मालविका का चरित्र चित्रण- मालविका 'चंद्रगुप्त' नाटक में एक गौण पात्र है। फिर भी प्रसाद जी ने उसका अत्यन्त चरित्र संवेदनीय और आकर्षक प्रस्तुत किया है।
मालविका का चरित्र चित्रण - Malvika Ka Charitra Chitran
मालविका का चरित्र चित्रण- मालविका 'चंद्रगुप्त' नाटक में एक गौण पात्र है। फिर भी प्रसाद जी ने उसका अत्यन्त चरित्र संवेदनीय और आकर्षक प्रस्तुत किया है। वह सिन्धु देश की कुमारी है । सिन्धु में उसका कोई आत्मीय था, इस बात का वह कही कोई उल्लेख नहीं करती। वह प्रकृति से भ्रमणशील है। उसकी इच्छा हुई कि वह और देशों तो भी देखे। भ्रमण करती हुई गांधार देश जा पहँचती है। पहले-पहल मालविका को सिन्धु नदी के तट पर अलका के साथ धूमते-फिरते दिखाई देती है। तभी हमें ज्ञाता होता है कि मालविका ने भी अलका की तरह देश - सेवा का व्रत ले रखा है।
कौशल
मालविका सिन्धु पर बननेवाले सेतु का मानचित्र खींचने का प्रयत्न करती है । यवन सैनिक उस मानचित्र को छीनना चाहता है। तब मालविका और अलका जिस कौशल के साथ उस स्थिति का सामना करती है, उस से हमारे मन में उसके प्रति ऊँची धारणा बन जाती है।
चन्द्रगुप्त से आकृष्ट
मालव के उद्यान में चंद्रगुप्त और मालविका एक साथ विचरते रहते हैं और वार्तालाप करते रहते है। दोनों के हृदयों में एक दूसरे केप्रति स्नेह का अंकुर उत्पन्न हो जाता है। परंतु आगे के दृश्यों में इस समरस स्नेह का विकास नहीं होता । मालविका क्रमश: चंद्रगुप्त की गुप्त प्रेमका - सी बन जाती है और वह इतने से ही संतृप्त होती है।
असाधारण मनोभावना
दो दृश्यों में मालविका की शांतिप्रियता और हिंसा के प्रति घृणा का भाव व्यक्त होता है। एक अवसर पर मालविका चंद्रगुप्त से कहती है - "मैं सिन्धु देश की रहनेवाली हूँ आर्य! वहाँ युद्ध विग्रह नहीं है, न्यायालयों की आवश्यकता नही है।" दूसरे अवसर पर वह अलका से कहती है - " मैं डरती हूँ, घृणा करती हूँ । रक्त की प्यासी छुरी अलग करो अलका । मैं ने सेवा का व्रत लिया है।" इन दोनों दृश्यों में न केवल मालविका के चरित्र को विशिष्टता दी गयी है, उसकी असाधारण मनोभावना का सुंदर निरूपण भी किया गया है।
विश्वसनीयता
तीसरे अंक में मालविका मालव युद्ध के बाद सिकंदर की विजय के अवसर पर एक प्रधान पात्री के रूप में चित्रित की जाती है। मालविका चंद्रगुप्त को एक पत्र पहुँचाती है जिसमें यवन सेनापति फिलिप्स के द्वारा चंद्रगुप्त से द्वन्द्व - युद्ध का निमंत्रण रहता है। इसी प्रकार चाणक्य के द्वारा भेजा हुआ कृत्रिम पत्र नंद के राजमंदिर तक पहुँचाने का दयित्व भी लेती है। अन्त में विश्वस्त गुप्तचर का कार्य उसे सौपा जाता है। इसे भी वह दक्षता के साथ संपन्न करती है।
बलिदान
अंतिम अंक में चंद्रगुप्त और मालविका प्रेमी और प्रेमिका के रूप में मिलते हैं। परंतु उसी अवसर पर मालविका यह गीत गाती है - "मधुप कब एक कली का है।” इससे मालविका के अन्तस्थल के विक्षोभ का पता लगता है, फिर भी वह सन्तोष करती है । कुछ लोगों का कहना है कि नाटककार ने यहाँ भी उसके प्रति अन्याय किया है। वे यह प्रश्न करते हैं कि जब अलका सिंहरण से विवाह कर लेती है तो उसकी सखी मालविका का इस प्रकार जीवन भर भटकते रहना कहाँ तक समीचीन है ? इसके समाधान के रूप में यह कहा जा सकता ही नहीं, चाणक्य तथा चंद्रगुप्त के सामने भारतीय साम्राज्य के निरापद करने की समस्या थी। इस समस्या की पूर्ति कार्नेलिया और चंद्रगुप्त के परिणय से हो सकती है। इसी कारण नाटककार ने मालविका का चंद्रगुप्त से परिणय होने नहीं दिया।
मालविका अपने एकांतिक प्रेमी चंद्रगुप्त के लिए को बलिदान करने पर उसका संपूर्ण व्यक्तित्व चरम उत्कर्ष के साथ प्रकट होता है। वह चाणक्य की आज्ञा पाकर चंद्रगुप्त के शयन का अन्यत्र प्रबंध करती है और सोचती है – ‘“जाओ प्रियतम। सुखी जीवन बिताने केलिए और मैं रहती हूँ जीवन का अंत करने केलिए । जीवन एक प्रश्न है और मृत्यु उसका अटल उत्तर है।.... ओह। आज प्राणों में कितनी मादकता है । मैं.... कहाँ हूँ ? स्मृति, तू मेरी तरह सो जा। अनुराग, तू रक्त से भी रंगीन बन जा।" बलिदान की शय्या पर गाया हुआ वह चरम गीत पाठकों के हृदय में वेदना, कसक और मादकता एक साथ उद्वेलित करता है।
उपसंहार
सिंहरण से मालविका की हत्या का संवाद सुनकर चंद्रगुप्त केवल 'आह मालविका' कहकर ही रह जाता है। परंतु वह मालविका के नहीं प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि प्रकट करता है - "पिता गये, माता गई,
गुरुदेव गए, कंधे .. से कंधा भिडाकर प्राण देनेवाला चिर सहतर सिंहरण गया, तो भी चंद्रगुप्त को रहना पडेगा और रहेगा। परन्तु मालविका, आह। वह स्वर्गीय कुसुम। " इन वाक्यों में चंद्रगुप्त के प्रति नाटककार प्रसाद की सद्भावना व्यक्त होती है।
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