भारतीय कलाएं पाठ 4 का सारांश हिंदी वितान - Bhartiya Kalaye Class 11 Summary in Hindi: भारतीय कलाएं का सारांश इस प्रकार है इस पाठ में प्रमुख भारतीय कला
भारतीय कलाएं पाठ 4 का सारांश हिंदी वितान - Bhartiya Kalaye Class 11 Summary in Hindi
भारतीय कलाएं पाठ 4 का सारांश: प्रस्तुत पाठ भारतीय कलाएं कक्षा 11 हिंदी वितान का अध्याय 4 है। भारतीय कलाएं का सारांश इस प्रकार है इस पाठ में प्रमुख भारतीय कलाएं जैसे चित्रकला, भारतीय नृत्य कला और संगीत कला आदि का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। इस सभी भारतीय कलाओं का सम्बन्ध हमारी परम्पराओं और समृद्ध इतिहास से है।
कलाओं की अपनी भाषा होती है जैसे- हम अपने आस-पास के परिवेश, प्रकृति या भावों और विचारों को भाषा में व्यक्त करते हैं। वैसे ही चित्रकारी, संगीत या नृत्य के माध्यम से भी हम अपने आस-पास और प्रकृति को अभिव्यक्त करते हैं। हम जो कुछ देखते हैं- सुनते हैं उसे किसी न किसी रूप में और नए-नए तरीके से कहना या अभिव्यक्त करना चाहते हैं । समुद्र में उठती गिरती लहरों को देखकर चित्रकार उसे रंगों में सजाता है। चिड़िया की चहचहाट को गायक स्वरों में सजाता है तो नर्तक मन के भावों को विभिन्न मुद्राओं में सजाता है। कभी चित्रों में तो कभी गीतों में, कभी नृत्य में, तो कभी संगीत में, यह कहते - सुनने की परम्परा सदियों से चल रही है और आज भी नए-नए तरीकों में लगातार जारी है। हमारा देश भारत उत्सवर्धी है। विविधता हमारी पहचान है। विभिन्न संस्कृतियों और विभिन्न त्योहारों के साथ-साथ विविध कलाएँ भी हमारी अनूठी पहचान हैं।
हमारी कलाओं को त्योहारों, उत्सवों से अलग नहीं किया जा सकता। ये कलाएँ जन्मोत्सव से लेकर, शादी-ब्याह, पूजा तथा खेती-बाड़ी से भी जुड़ी हैं। मनुष्य के जीवन से जुड़ी होने के कारण ही भारत की ये विशिष्ट कलाएँ विरासत के प्रति हमें उत्साह और विश्वास से भर देती हैं। शुरूआती दौर में सभी कलाओं का संबंध लोक या समूह से ही था। बाद में चलकर जब इसका संबंध व्यवसाय से जुड़ा तो व्यक्ति केंद्रित होती चली गई। मध्यकाल तक आते-आते साहित्य, चित्र, संगीत, नृत्य कलाएँ राजाओं और विभिन्न शासकों के संरक्षण में चली गई और धीरे-धीरे शास्त्रीय नियमों में बँधी। इस तरह मंदिरों और महलों में विकसित होती हुई ये कलाएँ शास्त्रीय स्वरूप ग्रहण करती गई।
शास्त्र ने संगीत, नृत्य - अभिनय कलाओं को एक शास्त्रीय कला का स्वरूप दिया। फिर भी लोक कलाएँ अपनी जड़ों से पूरी तरह जुड़ी रही। आज की कलाओं की जड़े लोक में ही हैं, चाहे चित्रकला हो, सगीतकला हो या फिर नृत्य कला ।
चित्रकला
चित्रकारी प्राचीन काल से ही हमारे जीवन का अभिन्न अंग रहा है। जब हमारे पास भाषा नहीं थी तब भी चित्रकारी थी और यही अभिव्यक्ति का माध्यम थी। प्रागैतिहासिक समय में अपने वातावरण, रहन–सहन, भावों और विचारों को मनुष्य ने चित्रों के माध्यम से ही व्यक्त किया। सबसे प्राचीन चित्रों के नमूने शैल चित्रों को ही माना जाता है। ये चट्टानों पर प्राकृतिक रंगों से बने हुए चित्र हैं। ये गुफाओं में मिलते हैं।
मध्य प्रदेश में भीम बेटका की गुफाएँ शैल चित्रों के लिए जानी जाती हैं। इन चित्रों में जीवन की रोजमर्रा की गतिविधियाँ शिकार, नृत्य, संगीत, जानवर, युद्ध, साज-सज्जा सभी कुछ दिखाई पड़ता है। एलोरा और अजंता की गुफाएँ कला कृतियों के लिए विख्यात हैं। चौथी से छठी सदी के बीच गुप्त साम्राज्य कलाओं के लिए स्वर्ण युग कहलाता है। अजंता की गुफाएँ उन्हीं दिनों खोदी गयी। उनकी दीवारों पर चित्र बनाए गए। बाग और बादामी की गुफाएँ भी इसी जमाने की हैं।
अजंता की गुफाओं के चित्र इतने आकर्षक हैं कि वे आज तक के कलाकारों पर गहरा असर डालते हैं। ऐसा मानना है कि अजंता के दीवारों पर बने चित्रों को बौद्ध भिक्षुओं ने बनाया है। सातवीं-आठवीं सदी में चट्टानों को काटकर एलोरा की गुफाएँ तैयार की गई। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इन्हीं के बीच कैलाश का बहुत विशाल मंदिर है। लगभग इसी समय निर्मित एलीफैंटा की गुफाएँ भी मिलती हैं। यहाँ त्रिमूर्ति की जबरदस्त मूर्ति है। हम जिसे लघुचित्र के नाम से जानते हैं, वे दो प्रकार के हैं।
एक - स्थायी जो कपड़ों, किताबों, लकड़ी या कागज़ पर किया जाता हैं। इनमें आंध्रप्रदेश और छत्तीसगढ़ की की कलमकारी, पंजाब की फुलकारी, महाराष्ट्र की वरली इत्यादि बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। इनमें प्रयोग होने वाली सभी सामग्री प्राकृतिक ही होती हैं। अस्थायी कलाओं में कोहबर ऐपण, अल्पना, रंगोली जैसी कलाएँ काफी प्रचलित हैं। इन कलाओं का संबंध शादी - त्योहार और उत्सवों से है। इन्हें क्षेत्रीय भाषाओं में अलग-अलग नाम से जाना जाता है।
मिथिला की चित्रकारी में मधुबनी चित्रकला भी बहुत प्रसिद्ध है । आज भी कलाकार अपनी इस कला को जिंदा रखे हुए हैं। आज के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भी इन लघु लोक कलाओं की बहुत मांग है। वास्तव में उत्तराखंड में जिसे ऐपण कहते हैं उसे ही राजस्थान में मंडवा, गुजरात में सत्तिया, महाराष्ट्र में रंगोली, बिहार में अरिपन, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में चौकपूरना, दक्षिण भारत में कोलम के नाम से जाना जाता है। ये सभी किसी विशेष मांगलिक अवसरों पर बनाए जाते हैं।
संगीत कला :-
भारत के प्राचीनतम संगीत का वर्णन वैदिक काल में मिलता है। विद्वान लगभग पाँच हजार ई. वर्ष पूर्व के समय को वैदिक काल मानते हैं। इस समय में दो प्रकार के संगीत का उल्लेख मिलता है। एक-मार्गी तथा दूसरा - देसी । मार्गी संगीत धार्मिक समारोहों से जुड़ा था और नियम और अनुशासन से बँधा था। देसी लोक से जुड़ा था। लोक रुचि के अनुसार यह समूह में ही गाया जाता था। भारतीय संगीत सुर/ ताल, राग और काल से संबद्ध है। भिन्न-भिन्न समय के अनुसार राग भी अलग-अलग हैं। जैसे ब्रह्ममुहुर्त में भैरव, मेघ राग का संबंध सुबह से, दीपक और श्रीराग का संबंध दोपहर से तो कौशिक और हिंडोला रात में गाए जाते हैं।
भारतीय संगीतज्ञ किसी भी वस्तु से संगीत निकाल सकते हैं। वीणा, जलतरंग, रवाब, दोतार या बांसुरी सुनकर हम इस बात को समझ सकते हैं। इन सब में प्रयोग किए जाने वाली चीजें हमारे आस-पास के रोज़मर्रा में प्रयोग होने वाली हैं। यह सहजता और प्रकृति से जुड़ाव भारतीय कला की विशेषता रही है। पुरानी फिल्मों में गायक, गायिका नाक से गाना पसंद करते थे। संभवतः यह मुख्य वाद्य वीणा के सुरों तक पहुँचने की कोशिश का प्रभाव था । यह उत्सव और उल्लास भरा संगीत भी धीरे-धीरे नियमों से बँधा। इसका भी शास्त्र लिखा गया। संगीत भी लोक से जुड़ा था। इसमें संस्कारगीत और ऋतुगीत भी खूब मिलते हैं। हरेक वस्तु का स्वागत गीतों से किया जाता है।
नृत्य कला :-
भारतीय संगीत की तरह नृत्य में भी कम बदलाव आए हैं। पहले के नर्तक और आज के नर्तक भी भारतीय नृत्यकला के नियमों का पालन करते हैं, जिसका आधार है अभिनय। इसका भी मूलशास्त्र भरतमुनि का 'नाट्यशास्त्र ही रहा है। नाट्यशास्त्र में 'नृत्य' और 'नर्त्य' दो शब्द मिलते हैं। ये दोनों अभिनय के ही अलग-अलग रूप हैं। नर्त्य - यानी अभिनय । इसमें शब्द और भंगिमा महत्वपूर्ण हैं। नृत्य में भाव और भंगिमा महत्वपूर्ण हैं। भारत लोक नृत्यों से समृद्ध रहा है। हर राज्य के अलग-अलग सुदायों की अपनी नृत्यकलाएँ रही हैं, जो हमारे रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ी हुई हैं। जीवन में जितने अनुष्ठान हैं उन सबसे नृत्य कलाओं का भी संबंध है।
खेती से जुड़े समुदाय के जीवन में ऋतुओं का बदलना, फसलों की बुवाई या कटाई सभी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। ऋतुओं का बदलना उनके पाँवों को चंचल कर देता हैं। वर्षा होती है तो उनके पाँव थिरक उठते हैं। भारत के हर राज्य में यही भाव मिलते हैं। कश्मीर से दार्जिलिंग तथा समूचे हिमालय क्षेत्र में एक ओर शास्त्रों और युद्धों को नृत्य कला शालीनता से प्रस्तुत करते हैं तो दूसरी ओर गेहूँ की फसल बोने को भी एक उत्सव बना देते हैं। सभी लोक नृत्यों में एक गोलाई में नर्तक हाथ में हाथ मिलाए तरह-तरह के करतब दिखाते हैं। पंजाब की महिलाएछ गिद्धा करती हैं।
राजस्थानी महिलाएँ अपनी ओढ़नी से चेहरे को ढंक कर घूमर करती हैं। गुजरात में डंडियों के सहारे स्त्रियाँ गरबा नृत्य करती हैं। पुरूष भी डांडिया रास करते हैं जो गरबा का ही एक और ऊर्जा भरा रूप है। महाराष्ट्र के मछली पालन से जुड़े समुदाय हाथों में हाथ डालकर एक-दूसरे के कंधे पर चढ़कर एक पिरामिड सा बना लेते हैं। महाराष्ट्र का लावणी नृत्य अपनी अद्भुत ऐंद्रिक आकर्षण के लिए प्रसिद्ध है। मैसूर में डोडवा कबीले के लोग बालाकल नृत्य करते हैं। इसमें रंगीन वेशभूषा के साथ-साथ हाथ में तलवारें होती हैं।
केरल में कुरूवांजी नृत्य को भरतनाट्यम का प्रेरणा स्रोत माना जाता है। गुजरात का टिप्पणी नृत्य भी समूह के साथ होता है। यह फसल की कटाई के बाद खलिहान में किया जाता है। अलग-अलग राज्यों के ये नृत्य भिन्न–भिन्न नामों से जाने जाते हैं। पर इनमें एक समानता भी है। ये सभी नृत्य समूह में होते हैं, सभी का संबंध प्रकृति और जीवन से है, सभी में स्त्री-पुरुष एक साथ मिलकर नाचते हैं। नृत्यों का संबंध विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों से भी है पर यह किसी एक धर्म में नहीं बल्कि लगभग सभी धर्मों में दिखाई पड़ता है।
भारतीय नृत्य में सभी अंगों की गति / लय महत्वपूर्ण है। भारतीय नर्तकों को आँख भौंहों या फिर नासिका के माध्यम से ही खुशी, दुख, क्रोध, वीभत्स आदि भावों को अभिव्यक्त करने में महारत हासिल है। इन्हीं भाव-भंगिमाओं के जरिये महाभारत और रामायण जैसी कथाओं तक को कह देने की पम्परा नृत्य कला में मिलती है। भारतीय नृत्य का सबसे आकर्षक रूप है- हाथों की विभिन्न मुद्राएँ इनमें माध्यम से मनुष्य के भावों से लेकर जानवरों के भावों तक को दिखाया जा सकता है। इन शास्त्रीय नृत्यों में मुख्यरूप से केरल का कथकलि, मोहिनीअट्टम, उत्तर प्रदेश का कुचिपुड्डी, उड़ीसा का ओड़िशी, मणिपुर का मणिपुरी, कर्नाटक और तमिलनाडु का भरतनाट्यम मौजूद हैं।
इन सभी का संबंध किसी न किसी राज्य और उनकी परम्पराओं से है। चूँकि इस नृत्य को सीखने के लिए बहुत साधना की ज़रूरत थी इसलिए ज़्यादातर व्यावसायिक ही सीखते थे। आज के मंचों या फिल्मों में जो संगीत या नृत्य मिलता है। उनमें दोनों का मिला-जुला रूप अधिक दिखाई पड़ता है। इनका संबंध भारत की प्रेम भावना के साथ-साथ भारतीय संस्कृति में निहित वसुधैव कुटुंबकम की भावना से भी आवश्यक होगा।
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