चन्द्रगुप्त का चरित्र चित्रण: चन्द्रगुप्त इस नाटक का सर्वप्रमुख पात्र है। यह मगध का निर्वासित राजकुमार होता है। चन्द्रगुप्त के पिता मगध की सेना के माह
चन्द्रगुप्त नाटक के नायक का चरित्र चित्रण
चन्द्रगुप्त का चरित्र चित्रण: चन्द्रगुप्त इस नाटक का सर्वप्रमुख पात्र है। यह मगध का निर्वासित राजकुमार होता है। चन्द्रगुप्त के पिता मगध की सेना के माहबलधिकृत थे। किन्तु नन्द द्वारा उन्हें पद से हटा दिये जाने पर उनका परिवार बिखर गया। चन्द्रगुप्त भी भटकने लगा । फिर चाणक्य ने इसकी सहायता की। चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त आगे चलकर सम्पूर्ण आर्यावर्त का सम्राट बना । चन्द्रगुप्त की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित है:-
चन्द्रगुप्त एक स्वतन्त्रता रक्षक
नाटक के आरम्भ में ही चन्द्रगुप्त को हम सर्वसाधारण की स्वतन्त्रता के रक्षक के रूप में देखते हैं। वह सिंहरण व आम्भीक को कहता है- "प्रत्येक निरापद आर्य स्वतन्त्र है, उसे बन्दी नहीं बना सकता।" उसकी यह भावना नाटक में अन्त तक बनी रहती है। यह आर्यावर्त की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए शक्तिभर प्रयन्तन करता है। उसे यह सहन नहीं होता कि यवन आक्रमणकारी आर्यावर्त को गुलाम बनाये । वह इसलिए सिकन्दर को कहता है- "मैं यवनों को अपना शासक बनने को आमन्त्रित करने नहीं आया है।"
चन्द्रगुप्त एक आत्मसम्मानी
चन्द्रगुप्त स्वाभिमानी राजकुमार है। वह किसी भी कीमत पर अपने आत्मसम्मान को ठेस नहीं लगने देता । उसके मत में आत्मसम्मान की रक्षा ही जीवन की सार्थकता है। वह चाणक्य को कहता भी है- "आर्य! संसार भी की नीति और शिक्षा का अर्थ मैंने यही समझा है कि आत्मसम्मान के लिए मर मिटना ही दिव्य जीवन है।" अपने स्वाभिमान के प्रति वह कितना जागरूक है इसका उदाहरण एक अन्य स्थल पर भी मिलता है। सिकन्दर उसे भारत का सम्राट बनाने में सहायता देना चाहता है लेकिन वह साफ कह देता है "मुझे आपसे सहायता नहीं लेनी ।" इतना ही नहीं वह इसी क्रम में आगे कहता है- "मुझे लाभ से पराभूत गान्धार राज आम्भीक समझने की भूल न होनी चाहिए. मैं मगध का उद्धार करना चाहता हूँ।" नाटक के चौथे अंक में यूनानी सेनापति फिलिप्स उसे द्वन्द्व युद्ध के लिए चुनौती देता है तब भी वह साफ कह देता है कि "आधी रात पिछले पहर जब तुम्हारी इच्छा हो।"
चन्द्रगुप्त एक दृढ़प्रतिज्ञ नायक
चन्द्रगुप्त चाणक्य के सामने प्रतिज्ञा करता है कि उसके रहते आक्रमणकारी आर्यावर्त का नाश नहीं कर सकते। वह चाणक्य को कहता है "गुरूदेव, विश्वास रखिए! यह सब कुछ नहीं होने पायेगा | यह चन्द्रगुप्त आपके चरणों की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता है कि यवन यहाँ कुछ न कर सकेंगे।" चौथे अंक में भी जब चन्द्रगुप्त को ज्ञात होता है कि सिंहरण सेनापति के पद को छोड़ना चाहता है तो चन्द्रगुप्त विचलित नहीं होता। बल्कि कहता है कि आज से ही बलाधिकृत हूँ। कोई सहायता न दे तो भी मैं विचलित नहीं होऊँगा ।
कृतज्ञता का गुण
चन्द्रगुप्त, सिल्यूकस के अहसान को भूलता नहीं है। सिल्यूकस ने जंगल में उसे व्याघ्र का शिकार होने से बचाया था। उसके लिए चन्द्रगुप्त सदैव सिल्यूकस का कृतज्ञ बना रहता है। वह कहता भी है- "भारतीय कृतघ्न नहीं होते। सेनापति! मैं आपका अनुगृहित हूँ, अवश्य आपके पास आऊँगा।" इसी भांति सिकन्दर के विरूद्ध लड़ाई में वह सिल्यूकस को घेर लेता है किन्तु उसे मारता नहीं निकल जाने देता है। क्योंकि सिल्यूकस ने भी एक बार उसके प्राण बचाये थे। वह कहता है- "यवन सेनापति, मार्ग चाहते हो या युद्ध ? मुझ पर कृतज्ञता का बोझ है। तुम्हारा जीवन! इतना ही नहीं नाटक के अन्त में भी, सिकन्दर की मृत्यु के बाद जब सिल्यूकस पुनः भारत पर आक्रमण करता है तो भी चन्द्रगुप्त युद्ध में सिल्यूकस को मारता नहीं। इस तरह प्रमाणित होता है कि चन्द्रगुप्त में कृतज्ञता की भावना अन्त तक बनी रहती है।"
विनम्रता का गुण
कृतज्ञता के साथ-साथ चन्द्रगुप्त में विनम्रता भी मिलती है। वह वीर है पर उद्दण्ड नहीं। तपोवन में जब सिकन्दर उसे अपने शिविर में निमन्त्रित करता है तो चन्द्रगुप्त बहुत ही विनम्रता के साथ जवाब देता है- "अनुगृहीतं हुआ। आर्य लोग किसी नियन्त्रण को अस्वीकार नहीं करते। कहीं-कहीं उसमें जो उग्रता दिखती है वहाँ उसका स्वाभिमान भी प्रकट हुआ है; उसे उद्दण्डता समझना भूल होगी।
निडर व स्पष्टवादी
सही बात कहने में चन्द्रगुप्त को कोई संकोच नहीं होता। वह सिकन्दर के शिविर में कुछ दिन रहा। वहीं वर उसने सिकन्दर को साफ बतला दिया कि वह उनकी रण कला का अध्ययन करने के लिए ही उनके शिविर में टिका रहा। उसे अन्य और कोई लोभ नहीं- "अवश्य ही यहां रह कर यवन रण नीति से मैं कुछ परिचित हो गया हूँ.......मैं मगध का उद्धार करना चाहता हूँ पर यवन लूटेरों की सहायता से नहीं।" वह सिकन्दर के शिविर में ही बिना किसी भय के साफ चोट करने वाले शब्दों में कहता है- "लूट के लोभ से हत्या, व्यावसायियों को एकत्र करके वीर सना कहना, रण कला का उपहास करना है।" सिकन्दर के सामने ही वह आम्भीक का बुरी देता है- "स्वच्छ हृदय भीरू कायरों की सी वंचक शिष्टता नहीं जानता। अनार्य! देशद्रोही ! अम्भीक ! चन्द्रगुप्त रोटियां के लालच या घृणाजनक लोभ से सिकन्दर के पास नहीं आया है।"
कर्त्तव्यनिष्ठ योद्धा
चन्द्रगुप्त को इस नाटक में हम एक कर्मठ योद्धा के रूप में देखते है । वह व्यक्तिगत सुख के लिए देश के प्रति अपने कर्तव्य की हानि नहीं होने देता। राजकुमारी कल्याणी के प्रति उसका यह कथन उदहारण के रूप में देखा जा सकता है- "राजकुमारी से मेरा प्रणाम कहना और कह देना कि मैं सेनापति का पुत्र हूँ युद्ध ही मेरी अजीविका है।" इसी भांति एक अन्य स्थल पर भी जब सिल्यूकस के विरुद्ध युद्ध के समय सिंहरण सेनापति का पद छोड़ देता है उस समय चन्द्रगुप्त की जागरूकता और कर्मठता प्रशंसनीय है । कर्तव्य के प्रति वह कितना कठोर हो जाता है इसका उदाहरण प्रस्तुत करने वाली पंक्तियां दृष्टव्य हैं-- "देश में डोंडी फेर दे कि आर्यावर्त में शस्त्र ग्रहण करने में जो समर्थ है, सैनिक है और जितनी सम्पत्ति है, युद्ध विभाग की है।" इसी के बाद जब एक सैनिक उससे पूछता है कि शिविर आज कहाँ रहेगा? तब चन्द्रगुप्त जवाब देता है " अश्व की पीठ पर सैनिक कुछ खिला दो और अश्व बदलो। एक क्षण विश्राम नहीं ।"
कुशल नीतिज्ञ
चन्द्रगुप्त को सेनापति होने के नाते युद्ध कौशल और युद्ध नीति का पूरा ज्ञान है। वह जानता है कि यवन सेना का मुकाबला भारतीय रण नीति को अपनाकर नहीं किया जा सकता। इसलिए वह ग्रीक शिविर में उनकी रणनीति का अध्ययन करता है। युद्ध के मैदान में सेना को किस तरह जमाया जाय यह भी चन्द्रगुप्त भली-भां जाता है। उसके कुछ कथन इस बात के प्रमाण हैं- "कल्याणी के मगध सैनिक और क्षुद्रक अपनी घात में से यवन को इधर आ जाने दो। सिंहरण, थोडी सी हिस्त्रिकाओं पर मुझे साहसी वीर चाहिए | यवनों की जल सेना पर आक्रमण करना होगा। विजय के विचार से नहीं, केवल उलझाने के लिए और उनकी सामग्री नष्ट करने के लिए वह सिंहरण को भी समझा देता है कि यवन सैनिक दूसरी नीति से युद्ध करते है । अत: उनसे युद्ध करने के लिए उन्हीं की नीति से युद्ध करना होगा।
यहाँ तक तो चन्द्रगुप्त के व्यक्तित्व का अच्छा पक्ष ही उभरा है किन्तु उसमें कुछ मानव सुलभ दुर्बलताएं भी रखता ने शायद उसके चरित्र को सहज और स्वाभाविक बनाये रखने के लिए ही ऐसे प्रसंगों की योजन की है चन्द्रगुप्त मनुष्य पहले है और सम्राट आद में यौवन और सौन्दर्य की तरफ आकर्षित होना मान्व का स्वाभाव है भले ही वह साधारण मनुष्य हो या सम्राट । कल्याणी मालविका और कार्नेलिया के प्रति उसके मन में प्रेम के जो अंकुर लहराते हैं वे इसी बात के सूचक हैं। लेखक ने मालविका के समक्ष चन्द्रगुप्त से यह स्वीकार करवाया है कि उसके मन में सम्राट होने के उपरान्त भी एकाकीपन फैला हुआ है। वह युद्धकाल में भी मालविका के पास कुछ प्रेम भरे पल व्यतीत करने आता है।
निषकर्ष
चन्द्रगुप्त में सत्ता का अहम् भी है। जब वह सम्राट बन जाता है तो कुछ समय के लिए जीवन और मरण के साथ देने वाले गुरू की मर्यादा भी भूल जाता है। आचार्य चाणक्य की कूटनीति को समझे बिना ही वह तिलमिलाने लगता है। चौथे अंक में उसके स्वागत की कुछ पंक्तियां देखिये "भीषण संघर्ष करके भी मैं कुछ नहीं हूँ, मेरी सत्ता एक कठपुतली सी है । तो फिर.... मेरे पिता मेरी माता इनका तो सम्मान आवश्यक था। वे चले गये मैं देखता हूँ कि नागरिक तो क्या मेरे आत्मीय भी आनंद मनाने से वंचित किये गये। यह परतन्त्रता कब तक चलेगी?"
चन्द्रगुप्त को जिस चाणक्य ने सड़क से उठाकर सम्राट की स्थिति तक पहुँचाया वह उसी चाणक्य को समझने में भूल करता है। जो चाणक्य हर पल चन्द्रगुप्त के नाम लिखता गया, हर कहीं उसी का यश गाता और जिसकी एक ही अदम्य इच्छा थी कि चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाये। उसी पर चन्द्रगुप्त ने शक किया ! भारत का सम्राट होने वाले चन्द्रगुप्त में इतनी समझ नही थी कि वह अपने आचार्य और संरक्षक चाणक्य के निर्णय के पीछे छिपी हुई भावना का अनुभव कर सके, यह जानकर हमें कुछ अच्छा नहीं लगता। गुरूदेव के चरणों की शपथ खाने वाला चन्द्रगुप्त ही बाद में उन्हें कह देता है।" अक्षुण्य अधिकार आप कैसे भोग रहे हैं? केवल साम्राज्य का ही नहीं देखता हूँ आप कुटुम्ब का भी नियंत्रण अपने हाथों में रखना चाहते हैं।" इतनी बड़ी बात उसने केवल इस भ्रम का शिकार होकर कह दी कि चाणक्य ने उसके माता पिता का अपमान किया है। युद्ध में विजय प्राप्त करके लौट रहे चन्द्रगुप्त के स्वागत करना चाहते थे उसके माता पिता किन्तु चाणक्य जानता था की स्वागत की भीड़ में शत्रु चन्द्रगुप्त का नुक्सान कर सकते हैं और उसे चन्द्रगुप्त का जीवन बचाना था। इसलिए उसने चन्द्रगुप्त का नुकसान कर सकते हैं और उसे चन्द्रगुप्त का जीवन बचाना था। इसलिए उसने चन्द्रगुप्त के माता पिता की इच्छा को पूरा नहीं होने दिया और चन्द्रगुप्त अपने गुरु की उक्त आन्तिरक भावना को न समझ सका या कहें कि भावावेश में आकर उसने गुरू चाणक्य को भी गलत समझ लिया।
इन कमीयों के बावजूद भी चन्द्रगुप्त का व्यक्तित्व इस नाटक में प्रभावशाली हैं। सबसे सक्रिय पात्र है। उसमें बल, शक्ति, साहस, सूझबूझ, स्वाभिमान आदि का अद्भुत सामन्जस्य मिलता है।
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