वसंतसेना का चरित्र चित्रण - Vasantsena Ka Charitra Chitran: वसंतसेना उज्जयिनी की एक गणिका है। वह बहुत धनी है। चतुर्थ अकं में वसंतसेना का वैभव देखकर वि
वसंतसेना का चरित्र चित्रण - Vasantsena Ka Charitra Chitran
वसंतसेना उज्जयिनी की एक गणिका है। वह बहुत धनी है। चतुर्थ अकं में वसंतसेना का वैभव देखकर विदूषक उसकी चेटी से कहता है- ‘एवं वसंतसेनाया बहुवृत्तान्तमष्टप्रकोष्ठं भवनं प्रेक्ष्य यत्सत्यंजानामि, एकस्थमिव त्रिविष्टपं दृष्टम्। प्रशंसितुं नास्ति मे चाग्विभवः। किं तावद्गणिकागृहम् अथवा कुबेरभवनपरिच्छेदइति।’ उसे विश्वास है कि धन से टाले जाने वाली आपत्तियों को टालने के लिए जितना भी धन आवश्यक हो उसे वह खर्च कर सकती है। जब द्वितीय अंक में संवाहक उसके घर शरण लेता है तब पहले तो वह अपने महल का फाटक बन्द करवा देती है परन्तु बाद में यह मालूम होने पर कि संवाहक धनिक के डर से शरण लेने आया है तो वह फाटक खुलवा देती है। वह तरुण वय की एक सुशिक्षित चतुर स्त्री है। वह यद्यपि प्राकृत भाषा में बोलती है तथापि वह संस्कृत भी जानती है। वह चतुर्थ अकं में विदूषक से संस्कृत में बोलती है। वह यह जानती है कि अपने प्रियतम के विनय भरे व्यवहार का कैसे उत्तर देना चाहिये। प्रथम अंक में जब चारुदत्त उससे उसके साथ भूल से परिजन का सा व्यवहार करने के अपराध की क्षमा चाहता है तो वह भी अपने अपराध की क्षमा याचना करती हुई कहती है ‘एतेनानुचितभूमिकारोहणेनापराद्धार्यं शीर्षेणप्रणम्य प्रसादयामि।’
वह चारुदत्त की गूढ़ व्यङ्ग्य भरी प्रणय प्रार्थना का आशय झट समझा जाती है। वह वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित रहती है। वह अपने बालों को फूलों से प्रसाधित रखती है। वह चित्रकला और कविता बनाना भी जानती है। चतुर्थ अंक में सम्भवतः वह अपना बनाया हुआ ही चारुदत्त का चित्र मदनिका को दिखाती है। पञ्चम अंक में वह स्वनिर्मित पद्यों से वर्षा का वर्णन करती है। सम्भवतः वसंतसेना जाति की बंगालिन है। शकार उसे मछली चबाने वाली (मत्स्याशिका) कहता है। वेश्या होने पर भी वह धार्मिक है। वह देवपूजन करती है। उसकी तर्क शक्ति भी प्रबल है। द्वितीय अकं में कर्णपूरक को हँसता हुआ देखकर वह समझ जाती है कि कुछ बात है। चतुर्थ अकं में शर्विलक को पश्चाताप करता देख वह समझ जाती है कि उसने सब बातें न जानने के कारण भूल से चारुदत्त के घर चोरी की। उसी अंक में विदूषक भी उसकी तर्क शक्ति की सराहना करता है। वह कहता है- ‘सुष्ठूपलक्षितं दुष्टविलासिन्या’।
चारुदत्त से प्रेम
वसंतसेना चारुदत्त पर आसक्त है। यह बात प्रथम अंक में शकार की उक्ति से ही स्पष्ट हो जाती है। जब विदूषक वसंतसेना की उपस्थिति में ही चारुदत्त को बतलाता है कि वसंतसेना कामदेवायतनोद्यान के दिन से उसे प्रेम करती है तो वह प्रतिवाद नहीं करती। संवाहक के चारुदत्त का नाम लेने पर वह उसका विशेष आदर करती है। चतुर्थ अंक में वह विदूषक का खड़ी होकर स्वागत करती है। ये दोनों बातें भी उसका चारुदत्त के प्रति अनुराग व्यक्त करती है। वह चारुदत्त के गुणों पर मुग्ध है। जाती कसुुम.वासित प्रावारक की सुगन्ध से झलकने वाला चारुदत्त का अनुदासीन यौवन उसकी आसक्ति को दृढ़ कर देता है। चारुदत्त के प्रति उसका प्रेम इतना बढ़ा हुआ है कि पञ्चम अकं में चारुदत्त के घर पहुँचने पर वह स्वयं उसे पहले आलिगंन करती है। उसे धन का लोभ नहीं है। वह सुवर्णदशसाहस्रिक अलंकर के साथ आये हुए शकार के आमन्त्रण को अस्वीकार कर देती है। वह जानती है कि चारुदत्त दरिद्र है। फिर भी वह उससे प्रेम करती है क्योंकि उसका अन्य वेश्याओं की तरह धन के लिये बनावटी प्रेम नहीं है। वह तो उसके गुण और यौवन पर मुग्ध है। वह जानती है कि दरिद्र को प्रेम करने से लोक में उसकी बदनामी न होगी। उसकी इच्छा चारुदत्त से केवल एकबार मिलने की नहीं है। द्वितीय अंक में मदनिका वसंतसेना से पूछती है कि यदि तुम चारुदत्त को चाहती हो तो उसे अपने घर क्यों नहीं बुलवा लेती? इस पर वह उत्तर देती है कि ऐसा करने से दरिद्रता के कारण अपने को प्रत्युपकार करने में असमर्थ पाकर कहीं वह फिर मिलना छोड़ न दे। इससे यह स्पष्ट है कि वह उससे स्थायी सम्बन्ध जोडऩा चाहती है। वेश्या होने के कारण समाज में वसंतसेना का स्थान बहुत नीचा है। वह भी स्वयं इस बात को जानती है इसीलिये चारुदत्त के कहने पर भी वह रोहसेन को लेकर महल के अन्दर नहीं जाती। उसी अंक में वह आगे कहती है- ‘एतेनानुिचतभूिमकारोहणेन’ इत्यादि। फिर भी एक ब्राह्मण से स्थायी सम्बन्ध जोडऩे की आकांक्षा रखती है। उसे यह आशा होती जाती है कि मेरा स्वप्न पूरा होगा।
उदार स्वाभाव
वसंतसेना स्वभाव से उदार है। उसमें कृपणता का लेश भी नहीं है। संवाहक उससे सर्वथा अपरिचित है। तथापि वह शरण में जाता है तो वह उसे तुरन्त अभय वचन दे देती है। वह संवाहक का कर्ज चुकाने के लिए अपना सोने का कड़ा भेजती है। वह भी यह कहकर कि यह संवाहक ने ही भेजा है। वह अपने कार्य का इतना भी श्रेय नहीं चाहती कि लोग उसका नाम जानें। वह उपकार के बदले में कुछ नहीं चाहती। संवाहक कहता है कि मैं मालिश कला जानता हूँ। इसे तुम अपने किसी नौकर को सिखवालो। इस पर वसंतसेना कहती है- नहीं जिसकी सेवा करने के लिये तुमने यह कला सीखी है, इससे उसी की सेवा करो। जब उसे यह पता चलता है कि शर्विलक सचमुच मदनिका को प्रेम करता है तो वह उसे गुलामी से मुक्त करके शर्विलक को सौपं देती है। वह सुवर्णभाण्ड धरोहर रखकर पन्द्रहियों चारुदत्त के घर नहीं जाती। सम्भव है वह समझती है कि ऐसा करना कृपणता व्यक्त करेगा। जब भाण्ड के बदले चारुदत्त के घर से रत्नावली आ जाती है तब वह उससे मिलने जाती है। चारुदत्त का आदर करने के लिए उसकी भेजी रत्नावली वह रख लेती है परन्तु यह बात उसे खटकती है। वह समझती है कि चारुदत्त उसे कृपण समझता होगा इसीलिए पञ्चम अकं में जब वह उससे मिलती है तो रत्नावली भेजने के लिए उलाहना देती है। वह चारुदत्त के पुत्र की गाडी़ बनवाने के लिए अपने आभूषण देने में नहीं हिचकती। वह उसकी माता बनने के लिये सब कुछ करने को तैयार है। वह धूता के साथ बहन का नाता जोड़ती है। यह भी उसकी उदारता का द्योतक है।
संबंधित प्रश्न
वसंतसेना दासी को धूता से क्या कहने के लिए कहती है?
उत्तर: वसंतसेना दासी को धूता कहने के लिए कहती है कि वसंतसेन चारुदत्त और धूता दोनों की दासी है । यह भी कहा जाता है कि चारुदत्त ने अपने गुणों के आधार पर उसे खरीद लिया है।
मृच्छकटिका में वसंतसेना का पेशा क्या था?
उत्तर: वसंतसेना "मृच्छकटिका" नाटक में एक गणिका (वेश्या) थी। वह गायन, नृत्य और वाद्य यंत्र बजाने में अत्यधिक कुशल थी। नाटक में, वह मुख्य पात्र, चारुदत्त, एक धनी व्यापारी की प्रेमिका बन जाती है। एक तवायफ होने के बावजूद, वसंतसेना को एक दयालु और सदाचारी स्त्री के रूप में चित्रित किया गया है।
वसंत सेना कौन है?
उत्तर: 5वीं शताब्दी ईस्वी में शूद्रक द्वारा लिखित संस्कृत नाटक "मृच्छकटिका" में वसंतसेना मुख्य पात्रों में से एक है। वह एक गणिका (वेश्या) है, जो अपनी सुंदरता और बुद्धिमत्ता के लिए जानी जाती है। मृच्छकटिका नाटक वसंतसेना और एक धनी ब्राह्मण चारुदत्त के बीच की प्रेम कहानी के इर्द-गिर्द घूमता है।
मृच्छकटिकम् में किसका वर्णन है?
उत्तर: मृच्छकटिकम् में उज्जयिनी की एक प्रसिद्ध गणिका वसन्तसेना और चारुदत्त के पारस्परिक प्रेम का वर्णन है ।
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