मल्लिका का चरित्र चित्रण- अजातशत्रु नाटक में पुरुष पात्रों में जो स्थान गौतम का है वही स्थान स्त्री पात्रों में मल्लिका का है। मल्लिका कोशल नरेश प्रसे
मल्लिका का चरित्र चित्रण - Mallika ka Charitra Chitran
अजातशत्रु नाटक में पुरुष पात्रों में जो स्थान गौतम का है वही स्थान स्त्री पात्रों में मल्लिका का है। मल्लिका कोशल नरेश प्रसेनजित के सेनापति बंधुल की पत्नी है। मल्लिका एक सामान्य स्त्री पात्र न होकर विशिष्ट व्यक्तित्व से सम्पन्न स्त्री है। दुर्बलताओं और मानवीय गुणों से वह बहुत दूर। उसके पति की हत्या के बाद भी वह एक भारतीय नारी की तरह जीवन व्यतीत करती है, लोभवश पथभ्रष्ट नहीं होती। इसीलिए उसका व्यक्तित्व सबके लिए अनुसरण करने योग्य है। इसके चरित्र के उदात्त तथ्य इस प्रकार हैं-
पति परायण स्त्री
मल्लिका अपने जीवन में पूर्णतः संतुष्ट, पतिपरायण और आदर्श रमणी है। वह अपने पति बंधुल के प्रति पूर्णतः समर्पित है तथा किसी के मूँह से उसकी निंदा नहीं सुन सकती। वह अपने पति प्रशंसा और अपने कर्त्तव्य दोनों को एक साथ व्यक्त करते हुए कहती है -
"वीर हृदय युद्ध का नाम ही सुनकर नाच उठता है। शक्तिशाली भुजदंड फड़कने लगते हैं। भला मेरे रोकने से वे रुक सकते थे। कठोर कर्मपथ में अपने स्वामी के पैर तले कंटक भी मैं नहीं होना चाहती। वह मेरे अनुराग, सुहाग की वस्तु है फिर भी उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व भी है, जो हमारी श्रंगार - मंजुषा में बंद करके नहीं रखा जा सकता । महान हृदय को केवल विलास की मदिरा पिलाकर मोह लेना ही कर्तव्य नहीं है।"
विरुद्धक की माता शक्तिमती बंधुल को काशी से वापिस बुलाना चाहती है लेकिन अपने पति की वीरता पर मुग्ध मल्लिका उन्हें बुलाने से इन्कार कर देती है-
"वे तलवार की धार हैं, अग्नि की भयानक ज्वाला हैं, और वीरता के वरेण्य दूत हैं। मुझे विश्वास है कि सम्मुख युद्ध में शक्र भी उनके प्रचंड आघातों को रोकने में असमर्थ है। रानी! एक दिन मैंने कहा कि "मैं पावा के अम तसर का जल पीकर स्वस्थ होना चाहती हूँ, पर वह सरोवर पाँच मल्लों से सदैव रक्षित रहता है। दूसरी जाति का कोई भी उसमें जल नहीं पीने पाता।" उसी दिन स्वामी ने कहा कि "तभी तो तुम्हें वह जल पिला सकूँगा।"
शक्तिमती उसे बताती है कि शैलेन्द्र डाकू के नाम आज्ञा पत्र जा चुका है कि यदि तुम बंधुल की हत्या कर दोगे तो तुम्हारे पिछले अपराधों को क्षमा कर सेनापति बना दिया जाएगा। अतः तुम उसे वापिस बुला लो, लेकिन मल्लिका अपने पति के कर्त्तव्य मार्ग में रुकावट नहीं बनना चाहती
"मैं प्राणनाथ को अपने कर्तव्य से च्युत नहीं करा सकती, और उनसे लौट आने का अनुरोध नहीं कर सकती। सेनापति का राजभक्त कुटुंब कभी विद्रोही नहीं होगा और राजा की आज्ञा से प्राण दे देना वह अपना धर्म समझेगा- जब तक कि स्वयं राजा राष्ट्र का द्रोही न प्रमाणित हो जाय । "
यही कारण है कि बंधुल की हत्या के बाद वह विरुद्धक के प्रेम प्रस्ताव को भी ठुकरा देती है क्योंकि उसके मन-मस्तिष्क में केवल बंधुल के लिए ही स्थान था। उसने अपने पतिव्रता धर्म निष्ठापूर्वक पालन किया।
निर्लोभी
मल्लिका को किसी भी प्रकार का लोभ नहीं है, बल्कि वह अपने साधनों से संतुष्ट है। शक्तिमती जब मल्लिका से यह कहती है कि मैं तुम्हारे भले के हेतु इसलिए आई हूँ क्योंकि तुम्हें पुत्रवधु बनाने की मेरी बड़ी इच्छा थी। पुत्रवधु बनाने का यह प्रलोभन मल्लिका को अपने पथ से डिगा नहीं पाता। वह शक्तिमती को प्रत्युत्तर में कहती है-
‘“बस, रानी बस! मेरे लिए मेरी स्थिति अच्छी है और तुम्हारे लिए तुम्हारी। तुम्हारे दुर्विनीत राजकुमार से न ब्याही जाने में मैं अपना सौभाग्य ही समझती हूँ। दूसरे की क्यों, अपनी दशा देखो, कोसल की महिषी बनी थी, अब । ... गर्वीली स्त्री, तुझे राजपद की बड़ी अभिलाषा थी किंतु मुझे कुछ नहीं, केवल स्त्री-सुलभ सौजन्य और समवेदना तथा कर्तव्य और धैर्य की शिक्षा मिली है। भाग्य जो कुछ दिखावे।"
धैर्यशील नारी
जब विरुद्धक अपने पिता के कहने पर बंधुल की हत्या कर देता है तो मल्लिका को वैधव्यपूर्ण जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ता है। जब उसे अपने पति की हत्या का समाचार मिलता है तो वह उस स्थिति को भी धैर्यपूर्वक सहन करने का प्रयास करती है-
"संसार में स्त्रियों के लिए पति ही सब कुछ है, किंतु हाय! आज मैं उसी सोहाग से वंचित हो गयी हूँ। हृदय थरथरा रहा है, कंठ भरा आता है- एक निर्दय चेतना सब इंद्रियों को अचेतन और शिथिल बनाए दे रही है। आह! (ठहरकर और निःश्वास लेकर) हे प्रभु! मुझे बल दो- विपत्तियों को सहन करने के लिए - बल दो! मुझे विश्वास दो कि तुम्हारी शरण जाने पर कोई भय नहीं रहता, विपत्ति और दुःख उस आनंद के दास बन जाते हैं, फिर सांसारिक आतंक उसे नहीं डरा सकते। मैं जानती हूँ कि मानव हृदय अपनी दुर्बलताओं में ही सबल होने का स्वांग रचता है किंतु मुझे उस बनावट से, उस दंभ से बचा लो। शांति के लिए साहस दो-बल दो।"
इस प्रकार के संवाद कोई साधारण नहीं कह सकती; मल्लिका जैसी दृढ निश्चयी एवं धैर्यशील नारी ही उन उद्गारों को अभिव्यक्त कर सकती है। मल्लिका की दासी सरला जब उसे धैर्य धारण करने के लिए कहती है तो मल्लिका ही इतने बड़े दुःख सहज भावों में ही अभिव्यक्त कर देती है-
"सरला! धैर्य न होता, तो अब तक यह ह्रदय फट जाता, यह शरीर निस्पंद हो जाता। यह वैधत्य-दुख नारी जाति के लिए कैसा कठोर अभिशाप है, किसी भी स्त्री को इसका अनुभव न करना पड़े।"
इस प्रकार पति की हत्या होने के कारण व्यथित हाते हुए भी वह धैर्य को बनाए रखती है। ऐसे दुःखत अवसर पर भी वह अपने कर्त्तव्य से च्युत नहीं होती।
विश्वमैत्री की भावना
प्रसाद जी ने मल्लिका और गौतम के माध्यम से विश्वमैत्री के संदेश को संप्रेषित करवाया है। मल्लिका अपने पति के हत्यारों की भी विकट स्थिति में सेवा करती है, वह किसी के साथ घृणा वैर-विरोध नहीं रखना चाहती। उसकी इसी भावना के कारण ही प्रसेनजित उसके पैरों में गिरकर अपने कुकृत्यों के लिए क्षमा-याचना करता है। युद्ध में घायल विरुद्धक अर्थ 'मल्लिका का उसके प्रति आकर्षण" के रूप में लगाता है। वह उसके भ्रम का निवारण करते हुए कहती है-
राजकुमार! तुम्हारा कलंकी जीवन भी बचाना मैंने अपना धर्म समझा और यह मेरी विश्वमैत्री की परीक्षा थी । इसमें जब मैं उत्तीर्ण हो गयी तब मुझे अपने पर विश्वास हुआ। विरुद्धक, तुम्हारा रक्तकलुषित हाथ मैं छू भी नहीं सकती। तुमने कपिलवस्तु के निरीह प्राणियों का, किसी की भूल पर, निर्दयता से वध किया, तुमने पिता से विद्रोह किया, विश्वासघात किया; एक वीर को छल से मार डाला और अपने देश की जन्मभूमि के विरुद्ध-अस्त्र ग्रहण किया । तुम्हारे जैसा नीच और कौन होगा! किंतु यह सब जानकर भी मैं तुम्हें रणक्षेत्र से सेवा के लिए उठा लायी।"
बौद्ध-धर्म में अटूट आस्था
बौद्ध धर्म की शिक्षाओं- करुणा, क्षमा, दया आदि में मल्लिका की अगाध आस्था है। वह गौतम द्वारा बताए गए करुणा के मार्ग की अनुगामी बन जाती है। जब बंधु का भांजा कारायण मल्लिका से यह कहता है कि उसने प्रसेनजित की जीवन रक्षा करके साँप को जीवनदान दिया है, तो वह उसे करुणा का संदेश देती हुई कहती है-
"अपना कर्तव्य मैं अच्छी तरह जानती हूँ। करुणा की विजय पताका के नीचे हमने प्रयाग करने का दढ़ विचार करके उसकी अधीनता स्वीकार कर ली है। अब एक भी पग पीछे हटने का अवकाश नहीं विश्वासी सैनिक के समान नश्वर जीवन का बलिदान करूँगी कारायण । "
वह दूसरों के बड़े से बड़े अपराधों को भी क्षण मात्र से क्षमा कर देती है। काशी के युद्ध में घायल प्रसेनजित की सेवा करके वह पाठकों एवं दर्शकों की श्रद्धा-भाजन बन जाती है। मल्लिका द्वारा सेवा-सुश्रुषा करने पर प्रसेनजित को अपनी गलती का आभास होता है और वह उससे क्षमा-याचना करते हुए कह उठता है-
"मुझे धिक्कार दो मुझे शाप दो मल्लिका! तुम्हारे मुख-मण्डल पर तो ईर्ष्या और प्रतिहिंसा का चिन्ह भी नहीं है। जो तुम्हारी इच्छा हो वह करो, मैं उसे पूर्ण करूँगा।"
प्रसेनजित मल्लिका से पुनः क्षमा-याचना करता है और उसके चरण स्पर्श करते हुए कहता है
"देवि, तुम्हारे उपकारों का बोझ अब मुझे असह्य हो रहा है। तुम्हारी शीतलता ने इस जलते हुए लोहे पर विजय प्राप्त कर ली है। बार-बार क्षमा माँगने पर भी हृदय को संतोष नहीं होता । ... इस दुराचारी के पैरों में तुम्हारे उपकारों की बेड़ी और हाथों में क्षमा की हथकड़ी पड़ी है। जब तक तुम कोई आज्ञा देकर इसे मुक्त नहीं करोगी, यह जाने में असमर्थ है ।"
प्रसेनजित के यहाँ से जाने के पश्चात अजातशत्रु प्रसेनजित को ढूँढता हुआ आता है। वहाँ पर मल्लिका के विषय में यह जानकर कि वह बंधुल की विधवा है और इन्होंने अपने पति के हत्यारे प्रसेनजित को भी माफ कर दिया, तो वह कहता है, "तब भी आपने उस अधम जीवन की रक्षा की। ऐसी क्षमा! आश्चर्य! वह देव कर्त्तव्य ...।" इस प्रश्न का उत्तर देती हुई मल्लिका उससे कहती है-
"नहीं राजकुमार, यह देवता का नहीं मनुष्य का कर्तव्य है । उपकार, करुणा, समवेदना और पवित्रता मानव हृदय के लिए ही बने हैं। "
मल्लिका स्वयं तो सभी को क्षमा कर ही देती है, विरुद्धक को भी उसके पिता प्रसेनजित से क्षमा करवा देती है। वह 'क्षमा' के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहती है-
"क्षमा से बढ़कर दंड नहीं है, और आपकी राष्ट्रनीति इसी का अललंब करे, मैं यही आशीर्वाद देती हूँ।"
कर्त्तव्यपरायण
मल्लिका को नारी कर्त्तव्य पालन और मर्यादा का आदर्श रूप कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैधव्य दुख - 'जो नारी जाति के लिए कठोर अभिशाप है'- को मल्लिका ने जिस अगाध धैर्य के साथ स्वीकार किया है उससे उसकी कष्ट-सहिष्णुता का आभास किया जा सकता है। वह पहले दिन सद्धर्म के सेनापति सारिपुत्र मौद्गल्यायन और आनंद को भोजन के लिए निमंत्रण दे चुकी है, लेकिन उस दिन उसे अपने पति की हत्या का दुखद समाचार सुनना पड़ता है। फिर भी वह दासी सरला से भिक्षा का आयोजन करने के लिए कहती है तो दासी परिस्थितियों को देखते हुए कहना चाहती है कि ऐसे समय में क्या बौद्ध-भिक्षुओं को दान देना उचित होगा? सरला के प्रश्न का समाधान करते हुए कहती है-
"किंतु नहीं, सरला! मैं भी व्यवहार जानती हूँ, अतिथ्य परम धर्म है। मैं भी नारी हूँ, नारी के हृदय में जो हाहाकार होता है, उसका अनुभव करती हूँ। शरीर की धमनियाँ खिंचने लगती हैं। जी रो उठता है, तब भी कर्तव्य को करना ही होगा।"
वस्तुतः ऐसी कठोर स्थिति में भी वह अपने कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं करती। कलेजे पर पत्थर रखकर वह शांतिसमन्वित श्रद्धा से निमंत्रित अपने अतिथि सारिपुत्र प्रभति को भोजन कराती है । उस समय उसका चरित्र 'धैर्य' और 'कर्तव्य' का स्वयं आदर्श है।
समग्र विवेचन के उपरान्त कहा जा सकता है कि प्रसाद जी ने आलोच्य नाटक में मल्लिका को मानवीय कम, दैवी गुणों से सम्पन्न अधिक दिखाया है। उसके चरित्र की विशेषताएं पाठकों एवं दर्शकों पर एक अमिट छाप छोड़ती है। जगन्नाथ प्रसाद शर्मा के शब्दों में- "मल्लिका त्याग, उदारता, सेवा, करूणा, मर्यादा और कर्तव्य की प्रतिभा है बुद्ध के ज्ञान की जीती-जागती व्यवहार प्रतिमा है।" उसमें विश्व मैत्री की भावना भी कूट-कूट कर भरी हुई है जो आधुनिक युग में अत्यधिक प्रासंगिक है। इस प्रकार संपूर्ण नाटक के स्त्री पात्रों में मल्लिका का चरित्र ही सबसे ज्यादा अनुकरणीय है।
COMMENTS