शंकरशाह का चरित्र चित्रण: शंकरशाह पुरवा के राजा थे। पुरवा जबलपुर (मध्य प्रदेश) से चार मील की दूरी पर था और अब उसका एक भाग है। शंकरशाह महारानी दुर्गावत
शंकरशाह का चरित्र चित्रण - रामगढ़ की रानी
शंकरशाह का चरित्र चित्रण: शंकरशाह पुरवा के राजा थे। पुरवा जबलपुर (मध्य प्रदेश) से चार मील की दूरी पर था और अब उसका एक भाग है। शंकरशाह महारानी दुर्गावती के वंशज थे। शंकरशाह की आयु सत्तर वर्ष थी, पर उनमें उत्साह नौजवानों जैसा था। उनके पुत्र रघुनाथशाह की आयु लगभग चालीस वर्ष थी। राज्य की समाप्ति होने पर ये पुरवा गाँव में आ बसे थे। सन् 1857 में उनके पास थोड़े से गाँव ही रह गए थे, लेकिन आदर-सम्मान उन्हें अपने पूर्वजों के समान ही प्राप्त था। शंकरशाह के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
रानी अवंतीबाई के परम प्रशंसक
शंकरशाह रानी अवंतीबाई के परम प्रशंसक हैं। वे कहते हैं कि अपने देश में महारानी दुर्गावती की परंपरा अमर है। रानी अवंतीबाई पर उनके आशीर्वाद का हाथ देखकर मैं फूला नहीं समाता हूँ। अवंतीबाई वास्तव में अवंतीदेवी हैं। शंकरशाह का मानना है कि अवंतीबाई जैसी नारी हमारे देश और समाज का रत्न है। उसके पराक्रम से सबको देश की रक्षा के लिए प्रेरणा मिलेगी।
अंग्रेजों की नीतियों से आक्रोशित
शंकरशाह रानी के सेवक उमरावसिंह से अपने आक्रोश को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि अब तो बैठा नहीं जा सकता, अति हो गई है। रोजगार-धंधा, खेती-पाती की स्वाधीनता, अपने रहन-सहन का ढंग, अपनी संस्कृति के अनुसार समाज और व्यक्ति का विकास, सब गया। अंग्रेजी फौज में अपने देशी आदमी को बड़े से बड़ा पद सूबेदार का मिल पाता है। पुलिस में थानेदार और माल विभाग में तहसीलदार, बस शेष सारी नोच-खसोट अंग्रेजों के हाथ में है। पंचायतें समाप्त, अब अदालतों में मारे-मारे फिरो । मूँछ चढ़ाकर 'साहब बहादुर' के सामने मत जाओ । झुककर सलाम करो। छोटे-से-छोटा अंग्रेज अफसर तक शाही हुकूमत हाँकने लगा है। अब हमारे धर्म पर भी आघात होना शुरू हो गया है। चार महीने पहले ही गाय और सुअर की चर्बी के कारतूस चलाए गए। मेरे पुत्र रघुनाथशाह ने एक अंग्रेजी अखबार में पढ़ा है कि साल भर में सारा देश ईसाई हो जाएगा।
शंकरशाह विजयराघवगढ़ के सत्रह वर्षीय जागीरदार सरयूप्रसाद सिंह को अपनी योजना समझाने के बाद कहते हैं कि ये अंग्रेज अपने यहाँ का सब कुछ हड़प जाना चाहते हैं। आज से दस साल पहले सतारा का राज्य बेईमानी करके निगल लिया । छः वर्ष पहले बिठूर जा बसे, पेशवा की पेंशन सदा के लिए डकार गए। झाँसी राज्य को चार वर्ष पहले मिटा दिया। पुराने गोंडवाने के सब राज्यों को चौपट करके अभी हाल में मध्य प्रदेश को अपना सूबा बना लिया है। अब हम आप सब मालगुजार मात्र रह गए हैं। अब वह भी जाने को है। व्यापारी, किसान, मालगुजार किसी को भी सुख नहीं है। इसलिए अब समय आ गया है कि आपसी बैर भुलाकर, संगठित होकर इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया जाए।
गद्दारी से चिढ़
शंकरशाह को गद्दारी से बहुत चिह्न है। उन्हें जब सूबेदार बल्देव त्यागी से अपने कारिंदे गिरधारीदास की गद्दारी पता चलती है कि वह कंपनी बहादुर को सराहना के गाने सुना-सुनाकर साहब लोगों को रिझाता है तो यहाँ के भेद भी खोलता होगा। शंकरशाह बोले कि इसे साहब लोग रुपया भी देते रहते हैं। एक बार स्वयं उसने अनजाने में कहा था। अब सारी बात समझ में आ रही है। शंकरशाह गिरधारीदास को फटकारते हुए उसे नौकरी से हटा देते हैं, पर रात को अपनी हवेली में ही रहने देते हैं क्योंकि उन्हें शक था कि कहीं अभी जाकर छावनी के अफसरों को जगतसिंह और बहादुरसिंह आदि के आने की सूचना न दे दे। वे रात-रात में अपने ठिकाने पहुँच जायेंगे, फिर कोई चिंता नहीं। गिरधारीदास की गद्दारी से वे अत्यंत क्रोधित थे। उनके पुत्र रघुनाथशाह ने अपने पिता को इतना क्रुद्ध कभी न देखा था ।
साधु-संतों पर विश्वास रखने वाले
शंकरशाह साधु-संतों पर शीघ्र ही विश्वास कर लेते थे। अंग्रेजों ने अपने एक चपरासी को फकीर बनाकर शंकरशाह की हवेली पर भेजा तो उन्होंने शीघ्र ही उस पर विश्वास करके अपना सारा भेद उसे बता दिया कि मुहर्रम आ रहा है, उधर ताजिए निकले और ठंडे किए गए, इधर हम सब मैदान में आए। फकीर ने शंका व्यक्त की कि यह तारीख तो बहुत नजदीक है, तैयारी कुछ दिखाई नहीं पड़ती जबलपुर में। शंकरशाह ने कहा- संभवत: इस तारीख पर क्रांति का काम शुरू न हो सके पर दशहरे के सवेरे का दिन बिल्कुल निश्चित समझिये । जब शंकरशाह को गिरफ्तार करके न्यायालय में पेश किया जाता है तब उस फकीर को वहाँ देखकर उनका भ्रम टूटता है कि वह फकीर नहीं अंग्रेजों का जासूस है।
मृत्यु से न डरने वाले
अदालत जब शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथशाह को दोषी सिद्ध करके तोप के मुँह से उड़ाने का निर्णय सुनाती है तब भी वे विचलित नहीं होते बल्कि भौंहें सिकोड़कर पैनी आँखों से उन न्यायाधीशों को देखते हैं, पर उनमें से कोई भी शंकरशाह से निगाह नहीं मिला पाता । न्यायाधीश जब उनसे कहते हैं कि इस समय तुम लोगों को जो खाना-पीना हो, तुम्हें दिया जा सकता है। तब शंकरशाह निडर होकर कहते हैं- तुम्हारे यहाँ का जल तक अपवित्र है। हम पानी भी नहीं पियेंगे। हमें इसी क्षण तोप से उड़ा दो। हमारा मरण व्यर्थ नहीं जाएगा। एक दिन अवश्य ऐसा आएगा जब तुम्हें यहाँ से जाना होगा और हम स्वतंत्र होंगे। जब उन दोनों को तोप से बाँधा गया तब भी उनके चेहरे पर एक भी रेखा नहीं बिगड़ी।
रानी के सम्मान पात्र
रानी अवंतीबाई शंकरशाह का बहुत सम्मान करती थीं। वे जब क्रांति की योजना के अंतर्गत कागज पर संदेश लिखवाकर उसमें एक चूड़ी रखकर पुड़िया बनाती हैं तो पहली पुड़िया पर शंकरशाह का नाम लिखवाती हैं और उसे पहुँचाने की जिम्मेदारी उमरावसिंह को सौंपती हैं जब उमरावसिंह शंकरशाह को पुड़िया देकर रानी की योजना सुनाते हैं तो योजना उन्हें बहुत पसंद आती है रानी अवंतीबाई शंकरशाह का काफी सम्मान करती हैं और उन्हें दादाजी कहकर संबोधित करती हैं कि हम लोग तो आपको अपना महाराज बनायेंगे। आज से दो सौ वर्ष पहले जब आपके पूर्वज महाराज हिरदेशाह ने राजधानी गढ़ा हटाकर रामनगर में बनाई और वहीं उन्होंने महल तैयार करवाया, लाखों बीघा पड़ती (बिना जोता बोया गया खेत) भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए हम लोधी ठाकुरों को बुलाकर बसाया था ।
कविता और संगीत के प्रेमी
रानी अवंतीबाई की योजना को सफल बनाने के लिए शंकरशाह दृढ़ संकल्पित हैं। उनकी योजना को आगे बढ़ाने में शंकरशाह का कविता और संगीत से प्रेम ही काम आता है। वे जगह-जगह अपना कवि सम्मेलन और संगीत समारोह का आयोजन करते हैं और गुप्त रूप से रानी जी का संदेश भी लोगों तक पहुँचाते हैं। शंकरशाह भोर और साँझ की बेला संध्या प्राणायाम और भजन करते थे । इस कारण उनके पुत्र रघुनाथशाह को शंका थी कि संध्या वंदन कार्य से रानी की योजना में बाधा आ सकती है। इस शंका के उत्तर में शंकरशाह ने हठपूर्वक कहा कि वह पुरुष किस काम का जो अपने आध्यात्मिक और भौतिक कर्तव्यों में समन्वय न कर सके। पहले वे अपने पुत्र और उनके कुछ सहयोगी एक विश्वासी गायक के साथ ऐसे सरदारों, मालगुजारों के यहाँ गए जिनके राष्ट्रप्रेम पर उन्हें संदेह था। शंकरशाह बहुत चतुर थे। उनके भवनों पर कवि सम्मेलन किए, गायन-वादन कराया और यह कहकर बढ़ गए कि जमाना कुछ खराब सा आता दिखाई पड़ता है। हम चाहते हैं कि सब मिल-जुलकर चलें जिससे किसी प्रकार की गड़बड़ न होने पाए। इसके बाद वे रामगढ़ गए, पर राजा विक्रमादित्यसिंह की अस्वस्थता जानकर वहाँ कवि सम्मेलन नहीं होने दिया।
इस प्रकार स्पष्ट है कि शंकरशाह दृढ़ देशभक्त, रानी अवंतीबाई के प्रशंसक, मृत्यु से न डरने वाले, कविता और संगीत के प्रेमी जागीरदार थे। रानी अवंतीबाई भी उनका काफी सम्मान करती थीं। जब रानी को शंकरशाह और रघुनाथशाह को तोप से उड़ाने का हृदयवेधी समाचार मिला तो वे अपने आँसू रोक न सकीं और उन्होंने सौगंध भी ली कि उनकी शहादत को व्यर्थ न जाने दिया जाएगा।
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