गजाधर बाबू के चरित्र चित्रण - 'वापसी' कहानी गजाधर बाबू को केंद्र में रखकर लिखी गई है इसलिए कहानी में मुख्य चरित्र गजाधर बाबू हैं और उन्हीं का चरित्र स
गजाधर बाबू के चरित्र चित्रण - Gajadhar Babu ka Charitra Chitran
'वापसी' कहानी गजाधर बाबू को केंद्र में रखकर लिखी गई है इसलिए कहानी में मुख्य चरित्र गजाधर बाबू हैं और उन्हीं का चरित्र सबसे अधिक मुखर होकर सामने आता है। इनके अलावा उनकी पत्नी का चरित्र दूसरे पात्रों की तुलना में ज्यादा उभरकर आता है। शेष सभी पात्र कहानी की जरूरत के अनुसार आते-जाते रहते हैं और उनका चरित्र बहुत उभरकर नहीं आता। लेकिन उनसे जुड़े जो भी प्रसंग सामने आते हैं उनसे उनके चरित्र की केंद्रीय विशेषताओं की पहचान हो जाती है। अपने सीमित कलेवर के कारण कहानी में बहुत अधिक पात्र हो भी नहीं सकते। यह कहानी लेखिका के शिल्प की विशेषता है कि उन्होंने कथावस्तु का गठन इस तरह किया है। कि पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ स्वतः ही उभर आती हैं। सबसे पहले हम गजाधर बाबू के व्यक्तित्व की विशेषताओं को पहचानने की कोशिश करते हैं ।
वापसी कहानी के नायक
गजाधर बाबू को इस कहानी का केंद्रीय पात्र या नायक कहा जा सकता है। पूरी कहानी उन्हीं के इर्दगिर्द घूमती है। गजाधर बाबू पर केंद्रित होने के बावजूद इसे चरित्र प्रधान कहानी कहना उचित नहीं है क्योंकि कहानी का मकसद गजाधर बाबू के चरित्र को उभारना नहीं है बल्कि उनके माध्यम से परिवारों में वृद्ध लोगों की बदलती स्थिति को दर्शाना है। गजाधर बाबू वैसे तो घर के मुखिया हैं और परंपरागत दृष्टि से देखने पर उनकी इच्छा और आदेश ही पूरे परिवार के लिए सर्वमान्य होने चाहिए। वह इसका प्रयत्न भी करते हैं कि घर के सभी सदस्य उनके कहे अनुसार चले लेकिन ऐसा होता नहीं। उनके इस आदेश देने की कोशिशों को घर के दूसरे सदस्य बहुत पसंद नहीं करते बल्कि अपने-अपने ढंग से उसका विरोध भी करते हैं। यही नहीं उनका घर में मौजूद रहना भी शेष सदस्यों को अखरने लगता है। कहानी यह स्पष्ट नहीं करती कि पत्नी और बच्चों का बदला हुआ व्यवहार किस वजह से है। अपने परिवार से दूर रहने के कारण या परिवार के बदलते ढाँचे के कारण ।
सहृदय और स्नेहशील
वे सहृदय और संवेदनशील व्यक्ति हैं। अपने घर-परिवार के सदस्यों के प्रति ही नहीं उनके संपर्क में आने वाले दूसरों लोगों के प्रति भी वे स्नेह का भाव रखते हैं। गनेशी का उदाहरण हमारे सामने हैं जिसको वे बहुत ही प्रेम से याद करते हैं। अपनी पत्नी के प्रति भी उनके मन में गहरा लगाव है और नौकरी से रिटायर होने के बाद जल्दी से जल्दी घर पहुंचने की इच्छा के पीछे अपनी पत्नी के प्रति उनका यह लगाव भी है । पत्नी को लेकर कई मधुर स्मृत्तियां उनके मन में बसी हुई हैं। अपने बच्चों के प्रति भी स्नेह का भाव उनके मन में है ।
पारिवारिक व्यक्ति
उनमें अपने घर-परिवार के प्रति जिम्मेदारी का बोध है। इसी वजह से वे बच्चों को टोकते हैं लेकिन उनकी इस भावना को बच्चे समझ नहीं पाते और उन्हें लगता है कि पिता उन पर शासन चलाने की कोशिश कर रहे हैं। माता-पिता और बच्चों में जिस तरह का संवाद होना चाहिए उसका अभाव भी नज़र आता है। उनकी बेटी बसंती का उदाहरण लिया जा सकता है। अपनी पत्नी के काम के बोझ को हल्का करने के इरादे से जब वे यह फरमान जारी करते हैं कि सुबह का खाना बहू बनाएगी और शाम का खाना बसंती, तो बसंती यह कहते हुए विरोध करती है कि उसे कॉलेज भी जाना होता है। लेकिन पिता बेटी को समझाते हुए तर्क देते हैं, 'तुम सवेरे पढ़ लिया करो। तुम्हारी माँ बूढ़ी हुईं। उनके शरीर में अब वह शक्ति नहीं बची है। तुम हो, तुम्हारी भाभी हैं, दोनों को मिलकर काम में हाथ बँटाना चाहिए ।' लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती, माँ की नज़रों में बसंती का काम से जी चुराने के पीछे मुख्य कारण अपनी सहेली शीला के यहाँ जाना है जहाँ उन्हीं के अनुसार 'बड़े-बड़े लड़के हैं'। एक पिता के लिए यह कथन निश्चय ही चिंता का विषय है। एक कुँवारी लड़की ऐसे घर में बार-बार आये जाये जहाँ जवान लड़के हो तो उसका चिंतित होना स्वाभाविक है। और इसी वजह से वह जब एक दिन बसंती को शीला के घर जाते हुए देखते हैं तो उसे जाने से रोक देते हैं। बेटी नाराज हो जाती है और वह खाना-पीना छोड़ देती है। बेटी के इस तरह रूठ जाने से माँ दुखी हो जाती है और वह इसके लिए अपने पति को ही दोषी मानती है: 'क्या कह दिया बसती से? शाम से मुँह लपेटे पड़ी है। खाना भी नहीं खाया ।'
परंपरावादी दृष्टिकोण
गजाधर बाबू का जीवन संबंधी नज़रिया परंपरावादी है। उनका मानना है कि स्त्रियों का कर्त्तव्य घर में रहना और घर के काम में हाथ बँटाना है। पढ़ाई उनके लिए इतनी जरूरी नहीं है । उनको ज्यादा स्वतंत्रता देना भी उचित नहीं है । यही नज़रिया उनकी पत्नी का भी है और इसी कारण वह अपने पति से शिकायत भी करती है लेकिन उसने बदली हुई परिस्थितियों के साथ अपने को 'एडजस्ट' भी कर लिया है। जबकि पिता में वैसा लचीलापन नहीं है जो एक पिता में होना चाहिए । कम-से-कम जवान बच्चों के साथ वह सिर्फ आदेश द्वारा अपनी बातें नहीं मनवा सकता। विडंबना यह है कि गजाधर बाबू अपनी बेटी पर आदेश चलाते हैं, बहू और पत्नी से भी उनकी अपेक्षाएँ हैं लेकिन बेटों को वे कुछ नहीं कहते। बसंती के बनाये खाने पर छोटा बेटा यह टिप्पणी करते हुए खाना छोड़कर उठ जाता है कि मैं ऐसा खाना नहीं खा सकता। लेकिन बेटे के ऐसे व्यवहार पर गजाधर बाबू उसे कुछ नहीं कहते, बेटी की ही शिकायत पत्नी से करते हैं कि 'इतनी बड़ी लड़की हो गई और उसे खाना बनाने तक का शऊर नहीं आया। बेटे और बेटी के बीच फर्क करने का जो रूढ़िवादी नज़रिया है वह गजाधर बाबू के पूरे व्यवहार में झलकता है।
निष्कर्ष:
गजाधर बाबू के अलावा जिन पात्रों का उल्लेख कहानी में आता है, वे सभी गजाधर बाबू के माध्यम से ही हमारे सामने प्रकट होते हैं। उनकी पत्नी, उनके बच्चे और उनका नौकर । ये सभी कहानी की परिधि में चक्कर लगाते हैं। कहानी के केंद्र में तो गजाधर बाबू ही बने रहते हैं। गजाधर बाबू की तरह उनकी पत्नी भी परंपरावादी है, लेकिन पति से अलग अपने बच्चों के साथ रहने की उनकी लंबी आदत ने उन्हें अपने पति से कुछ हद तक उदासीन बना दिया है। ऐसा होना बहुत स्वाभाविक प्रतीत नहीं होता। इसी तरह कहानी में बच्चों द्वारा पिता को एक अवांछित मेहमान की तरह देखना भी अतिरंजनापूर्ण लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कहानीकार की सहानुभूति सिर्फ गजाधर बाबू के प्रति है, शेष पात्रों को समझने का प्रयास नहीं दिखाई देता । शेष पात्रों की चरित्रगत विशेषताएँ कहानी में इसी रूप में आती हैं कि स्वयं गजाधर बाबू उन्हें किस रूप में देखते हैं।
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