रामगढ़ की रानी उपन्यास की समीक्षा - Ramgarh Ki Rani Upanyas Ki Samiksha

रामगढ़ की रानी उपन्यास की समीक्षा- ‘रामगढ़ की रानी' वृंदावनलाल वर्मा द्वारा रचित एक ऐतिहासिक उपन्यास है। इस उपन्यास में वर्मा जी ने ऐतिहासिक तथ्यों को

रामगढ़ की रानी उपन्यास की समीक्षा - Ramgarh Ki Rani Upanyas Ki Samiksha

‘रामगढ़ की रानी' वृंदावनलाल वर्मा द्वारा रचित एक ऐतिहासिक उपन्यास है। इस उपन्यास में वर्मा जी ने ऐतिहासिक तथ्यों को सुरक्षित रखते हुए जनश्रुतियों और परंपराओं का आश्रय भी लिया है। भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों द्वारा निर्धारित उपन्यास के तत्वों के आधार पर वर्मा जी के ऐतिहासिक उपन्यास 'रामगढ़ की रानी' की समीक्षा निम्नवत् है-

रामगढ़ की रानी उपन्यास का कथानक या कथावस्तु

 प्रस्तुत उपन्यास का कथानक मध्य प्रदेश के रामगढ़ की रानी अवंतीबाई के अद्भुत शौर्य और पराक्रम की कथा से संबद्ध है। रामगढ़ मंडला के उत्तर-पूर्व में लगभग पचास मील की दूरी पर स्थित है। इसके आस-पास का क्षेत्र ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों और घने जंगलों से भरा पड़ा है। रामगढ़ की बस्ती के चारों ओर किले का परकोटा और अंदर राजमहल था। राज्य तो समाप्त हो चुका था लेकिन राजा बहुत बड़ा मालगुजार था। यहाँ का अंतिम राजा विक्रमादित्यसिंह पागल कहा जाता था, इसी कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के उच्च पदाधिकारी ने रामगढ़ क्षेत्र को कोर्ट कर लिया अर्थात् अपने अधीन कर लिया और उसके पदाधिकारी रामगढ़ में बैठकर हुकूमत करने लग। राजा विक्रमादित्यसिंह की पत्नी रानी अवंतीबाई थी। इनके दो बेटे बड़े अमानसिंह और छोटे शेरसिंह थे। उमरावसिंह रानी साहिबा के काफी विश्वासपात्र प्रतिनिधि थे। कंपनी के अधिकारी मनमाने ढंग से किसानों पर लगान बढ़ा रहे थे जिससे किसान और रानी दोनों काफी परेशान थे। आस-पास के क्या दूर-दराज के क्षेत्रों के मुखिया, सरदार, रजवाड़े तक इन फिरंगियों को देश से खदेड़ देना चाहते थे और इसके लिए प्रयासरत भी थे।

रानी अवंतीबाई ने एक परचे पर संदेश लिखकर उसकी सैकड़ों प्रतियाँ करवाईं और प्रत्येक परचे में एक चूड़ी रखकर विश्वस्त लोगों के हाथ से जगह-जगह भिजवा दी। परचे पर लिखा था- देश की रक्षा करने के लिए या तो कमर कसो या चूड़ी पहनकर घर में बंद हो जाओ। तुम्हें धर्म-ईमान की सौगंध है जो इस कागज का सही पता बैरी को दो। कागज की पुड़िया राजा शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथशाह, जगतसिंह, उमरावसिंह के द्वारा जगह-जगह पहुँचा दी गईं। राजा शंकरशाह का कारिंदा गिरधारीदास रामगढ़ में होने वाले कवि सम्मेलन में हुए अपमान और शंकरशाह के द्वारा नौकरी से निकाल दिए जाने के कारण अंग्रेज अफसरों वाडिंगटन, क्लार्क आदि से मिल गया और उसने शंकरशाह की योजना उन्हें बता दी। शंकरशाह, रघुनाथशाह और हवेली से मिले चौदह-पंद्रह लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। दिखावे के लिए मुकदमा चला और दोनों को तोप से बाँधकर उड़ा दिया गया।

अब रानी ने आक्रमण करने की ठान ली। अंग्रेजों की कुछ चौकियों पर रानी ने अधिकार कर लिया और अंतिम मोर्चा शाहपुरा के जंगलों में लिया। वाडिंगटन, क्लार्क आदि ने रानी को चारों ओर से घेर लिया, साथ ही उनकी सहायता के लिए रीवा से सैनिकों की पल्टन भी आ गई। रानी बहुत बहादुरी से लड़ीं पर हाथ में गोली लगने से बंदूक छूटकर गिर पड़ी। रानी ने उमरावसिंह से तलवार लेकर स्वयं का वध कर डाला, पर फिरंगियों के हाथ न आयीं। इस प्रकार उन्होंने वीरगति प्राप्त की ।

रामगढ़ की रानी के पात्र एवं उनका चरित्र चित्रण

वर्मा जी के इस उपन्यास में उमरावसिंह, बंगाली वकील, विक्रमादित्यसिंह, शंकरशाह, रघुनाथशाह, गिरधारीदास, ठाकुर जगतसिंह, पंडित कर्णदेव, वाडिंगटन, क्लार्क, मेजर अर्सकिन, सूबेदार बल्देव तिवारी आदि पुरुष पात्र हैं। इसमें स्त्री पात्र मात्र रानी अवंतीबाई हैं। उपन्यास की पूरी कथा उन्हीं के चारों ओर घूमती है । उपन्यास के प्रमुख पात्रों में रानी, शंकरशाह और वाडिंगटन को रखा जा सकता है, शेष सभी पात्र गौण हैं । उपन्यासकार ने रानी को ही केन्द्र में रखकर उनके चरित्र को उभारने का प्रयास किया है। इतिहास प्रधान उपन्यास होने के कारण वर्मा जी का ध्यान चरित्र की ओर नहीं जा सका है। रानी, वाडिंगटन, उमरावसिंह, शंकरशाह, रघुनाथशाह, जगतसिंह आदि का चरित्र उभारने में लेखक को पूर्ण सफलता मिली है। वाडिंगटन शत्रु होते हुए भी रानी की दरियादिली का कायल है और हृदय से उनका सम्मान करता है। उपन्यास में उपर्युक्त पात्रों के अतिरिक्त अनेक पात्र ऐसे भी हैं जिनके लेखक ने नाम नहीं दिए हैं या उनके नाम देना उचित नहीं समझा। ऐतिहासिक वह भी राजा-रजवाड़े से संबंधित कथा में पात्रों का अधिक होना स्वाभाविक भी है।

रामगढ़ की रानी : संवाद अथवा कथोपकथन

संवाद वैसे तो नाटक का अनिवार्य तत्व होते हैं परंतु कथा को गति देने तथा पात्रों के मनोभावों को विश्लेषित करने के लिए उपन्यास में संवादों का महत्वपूर्ण स्थान रहता है। संवाद करते हुए पात्र जीवंत प्रतीत होते हैं। वर्मा जी के उपन्यास 'रामगढ़ की रानी' में संवादों की अधिकता है। इस उपन्यास के संवाद रोचक और प्रभावी हैं। इसमें छोटे, मध्यम तथा लंबे सभी प्रकार के संवाद हैं पर संवादों की भाषा पात्रानुकूल सरल, सरस तथा प्रवाहपूर्ण है। उपन्यास के संवाद पाठक को आसानी से समझ में आने वाले तथा रोचक हैं। अत: पाठक की रुचि निरंतर बनी रहती है। जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर और खड़देवरा के लोधी ठाकुर उमरावसिंह के मध्य एक रोचक संवाद उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है—

'चुप! चुप!' साहब ने डाँटा - 'गुस्ताखी करता है ।' और एक क्षण उपरांत हँसकर उमरावसिंह से पूछने लगे- तुम्हारे राजा अच्छी तरह हैं।

उमरावसिंह – जी हाँ-हाँ हुजूर स्नान करते हैं, पूजापाठ करते हैं।

डिप्टी कमिश्नर – रामगढ़ के नीचे से खरसेर नदी निकली है न!

उमरावसिंह – जी हाँ 

डिप्टी कमिश्नर – अदब के साथ जवाब दो । हाँ तो तुम्हारा राजा - विक्रमाजीत है न उनका नाम ! 

उमराव सिंह – हाँ जी, साहब - हुजूर, राजा विक्रमाजीतसिंह है नाम उनका।

डिप्टी कमिश्नर – कितने घंटे नहाता है खरमेर नदी में ?

उमरावसिंह – छ: छ: घंटे तक नहाते हैं और वहीं पाठ, जप, भजन भी करते हैं। नदी में पानी भी बहुत है।

उपर्युक्त संवाद से स्पष्ट है कि अंग्रेज प्राय: भारतीयों को अपमानित करते रहते थे । यह संवाद रोचक इस कारण है कि इससे रामगढ़ के राजा की हास्यास्पद गतिविधियों का परिचय मिलता है। रानी और उमरावसिंह के मध्य एक भावुक संवाद प्रस्तुत है-

क्या बात है, ठाकुर साहब ? रानी ने उमरावसिंह से पूछा ।

उमरावसिंह ने गला साफ किया, आँखें पोंछीं क्योंकि आँसू आ गए थे।

राजा शंकरशाह और राजकुमार मारे गए, उमरावसिंह ने कहा ।

मारे गए! कैसे? किसने मारा? रानी तिलमिला गईं।

परसों मारे गए। अंग्रेजों ने उन्हें कैद किया। परसों बाप-बेटे को एक-एक तोप के मोहरे से बाँधकर उड़ा दिया ।

हाय हाय! रानी ने अपना सिर पकड़ लिया। उमरावसिंह ने मुकदमे का जितना विवरण सुना था रानी को बतला दिया। वह आँखें मूँदै जल्दी-जल्दी साँसें भरकर सुनती रहीं। उनकी देह थर्रा रही थी ।

इस प्रकार 'रामगढ़ की रानी' उपन्यास की संवाद योजना सफल और सार्थक है।

रामगढ़ की रानी: देश, काल एवं वातावरण

वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यास 'रामगढ़ की रानी' का देश भारतवर्ष के मध्य प्रदेश राज्य के वर्तमान मंडला जिले के उत्तर-पूर्व में लगभग पचास मील दूर रामगढ़ है। खरमेर नदी के किनारे रामगढ़ तीन ओर सीधा-सा खड़ा है पर चौथी ओर अटपटा ढाल है। फिर एक चौड़ी खाई-सी, तालाब और उसके बाद ऊँची पर्वत श्रृंखला । उस काल में रामगढ़ की बस्ती के चारों ओर किले का परकोटा था और भीतर राजमहल। एक युग ऐसा भी था जब रामगढ़ राज्य का विस्तार सुहागपुर अमरकंटक और कबीर चबूतरा तक चार हजार वर्गमील में था। ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन में रामगढ़ राज्य की स्थिति केवल मालगुजार - जमींदार की रह गई थी। वहाँ के राजा विक्रमाजीतसिंह जब विक्षिप्त से हो गए तब फिरंगी सरकार ने रामगढ़ राज्य को कोर्ट ऑफ वार्डस के अधीन कर लिया था ।

'रामगढ़ की रानी' उपन्यास में रानी अवंतीबाई से संबंधित जिन घटनाओं का उल्लेख है वे सभी सन् 1858 से पहले की हैं क्योंकि 20 मार्च, 1858 को रानी अवंतीबाई ने रानी दुर्गावती का अनुकरण करते हुए अपने आप को चारों ओर से घिरा देखकर स्वयं को तलवार भोंककर मृत्यु को गले लगा लिया था। रामगढ़ के राजा विक्रमादित्यसिंह, जिन्हें प्रजा विक्रमाजीतसिंह कहती थी, सन् 1850 में रामगढ़ की गद्दी पर बैठे थे। उनका विवाह सिवनी जिले के मनकेहड़ी के जागीरदार राव झुझारसिंह की पुत्री अवंतीबाई के साथ हुआ था। राजा बहुत ही योग्य तथा कुशल शासक थे परंतु धार्मिक प्रवृत्ति होने के कारण वे राजकाज में कम और धार्मिक कार्यों में अधिक समय देते थे ।

प्रस्तुत उपन्यास में वातावरण का चित्रण भी सफल और सार्थक रूप में हुआ है। लेखक वर्मा जी ने इसमें कचहरी, दुकान, गोष्ठी, अंग्रेजों की मीटिंग, प्रकृति, युद्धक्षेत्र आदि का वातावरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि उसका दृश्य आँखों के समक्ष साकार होने लगता है। प्राकृतिक वातावरण का एक दृश्य प्रस्तुत है - खरमेर नदी चट्टानों से टकराती हुई इठलाती चली जा रही थी, सूर्य की किरणों को मचल मचलकर अर्घ्य चढ़ा रही थी । किरणें भी हरियाली से भरे पहाड़ों और नदी की नीली धार को सुनहरी चादरें उपहार में दे रही थीं। उनका आनंद लेने के लिए हो अथवा अपनी सनक की तृप्ति के लिए हो, रामगढ़ के राजा खरमेर नदी के उस भाग में, जहाँ उसकी कई धाराएँ हो गई हैं, एक उथले से प्रवाह में पड़े हुए थे।

ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में कचहरी का वातावरण लेखक ने इस प्रकार सँजोया है - जाड़े की ऋतु अभी अपने अंतिम पहर पर नहीं आई थी। जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर की कचहरी के आगे खासी भीड़ थी। कुछ लोग पेड़ों की छाया में थे, कुछ धूप में। कचहरी के भीतर डिप्टी कमिश्नर ऊँचे मंच पर बैठा सिगार पीते हुए एक मुकदमा कर रहा था। पेशकार बयान लिख रहा था। चपरासी नीचे खड़े थे। उसका वकील चोगा पहने बगल में खड़ा था। जिसका बयान होना था वह चपरासियों के स्थान से भी नीचे खड़ा था। सौगंध देने के बाद पेशकार ने बयान लेना शुरू किया, क्योंकि साहब बहादुर के होंठों पर सिगार था ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि उपन्यासकार ने देश, काल और वातावरण का स्पष्ट और रोचक चित्रण किया है। 

रामगढ़ की रानी उपन्यास की भाषा शैली

भाषा भावों के आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम है। किसी भी रचना में भाषा-शैली का विशेष महत्व होता है। सहज और सुसंगठित वाक्य - विन्यास से युक्त भाषा विषय या भाव को चित्रित करने में सहयोगी होती है। बहुत क्लिष्ट तथा तत्सम शब्दावली भाषा को बोझिल बना देती है । अतः आवश्यक है कि उपन्यास जैसी अति लोकप्रिय विधा में ऐसी भाषा का उपयोग हो जो आम जीवन के निकट तो हो, पर देश, काल और वातावरण के भी अनुकूल हो। इस दृष्टि से वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यास 'रामगढ़ की रानी' की भाषा सरल, सहज और पात्रों के अनुकूल है। भाषा में प्रवाहमयता सर्वत्र विद्यमान है, कहीं भी बाधा उपस्थित नहीं होती । उपन्यास की भाषा सामान्य बोलचाल की साहित्यिक हिंदी है। उपन्यास का काल सन् 1858 से पहले का है जब देश पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज्य था और कचहरी, फौज आदि में अरबी-फारसी शब्दों की भरमार थी। यही कारण है कि लेखक की भाषा में कहीं-कहीं अंग्रेजी, उर्दू, अरबी, फारसी के शब्द - कुमुक (फारसी), हरावल (तुर्की), पल्टन (अंग्रेजी), मालगुजार (फारसी), परवाह (फारसी), एजेंसी हाउस (अंग्रेजी) आदि का प्रयोग किया गया है। अंग्रेजों की भाषा का एक उदाहरण प्रस्तुत है-

क्लार्क ने एक कागज जेब से निकाला और पढ़कर कहा- आप दोनों (शंकरशाह और रघुनाथशाह) और आपकी हवेली के तेरह-चौदह आदमियों पर सरकार बहादुर के खिलाफ बगावत करने और दूसरों से करवाने का जुर्म कायम किया गया है। आप लोगों पर मुकदमा चलाया जाएगा। हम आपको गिरफ्तार करने आए हैं और हैं।

प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने वर्णनात्मक, भावात्मक और विवरणात्मक शैली का उपयोग किया है जिससे उपन्यास काफी रोचक बन पड़ा है। इस प्रकार भाषा-शैली की दृष्टि से यह एक सफल उपन्यास है। 

रामगढ़ की रानी उपन्यास का उद्देश्य

 वृंदावनलाल वर्मा का उपन्यास 'रामगढ़ की रानी' वास्तव में ऐतिहासिक उपन्यास है इसलिए लेखक का प्रधान उद्देश्य यह रहा है कि इसके माध्यम से जनता को उन ऐतिहासिक तथ्यों से अवगत कराया जाए जो प्रायः पाश्चात्य इतिहासकारों द्वारा तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किये गये हैं । उपन्यासकार ने इस संदर्भ में 'परिचय' शीर्षक के अंतर्गत लिखा है - " सूबेदार बल्देव तिवारी, ठाकुर जगतसिंह, ठा. बहादुरसिंह, ठा. उमरावसिंह इत्यादि पात्र सब ऐतिहासिक हैं। प्रधान घटनाएँ सब सही हैं। जनश्रुतियों और परंपराओं का भी मैंने सहारा लिया है।.... रामगढ़ की रानी का नाम क्या था, इस पर मतभेद है। कोई उनका नाम अवंतीबाई बतलाते हैं और कोई अनंतीबाई या अनंतबाई । इतिहास में वह 'रामगढ़ की रानी' की संज्ञा से विख्यात हैं। इस कारण मैंने उपन्यास का शीर्षक यही रखा है।" इस कथन से लेखक के उद्देश्य और शीर्षक पर यथेष्ट प्रकाश पड़ता है। आज हम जिस स्वतंत्र भारत में रह रहे हैं वह रानी लक्ष्मीबाई, अवंतीबाई, दुर्गावती और अन्य अनेक वीरों के बलिदान की ही देन है। अत: हमें इन सभी का हृदय से सम्मान करना चाहिए और यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि देश से बढ़कर हमारे लिए कुछ भी नहीं है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि 'रामगढ़ की रानी' उपन्यास में उपन्यास के सभी तत्वों का सम्यक् निर्वाह हुआ है और यह वर्मा जी का सफल उपन्यास है। ऐतिहासिक उपन्यास होते हुए भी इसमें लेखक की उपन्यास- कला निखरकर सामने आई है ।

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