अशोक का चरित्र चित्रण - आधे अधूरे नाटक: 'आधे-अधूरे' नाटक में अशोक एक महत्त्वपूर्ण सहायक पात्र के रूप में उपस्थित हुआ है। अशोक इस नाटक में आधुनिक युवा
अशोक का चरित्र चित्रण - आधे अधूरे नाटक
'आधे-अधूरे' नाटक में अशोक एक महत्त्वपूर्ण सहायक पात्र के रूप में उपस्थित हुआ है। अशोक इस नाटक में आधुनिक युवा पीढ़ी की पीड़ा, आक्रोश, अकर्मण्यता, अस्वीकार और पलायन को साक्षात रूप में मंच पर प्रस्तुत करता है।
आधुनिक विचारधारा से अनुप्राणित यह नवयुवक फ्रेंच कट दाढ़ी, रंग-बिरंगी बुशर्ट-पतलून तथा नई-नई पत्रिकाओं का अध्ययन आदि में रुचि रखता है। वह कर्तव्य पथ से च्यूत, बेकार बेगार नवयुक है, जो सारा दिन घर पर रहकर पत्रिकाओं अश्लील तस्वीरें काटता रहता है। उद्योग सैंटर वाली वर्णा के पीछे जूतियाँ चटखाता फिरता है। नाटककार मोहन राकेश ने उसका परिचय इस प्रकार दिया है - "उम्र इक्कीस के आसपास । पतलून के अन्दर दबी भड़कीली बुशर्ट घुल-घुलकर घिसी हुई । चेहरे से, यहाँ तक कि हँसी से भी झलकती खास तरह की कड़वाहट ।" अशोक की महेन्द्रनाथ भी भाँति बेकार - बेगार है और कोई भी कार्य निष्ठापूर्वक नहीं कर सकता। वह न तो मन लगाकर पढ़ाई कर सका और न एयरफ्रीज में नौकरी ठीक प्रकार से कर पाता है। उसके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं ।
स्पष्टवादिता एवं वाकपटुता
अशोक पूरे नाटक में एक स्पष्टवादी वाकपटु पात्र के रूप में प्रकट होता है। वह अपनी रुचि के प्रतिकूल बात को चाहे वह बात कड़वी हो, भद्दी हो या अच्छी हो। नई स्पष्ट एवं वाक्चातुर्य से प्रकट कर देता है। वह जानता है कि उसकी माँ अपने बॉस सिंघानिया का बहुत आदर करती है और उसके विषय में अपमानजनक बातें नहीं सुन सकती, किन्तु स्वयं उसके मन में सिंघानियाँ की जो 'इमेज' बनी है उसे भी वह झुठला नहीं सकता । निम्नलिखित वार्तालाप में उसकी स्पष्टवादिता स्पष्ट रूप से मुखर हो रही है। देखिए-
स्त्री: दोनों बार इसी के लिए बुलाया था मैंने उसे आज भी इसी की खातिर....
लड़का: मेरी खातिर ? मुझे लेना-देना है उससे ?
बड़ी लड़की: ममा उसके जरिए तेरी नौकरी के लिए कोशिश कर रही होंगी न... ।
लड़का: मुझे नहीं चाहिए नौकरी कम-से-कम उस आदमी के जरिए हरगिज नहीं।
बड़ी लड़की: क्यों, उस आदमी को क्या है?
लड़का: चुकन्दर है वह आदमी है? जिसे न बैठने का शऊर है न बात करने का।
स्त्री: पाँच हजार तनख्वाह है उसकी। पूरा दफ्तर सँभालता हैं
लड़का: पाँच हजार तनख्वाह है, पूरा दफ्तर सँभालता है, पर इतना होश नहीं कि अपनी पतलून के बटन
स्त्री: अशोक ।
इतना ही नहीं है वह अपनी माँ सावित्री को भी उसके गलत कार्यों के लिए फटकारने में नहीं हिचकता। वह जानता है कि सिंघानियाँ जैसे लोगों की मनोवृत्ति कैसी है इसलिए वह अपनी माँ से कहता है-
नहीं बर्दाश्त है, तो बुलाती क्यों हो ऐसे लोगों को घर कि जिनके आगे..? जिनके आगे हम जितने छोटे हैं, उससे और छोटे हो जाते हैं अपनी नजर में।... आज तक जिस किसी को बुलाया है तुमने किस वजह से बुलाया है उसकी किसी बड़ी चीज की वजह से एक को कि वह इंटलेक्चुअल बहुत बड़ा है। दूसरे कि उसकी तनख्वाह पाँच हजार है। तीसरे को कि उसकी तरक्की चीफ कमिश्नर की है। जब भी बुलाया है, आदमी को नहीं उसकी तनख्वाह को नाम को रुतबे में बुलाया है। बात को रहने दो, ममा! मैं नहीं चाहता मेरे मुँह से कुछ ऐसा निकल जाय तुम....।
इन संवादों से अशोक की स्पष्टवादिता ही नहीं अपितु वाक्पटुता भी झलकती है।
आवारा एवं चरित्रहीन युवक
इस नाटक में अशोक के कार्यकलापों से पता चलता है कि वह एक आवारा एवं चरित्रहीन युवक है। वह घर को घर न समझकर तीन-तीन दिन तक घर से गायब रहता है। लड़कियों के पीछे जूती चटकाता फिरता है। पढ़ाई की किताबों से नाता तोड़कर अश्लील किताबें पढ़ता है। अभिनेत्रियों के अश्लील चित्र जमा करने का उसे विशेष शौक है। बिन्नी के शब्दों में, वह सेंटर वाली वर्णा के पीछे भागता है और घर की अनेक वस्तुएँ उसे भेंट कर चुका है। अश्लील पुस्तकें पढ़ने के आरोप में पकड़े जाने पर भी वह अपनी हठता का परिचय देता है । यथा-
छोटी लड़की: झूठ बिल्कुल झूठ। मैंने देखी भी नहीं यह किताब ।
लड़का: नहीं देखी?
छोटी लड़की: तू तकिए के नीचे रखकर सोए, तो भी कुछ नहीं, मैंने जरा निकलकर देख भर ली, तो... |
पुरुष एक: मैं देख सकता हूँ?
लड़का: नहीं... आपके देखने की नहीं है। अब फिर पूछो मुझसे कि इसकी उम्र कितने साल की है।
बड़ी लड़की: क्यों अशोक... यह वही किताब है न कैसनीवा वाली?"
इसके साथ-साथ वह अपनी माँ की जरा सी भी इज्जत नहीं करता है एवं अपने आवारापन के कारण पढ़ाई एवं नौकरी दोनों में असफल है ।
अशिष्ट एवं विद्रोही युवक
अशोक के माध्यम से मोहन राकेश ने आज के युग वर्ग की अशिष्टता एवं विद्रोहीपन को चित्रित किया है। माँ सावित्री के चारित्रिक पतन एवं पिता की महत्त्वहीन स्थिति ने अशोक की मानसिकता को विद्रोही एवं अशिष्ट बना दिया है। अपने पारिवारिक तनावपूर्ण सम्बन्धों से उसके अन्दर खीज एवं विद्रोह की प्रवृत्ति पनपती है। वह अपने घर के परिवेश में विद्रोही हो जाता है। इसी विद्रोहीपन के कारण उसके व्यवहार में भी अशिष्टता आ गई है। अशोक के विद्रोह एवं अशिष्टता का एक उदाहरण देखिए ।
लड़का: मतलब वही जो मैंने कहा है । आज तक जिस किसी को बुलाया है तुमने किस वजह से बुलाया है?
स्त्री: तू क्या समझता है, किस वजह से बुलाया है?
लड़का: उसकी किसी 'बड़ी' चीज की वजह से एक को कि वह इंटेलेक्युअल बहुत बड़ा है। दूसरे को कि उसकी तनख्वाह पाँच हजार है। तीसरे को कि उसकी तख्ती चीफ कमिश्नर की है। जब भी बुलाया है, आदमी को नहीं उसकी तनख्वाह को नाम को रुतबे को बुलाया है।
स्त्री: और मैं उन्हें इसलिए बुलाती हूँ कि ...
लड़का: पता नहीं किसलिए बुलाती हो पर बुलावा सिर्फ ऐसे ही लोगों को ही। अच्छा, तुम्हीं बताओ, किसलिए बुलाती हो?"
अतः कहा जा सकता है कि अशोक के चरित्र में विद्रोह का भाव अपनी तमाम विद्रूपताओं के साथ प्रकट हुआ है।
आधुनिक विचारधारा का फैशनपरस्त युवक
इस नाटक में अशोक आधुनिक विचारधारा के फैशनपरस्त युवक के रूप में चित्रित है। वह पाश्चात्य संस्कृति में अंधानुकरण से भौतिकता से जुड़ा नवयुवक है। वह आधुनिकता के आवरण में अपने बड़ों की इज्जत करना भूल गया है तथा नित बदलते फैशनों को अपनाता है। वह शरीर से दुबला-पतला है किन्तु फैशन की तरफ उसमें विशिष्ट आकर्षण है। नाटककार ने उसकी वेशभूषा के बारे में लिखा है-
"पतलून के अन्दर दबी भड़कीली बुशर्ट धुल-धुलकर घिसी हुई । "
जब बिन्नी उससे शेव न बनाने का कारण पूछती है तो वह इस प्रकार से कहता यथा-
बड़ी लड़की: शेव करना छोड़ दिया है क्या तूने?
लड़का: (अपने चेहरे को छूता हुआ) मैं फ्रैंचकट रखने की सोच रहा हूँ। कैसी लगेगी चेहरे पर ?”
इतना ही नहीं वह अपनी फैशनपरस्ती में पत्रिकाओं से भी नये-नये फैशनों के बारे में जानकारी प्राप्त करता है। बेरोजगार एवं दायित्वहीन युवक अशोक एक बेरोजगार दायित्वबोधहीन युवक है। वह अपनी नौकरी को अपनी दायित्वहीनता के कारण छोड़ देता है। एयरफ्रीज में मिली नौकरी को वह अपनी अकर्मण्यता के कारण छोड़ देता है। इसके अलावा वयस्क होने पर भी वह अपने घर के प्रति जरा भी चिन्तित नहीं है। वह विदेशी मैगजीनों से तस्वीर काट-काटकर अपना खाली समय काट रहा है।
नाटक के प्रारम्भ में ही सावित्री अशोक की कारगुजारी पर प्रकाश डालते हुए कहती है-"और अशोक बाबू वह कमाई करते रहे हैं दिनभर। (तस्वीरें उठाकर देखती) एलिजाबेथ टेलर... आड्रेहेब...शैल मैम्लेन। जिन्दगी काट रहे हैं इन तस्वीरों के साथ"
इस सन्दर्भ में डॉ. सुन्दर लाल कथूरिया का कथन है-
"वह अपनी इक्कीस वर्षीय आयु में ही, जब उसे अपने पैरों पर चलना चाहिए था, विरक्त होकर अथवा निरुपाय अवस्था में निकम्मा हो बैठता है। उसकी सहानुभूति पिता महेन्द्रनाथ के प्रति शायद इसलिए है कि उन दोनों की प्रवृत्ति में कहीं गहरी समानता है। उसके क्रिया-कलापों में अभिनेत्रियों की तस्वीरें काटना, यौन-विषयक पुस्तकों को पढ़ने आदि में जहाँ यौवन के एक यथार्थ को अभिव्यक्ति मिलती है वहाँ अनेक यथार्थ निकम्मेपन की आड़ में दब भी जाते हैं।"
अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि अशोक आज की युवा पीढ़ी का प्रतिनिधि है। चेहरे पर हंसी के साथ ही युवा में पीढ़ी की बेचैनी, दुःख, हैरानी, अस्वीकार, पलायन और आक्रोश भी व्यक्त होता है। अपने को बेकार और आवारा सिद्ध करता है परिवार के तनाव, विद्रोह और उबाऊ सन्दर्भों के कारण अशोक के व्यक्तित्व में भी नकारात्मक तत्त्व आ गए हैं।
डॉ. जयदेव तनेजा ने अशोक के चरित्र की गुण-दोष की विवेचना करते हुए स्पष्ट लिखा है- "लड़के अशोक के चेहरे की हंसी से झलकती कड़वाहट आज की युवा पीढ़ी की पीड़ा अस्वीकार, पलायन और आक्रोश तथा आन्तरिक तनाव को अपनी तेजावी से प्रकट करती है। इक्कीस वर्षीय अशोक चलना शुरू करने से पहले ही विरक्त और निकम्मा होकर बैठ गया है। उसकी प्रच्छन्न सहानुभूति पिता के प्रति ( क्योंकि शायद उन दोनों में कहीं गहरी समानता है) और माँ के प्रति प्रकट चितृष्णा एवं असहमति है। काम-काज और जीवन के यथार्थ से मुँह मोड़कर अभिनेत्रियों की तस्वीरों यौन-विषयक पुस्तकों और वर्णा से रोमांस के बीच जिन्दगी बिता रहा है।"
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