राजस्थान की रजत बूँदे पाठ का सारांश - Rajasthan ki Rajat Bunde Class 11 Summary in Hindi: प्रस्तुत पाठ राजस्थान की रजत बूँदें Class 11 हिंदी वितान का
राजस्थान की रजत बूँदे पाठ का सारांश - Rajasthan ki Rajat Bunde Class 11 Summary in Hindi
राजस्थान की रजत बूँदे पाठ का सारांश: प्रस्तुत पाठ राजस्थान की रजत बूँदें Class 11 हिंदी वितान का अध्याय 2 है। यह पाठ अनुपम मिश्र द्वारा लिखा गया है। राजस्थान की रजत बूँदें पाठ का सारांश यह है कि लेखक ने इसमें राजस्थान के मरूस्थल में पायी जाने वाली कुंई के निर्माण के वारे में बताया है जिसका प्रयोग स्थानीय लोग जल संचयन के लिए करते हैं
इसमें चेलवांजी यानी चेजारो, कुंई की खुदाई और विशेष तरह की चिनाई करने वाले दक्षतम लोग कुंई का निर्माण कर रहे हैं। कुंई की खुदाई और चिनाई करने वाले लोगों को चेलवांजी या चेजारो के नाम से जाना जाता है। कुंई के अंदर काम कर रहे चेलवांजी पसीने में तरबतर हो गये हैं। तकरीबन तीस-पैंतीस हाथ गहरी खुदाई हो चुकी है। खुदाई का काम कुलहाड़ी या फावड़े से नहीं हो सकता क्योंकि जगह संकरी होती है इसलिए खुदाई बसौली से की जा रही है।
भीतर तापमान बढ़ता ही जा रहा है। तापमान को घटाने के लिए ऊपर से रेत डाली जाती है जिस वजह से ठंडी हवा नीचे की ओर और गर्म हवा ऊपर चली जाती है। रेत के कणों से सर को बचाने के लिए चेलवांजी सर पर कांसे, पीतल या अन्य किसी धातु का टोप लगा लेते हैं। कुंई की खुदाई से जो मलबा निकलता है उसे बाल्टी में इकट्ठा करके भेजा जाता है। कुएँ की तरह कुंई का निर्माण किया जाता है। कुंई कोई साधारण ढाँचा नहीं है। यह बहुत ही छोटा-सा कुआँ है। कुएँ और कुंई में बस व्यास का ही अंतर होता है। कुएँ का निर्माण भूजल को पाने के लिए किया जाता है जबकि कुंई का निर्माण वर्षा का पानी इकट्ठा करने के लिए करते है।
राजस्थान के अलग–अलग इलाकों में एक विशेष कारण से कुंईयों की गहराई कुछ कम ज्यादा होती है। मरूस्थल में रेत का विस्तार अथा है। यहाँ पर कहीं-कहीं रेत की सतह से पचास-साठ हाथ नीचे खड़िया पत्थर की पट्टी मिलती है। कुएँ का पानी खारा होने के कारण पिया नहीं जा सकता। इसी कारण कुंईया बनाने की आवश्यकता होती है। इनका पानी अमृत के समान मीठा होता है।
इस अमृत को पाने के लिए मरू भूमि के समाज ने एक पूरा शास्त्र विकसित किया है। इस शास्त्र ने समाज के लिए उपलब्ध पानी को तीन रूपों में बाँटा है- पहला रूप है पालरपानी- यानी बरसात से मिलने वाला पानी। यह बारिश का वह जल है, जो धरातल से बहकर नदी, तालाबों में एकत्रित होता है। पानी का दूसरा रूप है पातालपानी- यानी वह भूजल जो कुओं से निकाला जाता है। वह हमें कुओं, ट्यूबवेलों द्वारा प्राप्त होता है। पानी का तीसरा रूप है रेजाणीपानी वह पानी जो रेत के नीचे जाता तो है परन्तु पाताल में नहीं मिल पाता, रेजाणीपानी कहलाता है। वर्षा की मात्रा नापने के लिए इंच या सेंटीमीटर का उपयोग नहीं, बल्कि रेजा शब्द का प्रयोग किया जाता है।
रेजाणीपानी खड़िया पट्टी के कारण पतालीपानी से अलग बना रहता है। इस पट्टी के न होने के कारण रेजाणीपानी पतालीपानी से मिलकर खारा हो जाता है। रेजाणीपानी को समेटने के लिए कुंई का निर्माण होता है। कुंई का निर्माण एक कठिन कार्य होता है थोड़ी-सी भी चूक चेजारों के प्राण ले सकती है। हर दिन थोड़ी-थोड़ी खुदाई होती हैं, डोल से मलबा निकाला जाता है और फिर आगे की खुदाई रोककर चिनाई की जाती है।
चेजारों को राजस्थान में विशेष दर्जा प्राप्त था। चेजारों की विदाई के समय उन्हें अलग-अलग तरह की भेंट दी जाती है। कुंई के बाद भी उनका रिश्ता बना रहता था। तीज त्योहारों और विवाह जैसे मांगलिक कार्यों में उन्हें भेंट दी जाती थी। फसल आने पर खलिहान का एक हिस्सा उनके लिए रखा जाता था। लेकिन आज के समय में उन्हें वह सम्मान नहीं दिया जाता है। उनसे बस एक मजदूर की तरह काम करवाते है। कुंई का मुँह छोटा रखने के कई कारण है। रेत में जमा नमी से पानी की बूँदें बहुत धीरे-धीरे रिसती है। कुंई में पानी नाममात्र का ही रहता है।
दिन रात मिलाकर बस तीन-चार घड़े ही भर पाते हैं। कुंई हर घर में है लेकिन ग्राम पंचायत का नियंत्रण बना है। नई कुंई के निर्माण की अनुमति कम ही मिलती है। क्योंकि कुंई निर्माण से भूमि की नमी का बँटवारा हो जाता है। चूरू, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर में खड़िया पत्थर की पट्टी पाई जाती है इसलिए यहां हर घर में कुंई का निर्माण होता है। अलग-अलग जगहों पर खड़िया पट्टी को अलग-अलग नाम से जाना जाता है। कहीं इस पट्टी का नाम केवल खड़ी है और इसी खड़ी के कारण खारे पानी के बीच मीठा पानी देती कुंई खड़ी रहती है।
जैसलमेर जिले के एक गाँव खडेरों की ढ़ाणी में एक सौ बीस कुंइयाँ थी। लोग इस क्षेत्र को छह-बीसी (छह गुणा बीस) जानते थे । इसप्रकार इस अध्याय में लेखक अनुपम मिश्र ने राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्रों में पाई जाने वाली कुंइयों के निर्माण की प्रक्रिया, इनकी विशेषताएँ एवं इनका महत्व बताते हुए जल संरक्षण का संदेश देने का प्रयास किया है।
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