर सेतु बन रहा था। आम्भीक स्वयं उसका निरीक्षण करता था । मालविका ने उस सेतु का एक मानचित्र तैयार कर, अलका को दिया। यवन सैनिक ने उसे छीनने का प्रयत्न किया। अलका ने उसे सिंहरण को दिया। यवन सैनिक ने सिंहरण से उसे छीनना चाहा दोनों में युद्ध हुआ। सिंहरण घायल हुआ। प्रत्याक्रमण के भय में यवन सैनिक भाग गया। घायल होकर भी सिंहरण ने वह मानचित्र पर्वतेश्वर को पहुँचाया।
चाणक्य की सलाह पर सिंहरण और अलका नट और नटी का वेष धारण करके पवेतेश्वर की सेना के पास पहुँचे। उन्होंने पर्वतेश्वर को सूचना दी - " यवन सेना वितस्ता के पार हो गई है, समीप है महाराज। सचेत हो जाइये।"
सिंहरण ने पर्वतेश्वर के साथ यवनों से युद्ध किया। उसने सिंकदर को घायल किया। यवन सैनिकों से उसे ले जाकर सेवा - शुश्रूषा करने केलिए कहा। मालव सैनिकों ने कहा - "इस नृशंस ने निरीह जनता का अकारण वध किया है। प्रतिशेध । " तब सिंहरण ने यह कहकर अपनी महानता का परिचय दिया - " यह एक प्रतिशोथ है। यह भारत के ऊपर एक ऋण था; पर्वतेश्वर के प्रति उदारता दिखाने का यह प्रत्युत्तर है। "
त्यागशीलता
चन्द्रगुप्त सिंहरण को अपना सच्चा मित्र मानता है। आम्भीक सिंहरण पर तलवार चलाता है तो चन्द्रगुप्त अपनी तलवार पर उसे रोकता है। सिंहरण कंधे से कंधा भिडकर चंद्रगुप्त का सहयोग करता रहता है। वह उसके आदेशों का नित्य पालन करता है । चाणक्य की नीति के कारम सिंहरण कुछ समय केलिये चन्द्रगुप्त से दूर हो जाता है । परन्तु फिर ठीक समय पर दोनों मिल जाते हैं। चन्द्रगुप्त सहर्ष कहता है - " भाई सिंहरण, बडे अवसर पर आये।"
सिंहरण प्राण देने केलिए सदा तत्पर रहता है। वह महाबलाधिकृत पद स्वीकार करते समय चन्द्रगुप्त से कहता है – ‘“हाँ सम्राट ! और समय चाहे मालव न मिले पर प्राण देने का महोत्सव पर्व वे नहीं छोड़ सकते।”
आत्माभिमान तथा उपसंहार
सिंहरण आत्माभिमानी है। वह वर्तमान को अपना बना लेने में विश्वास करता है। वह अलका से कहता है – “ अतीत के सुखों केलिये सोच क्यों, अनागत भविष्य केलिये भय क्यों और वर्तमान को मैं अपने अनुकूल बना ही लूँगा, फिर चिन्ता किस बात की ?"
सिंहरण गौण पात्र होने पर भी सारे पात्रों की कुंजी बनता है । चाणक्य, चन्द्रगुप्त, अलका, आम्भीक आदि पात्रों पर उसका प्रभाव है। नाटक को प्रचालित करने में सिंहरण एक प्रधान कुंजी है।
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