जगतसिंह का चरित्र चित्रण - वृंदावनलाल वर्मा द्वारा लिखित ऐतिहासिक उपन्यास 'रामगढ़ की रानी' के पात्र जगतसिंह बड़खेरा के रहने वाले स्वाभिमानी व्यक्ति है
जगतसिंह का चरित्र चित्रण - रामगढ़ की रानी
वृंदावनलाल वर्मा द्वारा लिखित ऐतिहासिक उपन्यास 'रामगढ़ की रानी' के पात्र जगतसिंह बड़खेरा के रहने वाले स्वाभिमानी व्यक्ति हैं। वे एक कपड़े की दुकान में भागीदार हैं और मालगुजार भी हैं। वे रानी के भक्त और उनके नेतृत्व में क्रांति में सहयोग भी देते हैं। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
व्यक्तित्व
जगतसिंह अधेड़ अवस्था के छरेरे गठीले शरीर के स्वामी थे। उन्होंने दाढ़ी रखी हुई थी। उनकी घनी काली दाढ़ी बेड़ी के बीच से दोनों कानों की ओर मुड़ी हुई थी। उनकी मूँछें ऐंठी हुई थीं और नाक-नक्शा आकर्षक था। इस प्रकार जगतसिंह आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे।
अंग्रेजी के ज्ञाता
जगतसिंह के कपड़े की दुकान पर एक अंग्रेज पादरी और व्यापारी आपस में अंग्रेजी में बात कर रहे थे। पादरी के साथी ने कहा कि यहाँ के मालगुजार बहुत अशिष्ट और घमंडी हैं। पादरी शांत करते हुए बताया कि सब ऐसे नहीं हैं। बहुत-से मालगुजार बात-बात पर हम लोगों के सामने सर झुकाते हैं। साथी ने पूछा कि क्या वे ईसाई हो गए हैं। पादरी ने कहा- अभी नहीं हुए हैं पर जल्दी हो जाएँगे। इन्हें ईसाई बनाइए तो ये बिल्कुल अपने जैसे हो जाएँगे । जगतसिंह उनकी बातचीत समझ रहा था इसलिए बोला - पादरी साहब, हममें से कभी कोई अपना धर्म नहीं छोड़ेगा। पादरी आश्चर्य से बोला कि आप अंग्रेजी जानते हैं। जगतसिंह ने कहा कि थोड़ी-बहुत अंग्रेजी जानता हूँ। कलकत्ता से प्रकाशित कुछ समाचार-पत्र यहाँ आते हैं। वहाँ का 'फ्रैंड ऑफ इंडिया' कभी-कभी पढ़ लेता हूँ।
अंग्रेजों से न डरने वाला
अंग्रेज व्यापारी के मुँह से निकल गया कि थोड़ी-सी जानकारी बड़ी खतरनाक होती है तो जगतसिंह ने हिंदी में तुरंत उत्तर दिया कि यह कहावत आप लोगों पर ज्यादा लागू होती है। एक साल में हम सब अपना धर्म छोड़ देंगे, भाई वाह कितनी अक्ल की कितनी ज्ञान की बात कही। पादरी ने अंग्रेजी में अनुवाद करके जब व्यापारी को सुनाया तो वह भड़क उठा कि तुम्हारी बेअदबी की शिकायत डिप्टी कमिश्नर बहादुर से करूँगा तो जगतसिंह ने बिना डरे कहा कि वह फाँसी पर थोड़े ही चढ़ा देंगे। जागीर छीन ली, केवल मालगुजार कर दिया। लगान पर लगान बढ़ाये चले जा रहे हैं कंपनी वाले। न किसान चैन में और न हम लोग। कर दो शिकायत, हम राजपूत न कभी दबे हैं और न कभी दबेंगे।
राजा शंकरशाह का अनुयायी
नियत तिथि पर राजा शंकरशाह राजगोंड की हवेली पर हुई बैठक में जगतसिंह भी शामिल हुए। बैठक में अपनी राय देते हुए जगतसिंह राजा शंकरशाह से कहते हैं कि गोंडवानों के नरेशों के लिए हमारे पुरखों ने सिर दिए हैं। मेरा सिर भी तैयार है। अंग्रेजों के सामने न तो हमारी मूँछ नीची होगी और न हमारा धर्म झुकेगा। आप सबने सुन लिया होगा कि उस पादरी और अंग्रेज दुकानदार के सामने मेरी और पंडितजी की कैसी क्या निबटी। डिप्टी कमिश्नर साहब से हमारी शिकायत की गई। पेशकार कहता था कि साहब नाराज हो गए हैं और किसी दिन बुलाएँगे। बुलाएँगे तो चला जाऊँगा, परंतु मूँछ और धर्म में से किसी को भी नहीं खोऊँगा। आप सब जो तय करें हम उससे दो हाथ और आगे जाने को तैयार हैं।
क्रांति का समर्थक
जगतसिंह का कहना कि अंग्रेजों को बाहर खदेड़ने के लिए क्रांति के अतिरिक्त अब और कोई उपाय नहीं है। कामठी से गोरी पल्टन के आने में देरी हुई क्योंकि जगतसिंह ने सुकरी बर्गी के बहादुरसिंह के साथ मिलकर हथियार उठा लिए थे। उन्होंने चार सौ बंदूकची और आठ सौ तलवार, तीर-कमान वाले इकट्ठे कर लिए थे। उनकी सेना ने गोरी सेना को बहुत देर तक अटकाए रखा। इस प्रकार जगतसिंह ने क्रांति की शुरुआत कर दी थी । गोरी सेना को अटकाना उनकी योजना का हिस्सा था।
राजा शंकरशाह के कक्ष में जगतसिंह, बहादुरसिंह और कुछ मालगुजारों की गुप्त गोष्ठी में जगतसिंह ने राजा से कहा कि जिस प्रकार कर्णदेव पंडित उठ खड़ा हुआ है आप भी मैदान में आ जाइए। जबलपुर, मंडला, दमोह, नरसिंहपुर आदि क्षेत्रों की जनता तुरंत आपके झंडे के नीचे आ जाएगी। परंतु गिरधारीदास की गद्दारी के कारण शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथशाह को गिरफ्तार कर तोप से उड़ा दिया जाता है। अब जगतसिंह अपनी सेना लेकर बिछिया आकर रानी अवंतीबाई के साथ हो लिया । उसने रानी को सुकरी बुर्गी, सागर, दमोह, जबलपुर, पाटन, बल्देव तिवारी, विजयराघवगढ़ के सरयूप्रसादसिंह आदि के समाचार देने के बाद फिरंगियों के अत्याचार का वर्णन किया कि फिरंगियों की फौज ने गाँव-के-गाँव जला दिए। जो सामने आता है उसका वध कर दिया जाता है। जो बचे बचे हैं वे बेघर हो गए हैं। रात में बैठक हुई और निर्णय के अनुसार जगतसिंह अपना दल लेकर चला गया।
निष्कर्ष
इस प्रकार जगतसिंह अंग्रेजों से न डरने वाला, शंकरशाह और रानी अवंतीबाई का सच्चा साथी और वीर पुरुष है। उपन्यास में यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि अवंतीबाई के पास से दल को लेकर चले जाने के बाद क्या हुआ, तथापि अन्य क्रांतिकारियों के समान वह भी मारा गया होगा, ऐसा अनुमान है।
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