विक्रमादित्यसिंह का चरित्र चित्रण - रामगढ़ के राजा विक्रमादित्यसिंह सन् 1850 में रामगढ़ की गद्दी पर बैठे थे। सामान्य जनता इन्हें विक्रमाजीतसिंह कहती थ
विक्रमादित्यसिंह का चरित्र चित्रण - रामगढ की रानी
रामगढ़ के राजा विक्रमादित्यसिंह सन् 1850 में रामगढ़ की गद्दी पर बैठे थे। सामान्य जनता इन्हें विक्रमाजीतसिंह कहती थी। इनका विवाह सिवनी जिले के मनेकहडी के जागीरदार राव झुझारसिंह की पुत्री अवंतीबाई से हुआ था। इनके दो पुत्र अमानसिंह और शेरसिंह थे। राजा विक्रमाजीतसिंह के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है-
धार्मिक प्रवृत्ति
राजा विक्रमाजीतसिंह यद्यपि बहुत ही योग्य एवं कुशल शासक थे तथापि वे अपना अधिकांश समय धार्मिक कार्यों में ही व्यतीत करते थे। राजकाज के कार्यों में वे बहुत कम ही समय दे पाते थे। राजा की धार्मिक प्रवृत्ति का पता उनके अंगरक्षकों की आपस में की गई बातचीत से चलता है। एक अंगरक्षक कह रहा था कि राजा साहब बड़ी देर से खरमेर नदी के जल में पड़े जप कर रहे हैं। सर्दी-खाँसी के दिन हैं, कहीं कुछ-से-कुछ न हो जाए। दूसरा अंगरक्षक कहता है कि कुछ नहीं होगा, देवी दुर्गा और शंकर महादेव के भक्त हैं। विकट ठंड के दिनों में भी चार-चार छ: छः घंटे इसी तरह पड़े रहते हैं। तपस्या करते हैं, उन्हें सिद्धि है। राजा जब अपने अंगरक्षकों से पूछते हैं कि क्या बातें कर रहे हो तो वे उत्तर देते हुए कहते हैं कि हम लोग देवी-देवताओं की चर्चा कर रहे हैं। ठीक है यही किए जाओ, इसी से बेड़ा पार होगा। जब रानी राजा से नहाना बंद करने को कहती हैं तो राजा यह कहकर टालते हैं अभी छ: घंटे नहीं हुए। अब रानी उनको शंकर महादेव की पूजा करने की याद दिलाती हैं तब वे तुरंत ही नदी से बाहर निकल आते हैं। इन सभी से राजा विक्रमाजीतसिंह की धार्मिक प्रवृत्ि का पता चलता है।
बच्चों के प्रेमी
रानी जब विक्रमादित्यसिंह के कक्ष में प्रवेश करती हैं तब वे अपने बच्चों को खिला रहे थे। उनके दो बच्चे थे - बड़े अमानसिंह और छोटे शेरसिंह। बड़े की आयु लगभग 5 वर्ष और छोटे की 3 वर्ष थी। वहीं एक कोने में दो सेविकाएँ थीं जो बच्चों के साथ खेल रही थीं। इस प्रकार राजा अपने बच्चों से बहुत प्रेम करते थे।
पागलपन
राजा कभी- कभी पागलों के समान व्यवहार करने लगते थे। यह स्थिति आती-जाती रहती थी। राजा के कुछ क्रिया-कलापों जैसे छ: छः घंटे तक स्नान करना, राजकाज में रुचि न लेना, बच्चों के समान हठ करना आदि से उनके पागलपन का पता चलता है। रानी जब राजा से कहती हैं कि आपको स्नान करते हुए छ: घंटे हो गए हैं तब राजा कहते हैं - थोड़ा-सा जप और कर लूँ, अभी छः घंटे तो नहीं हुए हैं। आधी रात से आया होता तो कहीं उतना समय होता। जब राजा को शंकर महादेव की पूजा की याद दिलाई जाती है तब वे खरमेर नदी से बाहर निकलते हैं। रानी कहती हैं कि पूजा करने के बाद फलाहार करिए और आराम करिए। कल फिर स्नान-ध्यान। रानी आप ठीक कहती हैं राज चला गया तो चला गया पर पूजापत्री तो अपने हाथ में हैं। रानी बताती हैं कि अब तो पूजापत्री भी संकट में पड़ने को है तब राजा पर पागलपन सवार हो जाता है- किसकी हिम्मत है, नाम बतलाओ, मैं सब कुछ छोड़कर उस पर चढ़ बैहूँगा और घंटों चढ़ा रहूँगा। नाम बतलाओ, बतलाओ ।
अंग्रेजों से घृणा
रानी के मुख से 'अंग्रेजी राज ' शब्द सुनते ही राजा ताव में आ जाते थे और उन्हें गाली देते हुए कहते हैं- हमारी आपसी फूट ने उन्हें हमारे सिर लादा है। अंग्रेजों ने किसी न किसी बहाने छोटे-बड़े कई राज्य हड़प लिए। जैसे ही मैं बाप-दादों की गद्दी पर बैठा, मुझे पागल बताकर कोर्ट कर लिया। राजा को जब मालूम पड़ता है कि अंग्रेज हमारे धर्म को भी कुचलने की योजना बना रहे हैं तब वे अपना आसन छोड़कर खड़े हो गए। उनकी आँखें लाल हो गईं और मुट्ठियाँ भिंच गईं। उन पर सनक सवार हो गई- लाओ मेरी बंदूक, लाओ मेरी तलवार। अभी इन फिरंगियों को मजा चखाता हूँ। हमारी आर्थिक स्थिति बिगाड़ दी, अब धर्म को लूटना चाहते हैं। रानी ने प्यार-दुलार से उन्हें किसी प्रकार शांत किया तब वे भर्राए स्वर में बोले कि मैं अंग्रेजों को दबाने की कोशिश में स्नान करना भी छोड़ सकता हूँ। कहो तो मात्र होली - दिवाली पर ही नहाऊँ। इन परदेसियों को अपनी धरती से हटाना बहुत जरूरी है। रानी ने स्थिति भाँपकर तुरंत चर्चा का विषय बदल दिया।
इस घटना के एक पखवारे अर्थात् पंद्रह दिन बाद होली का त्योहार आया। राजा अस्वस्थ हो गए थे अतः उन्होंने होली न खेलने तथा अपने कक्ष में बंद रहने का निश्चय किया। उन्हें ज्वर हो आया था। ज्वर की स्थिति में वह बड़बड़ा रहे थे—अंग्रेजों ने हमारा राज्य छीन लिया। पकड़ो इन्हें और कैदखाने में डाल दो। महारानी दुर्गावती से कहो कि सो क्यों रही हैं। निकल पड़ें और इनकी भगदड़ मचा दें, सात समंदर पार खदेड़ दें। रानी ने उन्हें शांत करने का प्रयास किया फिर वैद्यजी को बुलाया। वैद्यजी ने उपचार किया तब उन्हें थोड़ी-सी नींद आई। काफी समय तक अस्वस्थ रहने से मई के मध्य में उनका देहावसान हो गया।
इस प्रकार विक्रमादित्यसिंह धार्मिक प्रवृत्ति के राजा थे, उन्हें राजकाज में कम रुचि थी। उनके पागलपन का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने उनका राज्य हड़प लिया। संभवत: इसी कारण अस्वस्थ रहने से उनकी मृत्यु हो गई।
तुम्हारे यहाँ का जल तक अपवित्र है। हम पानी भी नहीं पियेंगे। हमें इसी क्षण तोप से उड़ा दो। हमारा मरण व्यर्थ नहीं जाएगा। एक दिन अवश्य ऐसा आएगा जब तुम्हें यहाँ से जाना होगा और हम स्वतंत्र होंगे। जब उन दोनों को तोप से बाँधा गया तब भी उनके चेहरे पर एक भी रेखा नहीं बिगड़ी।
रानी के सम्मान पात्र
रानी अवंतीबाई शंकरशाह का बहुत सम्मान करती थीं। वे जब क्रांति की योजना के अंतर्गत कागज पर संदेश लिखवाकर उसमें एक चूड़ी रखकर पुड़िया बनाती हैं तो पहली पुड़िया पर शंकरशाह का नाम लिखवाती हैं और उसे पहुँचाने की जिम्मेदारी उमरावसिंह को सौंपती हैं जब उमरावसिंह शंकरशाह को पुड़िया देकर रानी की योजना सुनाते हैं तो योजना उन्हें बहुत पसंद आती है रानी अवंतीबाई शंकरशाह का काफी सम्मान करती हैं और उन्हें दादाजी कहकर संबोधित करती हैं कि हम लोग तो आपको अपना महाराज बनायेंगे। आज से दो सौ वर्ष पहले जब आपके पूर्वज महाराज हिरदेशाह ने राजधानी गढ़ा हटाकर रामनगर में बनाई और वहीं उन्होंने महल तैयार करवाया, लाखों बीघा पड़ती (बिना जोता बोया गया खेत) भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए हम लोधी ठाकुरों को बुलाकर बसाया था।
कविता और संगीत के प्रेमी
रानी अवंतीबाई की योजना को सफल बनाने के लिए शंकरशाह दृढ़ संकल्पित हैं। उनकी योजना को आगे बढ़ाने में शंकरशाह का कविता और संगीत से प्रेम ही काम आता है। वे जगह-जगह अपना कवि सम्मेलन और संगीत समारोह का आयोजन करते हैं और गुप्त रूप से रानी जी का संदेश भी लोगों तक पहुँचाते हैं। शंकरशाह भोर और साँझ की बेला संध्या प्राणायाम और भजन करते थे। इस कारण उनके पुत्र रघुनाथशाह को शंका थी कि संध्या वंदन कार्य से रानी की योजना में बाधा आ सकती है। इस शंका के उत्तर में शंकरशाह ने हठपूर्वक कहा कि वह पुरुष किस काम का जो अपने आध्यात्मिक और भौतिक कर्तव्यों में समन्वय न कर सके। पहले वे अपने पुत्र और उनके कुछ सहयोगी एक विश्वासी गायक के साथ ऐसे सरदारों, मालगुजारों के यहाँ गए जिनके राष्ट्रप्रेम पर उन्हें संदेह था। शंकरशाह बहुत चतुर थे। उनके भवनों पर कवि सम्मेलन किए, गायन-वादन कराया और यह कहकर बढ़ गए कि जमाना कुछ खराब सा आता दिखाई पड़ता है। हम चाहते हैं कि सब मिल-जुलकर चलें जिससे किसी प्रकार की गड़बड़ न होने पाए। इसके बाद वे रामगढ़ गए, पर राजा विक्रमादित्यसिंह की अस्वस्थता जानकर वहाँ कवि सम्मेलन नहीं होने दिया।
इस प्रकार स्पष्ट है कि शंकरशाह दृढ़ देशभक्त, रानी अवंतीबाई के प्रशंसक, मृत्यु से न डरने वाले, कविता और संगीत के प्रेमी जागीरदार थे। रानी अवंतीबाई भी उनका काफी सम्मान करती थीं। जब रानी को शंकरशाह और रघुनाथशाह को तोप से उड़ाने का हृदयवेधी समाचार मिला तो वे अपने आँसू रोक न सकीं और उन्होंने सौगंध भी ली कि उनकी शहादत को व्यर्थ न जाने दिया जाएगा।
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