चारुदत्त का चरित्र चित्रण - Charudatta ka Charitra Chitran

चारुदत्त का चरित्र चित्रण- मृच्छकटिक प्रकरण का नायक चारुदत्त है। भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार नायक के चार प्रकार माने जाते हैं- धीरोदात्त, धीरललित, ध

चारुदत्त का चरित्र चित्रण - Charudatta ka Charitra Chitran

चारुदत्त का चरित्र चित्रण- मृच्छकटिक प्रकरण का नायक चारुदत्त है। भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार नायक के चार प्रकार माने जाते हैं- धीरोदात्त, धीरललित, धीरप्रशान्त और धीरोद्धत। इन चारों प्रकार के नायकों में से चारुदत्त के चरित्र को धीरप्रशान्त नायक कहा जा सकता है। दशरूपक के अनुसार धीर प्रशान्त का लक्षण है ‘‘सामान्य गुण युक्तस्तुधीर प्रशान्तो द्विजादिक।’’ चारुदत्त में सामान्य नायक के प्रायः समस्त गुण विद्यमान हैं। 

चारुदत्त का चरित्र चित्रण - Charudatta ka Charitra Chitran

चारुदत्त का व्यक्तित्व

चारुदत्त जन्मना बा्रह्मण होते हुए भी कर्मणा (वणिक्) है। उज्जयिनी नगरी के अति सम्पन्न वंश मे चारुदत्त ने जन्म लिया है। उसके पूर्वजों ने ब्राह्मण होते हुए भी व्यापार के माध्यम से अपार धन सम्पत्ति अर्जित की थी किन्तु चारुदत्त अपनी अतिशय उदारता और दानशीलता के कारण सारी सम्पत्ति निर्धनों को दे देता है और स्वयं दरिद्र हो जाता है। उसका व्यक्तित्व आकर्षक, उदात्त और सुन्दर है। द्वितीय अकं में संवाहक वसन्तसेना को चारुदत्त का परिचय देता हुआ कहता है ‘यस्तादृशः प्रियदर्शनः .......।’  

इसी तरह सप्तम अकं में आर्यक चारुदत्त की प्रशंसा में कहता है- ‘न केवलं श्रुतिरमणीयो दृष्टिरमणीयोऽपि।’ अर्थात् न केवल सुनने में ही अच्छे है अपितु देखने में भी अच्छे हैं। वसन्तसेना की हत्या का आरोप चारुदत्त पर लगता है। न्यायालय के न्यायाधिकारी भी उसके सौन्दर्य को देखकर कहता है- 'घोणोन्नतं मुखमपाङ्गविशालनेत्रम्।' अर्थात् ऊँची नाक वाला, किनारों तक लम्बे नेत्रों वाला यह मुख। वसन्तसेना की माता भी चारुदत्त को देखकर कहती है- ‘‘अयं स चारुदत्तः। सुनिक्षिप्तं खलु दारिकया यौवनम।’’ 

उदार एवं दयालू

चारुदत्त अत्यन्त उदार एवं दयालू है। वह किसी को निराश नहीं करना चाहता। जब कोई श्लाघनीय कार्य करता है या उसे कोई शुभ समाचार सुनाता है तो चारुदत्त उसे पुरस्कार के रूप में कुछ न कुछ देना चाहता है। अतिशय उदारता के कारण ही चोर के द्वारा आभूषण चुराने पर वह दुःखी नहीं होता है। अपितु प्रसन्न होकर कहता है- ‘‘यदसौ कृतार्थो गतः।’’ कर्णपूरक जब मत्त हाथी को मार देता है तो उसके पराक्रम से प्रसन्न होकर उसे अंगठूी देना चाहता है किन्तु अंगुली में अंगठूी न होने से वह अपना दुपट्टा ही दे देता है। ‘‘एकेन शून्यान्याभारणस्थानानि परामृश्य ऊर्ध्वं निःश्वस्यायं ममोपरि निक्षिप्तः।’’ इसी तरह चेट जब वसन्तसेना के आगमन का समाचार देता है तो वह हर्षित होकर अपना दुपट्टा दे देता है- ‘‘भद्र! मे कदाचित् प्रियवचनं निष्फलीकृतम्, तद्गृह्यतां पारितोषिकम्।’’  

चारुदत्त की यही उदारता, वसन्तसेना के आकर्षण का कारण बनती है। चारुदत्त के मन में प्राणिमात्र के लिए दया है। न तो वह किसी को कभी कष्ट देना चाहता है और न किसी को दुःखी देखना चाहता है। चारुदत्त के लिए चेट कहता है- ‘सुजनः खलु भृत्यानुकम्पकः’ चारुदत्त सेवकों के प्रति भी दयालू है। वह सोई हुई रदनिका को जगाना नहीं चाहता- ‘अलं सुप्तजनं प्रबोधयितुम् इतना ही नहीं पशु.पक्षियों के प्रति भी उसकी करुणा इस वाक्य से प्रकट होती है- ‘वयस्य! उपविश्य किमनेन, तिष्ठतु दयितासहितस्तपस्वी।’  

शरणागत रक्षक

शरणागत की रक्षा जो एक भारतीय संस्कृति की अनुपम धरोहर है, चारुदत्त के चरित्र में विद्यमान है। वह शरणागत की रक्षा के निमित्त अपने प्राणों तक की परवाह  नहीं करता। आर्यक जब उसकी शरण में आता है तब वह स्पष्ट कहता है- ‘अपि प्राणानहं जह्यां न तु त्वां शरणागतम्।’ (अर्थात प्राणों को भले ही त्याग दूँगा, किन्तु शरण में आये हुये तुम्हें नहीं त्यागूँगा।)  शरणागत रक्षक की पराकाष्ठा तब होती है जब षड्यन्त्र रचाकर हत्या के अभियोग में चारुदत्त को दण्ड दिलाने वाला शकार भी उसकी शरण में आकर प्राणरक्षा की भीख माँगता है। तब चारुदत्त शकार के अपराध को भुलाकर कहता है- ‘अहह! अभयमभयं शरणागतस्य।’ 

धर्मपरायण तथा भाग्यवादी

चारुदत्त धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति है। मृच्छकटिकम् के प्रारम्भ से ही चारुदत्त एक धर्म-कर्म निरत व्यक्ति के रूप में दिखाई देता है। वह सन्ध्यावन्दनादि नित्य कर्मों का नियमपूर्वक अनुष्ठान करता है। जब मैत्रेय देवताओं के प्रति अश्रद्धा व्यक्त करता है तब वह कहता है- ‘वयस्य! मा मैवम् गृहस्थस्य नित्योऽयं विधिः।’ आगे भी कहता है-‘तपसा मनसा वाग्भिः पूिजता बलिकर्मभिः।’ 

धार्मिक प्रवृित्त से युक्त होने के कारण वह भाग्यवादी भी है। उसकी भाग्यवादिता इस वाक्य से परिलक्षित होती है- ‘भाग्यक्रमेण हि धनानि भवन्ति यान्ति।’ इसी प्रकार चारुदत्त आर्यक से कहता है- ‘स्वैर्भाग्यैः परिरक्षितोऽसि।’ 

भाग्यवादी होने के कारण उसका विश्वास है कि धन का आना और जाना भाग्य के अनुसार ही होता है। भाग्यवादिता एवं धर्मनिष्ठा का ज्वलन्त प्रमाण हम उसके निम्न कथन के रूप में देख सकते हैं, जब वह यह आह्वान करता है- प्रभवति यदि धर्मो दूषितस्याऽपि मेऽद्य, प्रबलपुरुषवाक्यैर्भाग्यदोषात्कथञ्चित्।  सुरपतिभवनस्था यत्र तत्र स्थिता वा, व्यपनयतु कलङ्क स्वस्वभावेन सैव।। 

इसी सन्दर्भ में शकुन और अपशकुन पर उसका दृढ़ विश्वास है। न्यायालयमें जाते समय मार्ग में होने वाले अपशकुनों को देखकर वह घबड़ा जाता है और अपनी भावी मृत्यु सोचने लगता है। भाग्यवाद में विश्वास की पराकाष्ठा उसके निम्न वक्तव्य से परिलक्षित होती है-  

कांश्चितुच्छयति प्रपूरयति व कंश्चिन्नयत्पुन्नति। 

कांश्चित् पातविधौ करोति च पुनः कंश्चिन्नयत्याकुलान्  

अन्योन्यं प्रतिपक्षसंहतिमिमां लोकस्थितिं बोधय-  

न्नेष क्रीडति कूपयन्त्रघटिका.न्यायप्रसक्तो विधिः।। 

आदर्श प्रेमी

मृच्छकटिक में चारुदत्त को एक उच्चकोटि का आदर्श प्रेमी चित्रित किया गया है। एक प्रेमी के रूप में उसका चरित्र चारित्रिक दृढत़ा से युक्त है। वसन्तसेना के प्रति उसका प्रेम अत्यन्त गहरा एवं सुकुमार है। जब तक वसन्तसेना उससे आकर नहीं मिलती है, तब तक वह उसके वियोग में तड़पता रहता है। अभियोग प्रकरण में भी वह इन शब्दों में वसन्तसेना का स्मरण करता है- ‘न च मे वसन्तसेनाविरहितस्य जीवनेन कृत्यम्’ अन्त में जब वह वध स्थान पर अचानक वसन्तसेना को देखता है तब वह हृदय से गदगद हो उठता है तथा उसे संजीवनी बूटी के तुल्य बतलाता है।

यद्यपि वह एक गणिका से प्रेम करता है किन्तु अपनी पत्नी धूता से प्रेम में लेशमात्र भी कमी नहीं है वह उसे पवित्र मानता हुआ उसका आदर करता है। वेश्या के आभूषणों को भी अभ्यन्तर प्रवेश के योग्य नहीं समझता है। वह पर नारी पर दृष्टि भी नहीं डालना चाहता-‘न युक्तं परकलत्रदर्शनम्।’ जब अनजाने में अन्य स्त्री से उसके वस्त्रों का स्पर्श हो जाता है तो वह खिन्न होकर कहता है- ‘इयमपरा का अविज्ञातावसक्तेन दूषिता मम वाससा।’ अपनी पतिव्रता स्त्री पर गर्व करता है और गार्हस्थ्य धर्म का पूर्णतया पालन करता है।  

चारुदत्त: एक प्रतिष्ठा प्रेमी

चारुदत्त को अपनी प्रतिष्ठा और चरित्र की उज्ज्वलता का ध्यान है। वह ऐसा कोई आचरण नहीं करना चाहता है जिससे उसकी अथवा उसके वंश की मान प्रतिष्ठा को धक्का लगता हो। वसन्तसेना के गहनों की चोरी के सम्बन्ध में विदूषक द्वारा झूठ बुलवाये जाने के उत्तर में कहता है ‘अनृतं नाभिधास्यामि चारित्रभ्रंशकारकम।’

अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए ही वह वसन्तसेना की धरोहर को लौटाना आवश्यक समझता है और असत्य बात कहकर बहुमूल्य रत्नमाला बदले में भेजता है। यद्यपि वह जानता है कि सत्य बात जानने पर वसन्तसेना रत्ना वली नहीं लेगी और समाज के लोग उसकी गरीबी के कारण सच घटना पर विश्वास नहीं करेंगे। इससे चारों ओर बदनामी होगी। वह विदूषक से कहता है- ‘कः ज्ञद्धास्यतिभूतार्थ, सर्वो मां तुलयिष्यति’ वसन्तसेना की हत्या अपराध सिद्ध होने पर उसे मृत्यदुण्ड पाने का भय नहीं है, केवल दुःख है तो प्रतिष्ठा चले जाने का- ‘न भीतो मरणादस्मि केवलं दूषितं यशः।’ 

चारुदत्त: एक कलाप्रेमी

चारुदत्त कला.प्रिय व्यक्ति है। वह हर अच्छी कला का सम्मान करता है। उसमें कवि हृदय भी विद्यमान है। वह संगीत का पारखी है। रेभिल के संगीत की ताल.लय तथा मूर्च्छना इत्यादि का विश्लेषण करते हुए सराहना करता है। शर्विलक के द्वारा मकान में सेंध लगाई जाती है तब चोरी की अधिक चिन्ता न करके, सर्वप्रथम सेंध लगाने की कला की प्रशंसा करता है- ‘अहो, दर्शनीयोऽयं सन्धिः। कथमस्मिन्नपि कर्मणि कुशलता?’ 

संबंधित प्रश्न: 

प्रश्न : चारुदत्त कहां का रहने वाला था ?

उत्तर :- चारुदत्त उज्जयिनी का रहने वाला गरीब ब्राह्मण है।

प्रश्न : चारुदत्त को मृत्युदंड क्यों दिया गया ? 

उत्तर :- चारुदत्त को राजा के साले के दुराग्रह पर वसंतसेना की हत्या के आरोप में मृत्युदंड दिया गया। चारूदत्त पर आभूषणों के लोभ में वसन्तसेना की हत्या का आरोप लगाया जाता है।

प्रश्न : चारुदत्त की पत्नी कौन है?

उत्तर :- चारूदत्त की पत्नी 'धूता' पूर्वपरिग्रह के अनुसार ज्येष्ठा है जिससे चारूदत्त को 'रोहितसेन' नाम का एक पुत्र है। 

प्रश्न : चारुदत्त के घर से आभूषण कौन चुराता है?

उत्तर :- शार्विलक नाम का ब्राह्मण एक रात चारुदत्त के घर में सेंध लगाकर वसन्तसेना द्वारा धरोहर रखे गए सोने के सारे आभूषण चुरा लेता है। 

प्रश्न : चारुदत्त को फाँसी होने से कैसे बचाया गया?

उत्तर :- चारुदत्त की फाँसी के समय भिक्षु वसन्तसेना को लेकर आता है। इस प्रकार चारुदत्त फांसी होने से बच जाता है।

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