अन्धायुग के अश्वत्थामा का चरित्र चित्रण

अन्धायुग के अश्वत्थामा का चरित्र चित्रण: अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचार्य का एकमात्र पुत्र तथा दुर्योधन का सबसे विश्वनीय मित्र है। महाभारत युद्ध में अपने प

अन्धायुग के अश्वत्थामा का चरित्र चित्रण

अन्धायुग के अश्वत्थामा का चरित्र चित्रण: अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचार्य का एकमात्र पुत्र तथा दुर्योधन का सबसे विश्वनीय मित्र है। महाभारत युद्ध में अपने पिता की निर्मम हत्या ने उसे जीवन से प्रायः विरक्त कर दिया है। जब महाभारत का अन्तिम दिन का युद्ध हुआ और भीम ने कृष्ण के मार्गदर्शन से अधर्म-युद्ध कर दुर्योधन को पराजित कर दिया, उस समय अश्वत्थामा उस द श्य को देखकर इतना दुखी हो गया कि उसने अपने धनुष को तोड़ दिया और आर्तनाद करता हुआ वन गमन कर गया। दुर्योधन की हार ने उसे भीतर तक झकझोर कर रख दिया। वह इस बात से दुखी था कि अपने मित्र दुर्योधन की दयनीय हार देखकर भी उसकी कोई मदद नहीं कर सका। वह वन में अन्तर्मथन में लीन होकर अपनी आन्तरिक दशा का मनन इस प्रकार कर रहा है-

"यह मेरा धनुष है 

धनुष अश्वत्थामा का 

जिसकी प्रत्यंचा खुद द्रोण ने चढ़ाई थी 

आज जब मैंने दुर्योधन को देखा 

निःवस्त्र, दीन 

आँखों मे आँसू भरे।"

अन्धायुग में अश्वत्थामा के चरित्र चित्रण में धर्मवीर भारती को सर्वाधिक सफलता मिली है। जीवन की यथार्थताओं के बीच से उसके व्यक्तित्व का विकास हुआ है। इसलिए वह अधिक वास्तविक प्रतीत होता है। भारती ने उसके व्यक्तित्व की विकृतियों और उनके मूल में निहित कारणों का निरूपण अत्यन्त तीखी और यथार्थ सापेक्ष शब्दावली में किया है।

अन्धायुग में अश्वत्थामा का चरित्र अत्यन्त सराहनीय है। अपनी अनेक अनेक क्रूरताओं और विकृतियों के बावजूद वह पाठकों की सहानुभूति पाता है। उसमें विकृतियों का विकास परिस्थितियों के अनुकूल हुआ। मूलतः अश्वत्थामा विकृत और क्रूर पात्र नहीं है। वह पित भक्त होने के साथ ही निर्भीक, स्वाभिमानी और एक शूरवीर योद्धा है। कई स्थानों पर हमें ऐसा देखने को मिला है कि अनेक कारणों से उसकी पित भक्ति और स्वामीभक्ति को ठेस लगती है, उसके आस्थावान् व सात्त्विक मन को गहरा धक्का लगता है। दो कारणों से वह क्रूर व हिंसक प्रव तियों को अपनाने को मजबूर हुआ। पहला कारण था उन युधिष्ठिर का अर्द्धसत्य, जिन्होंने धर्मराज होकर भी रणक्षेत्र में यह घोषणा कर दी कि 'अश्वत्थामा मारा गया, नर था या कुँजर' । इसी अर्द्धसत्य से प्रेरित होकर अश्वत्थामा के पिता गुरु द्रोणाचार्य ने युद्धभूमि में शस्त्र डाल दिए, क्योंकि उन्हें युधिष्ठिर के वचनों में अटूट आस्था थी। गुरू द्रोण को निहत्था देखते ही द्रुपद पुत्र ध ष्टधुम्न ने शास्त्रों से उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। अश्वत्थामा की मानसिक विकृति दूसरा प्रमुख कारण था गदा-युद्ध में भीम द्वारा नियमों का उल्लंघन करना । गदा युद्ध के नियम के अनुसार नाभि के नीचे प्रहार करना वर्जित है। किन्तु कृष्ण का इशारा पाकर भीम ने दुर्योधन की जाँघों पर प्रहार करके उसे हरा दिया। इन सभी कारणों ने उसमें प्रतिशोध व प्रतिहिंसा जैसी खतरनाक भावनाओं को जन्म दिया।

"अन्धायुग बैठ गया था मेरी नस-नस में 

अन्धी प्रतिहिंसा बन 

जिसके पागलपन में मैंने क्या किया 

मुझे ज्ञात नहीं। "

अश्वत्थामा पराजय की एक अन्धी गुफा में भटक जाता है उसके मन में इस हार ने एक ऐसी हीनभावना का विकास कर दिया। अब तो उसे अपना जीवन भी भार लगने लगा है। वह सोचता है कि ऐसे नपुंसक जीवन को जीने से अच्छा है कि आत्महत्या कर लूँ। किन्तु तभी उसे अपने नाम की पुकार सुनाई देती है और उसका उलझा तथा कुण्ठाग्रस्त मन एकाएक चौंक उठा और उसकी सोई हुई हिंसा जाग उठी। बदले की भावना से जाग्रत होते ही वह आत्महत्या का निर्णय छोड़कर जीवित रहने और इस प्रकार अपने पिता और दुर्योधन की हत्या में शामिल लोगों से बदला लेने का निर्णय कर लेता है। युधिष्ठिर ने अपने अर्द्धसत्य से उसे पशु समान घोषित कर दिया है। इसी के फलस्वरूप वह युधिष्ठिर की बात को सत्य चरितार्थ कर देने को प्रतिबद्ध है। अब अश्वत्थामा के जीवन का एकमात्र लक्ष्य हत्याएं करना है। वह कर्त्तव्य भावना को बिल्कुल भूल गया है, चाहे व्यक्ति तटस्थ और अवध्य ही क्यों न हो उसे तो केवल वध करना है। इसलिए जब संजय उधर से निकल रहे थे तो अश्वत्थामा ने उनका गला दबोच लिया और क्रूर अट्टहास किया। कृपाचार्य संजय को तटस्थ तथा अवध्य बताता है इस पर अश्वत्थामा कहता है-

'तटस्थ ? 

मातूल मैं योद्धा नहीं हूँ 

बर्बर पशु हूँ 

यह तटस्थ शब्द 

है मेरे लिये अर्थहीन ।'

युधिष्ठिर के अर्द्धसत्य ने उसकी समस्त मानवता का गला घोंट डाला है और उसमें विवेक, नीति या आचरण की मर्यादा शेष नही रह गई है । युधिष्ठिर के अर्धसत्य ने उसे इतना चिढ़ा दिया है कि वह अब तनिक भी झूठ सहन नहीं कर पाता है। अब तो वह केवल एक ऐसा पशु है जो बर्बर व घातक है। उसकी मनोदशा इतनी असन्तुलित हो गई है कि उचित-अनुचित को भूल चुका है। वह हमेशा यही सोचता है कि किस विधि से पाण्डवों का वध किया जाए। एक दिन वह बलराम श्रीकृष्ण वार्ता सुन लेता है। बलराम कहता है कि सभी कौरव एक दिन अधर्म से मारे जाएंगे। अब अश्वत्थामा निराश हो जाता है। वह निर्णय करता है कि वह भी अधर्म से ही पाण्डवों की हत्या छिपकर करेगा -

"वे भी निश्चय मारे जायेंगे अधर्म से । 

सोच लिया 

मातुल मैंने बिल्कुल सोच लिया, 

उनको मैं मारूँगा । "

निर्देश ग्रहण उनके चरित्र में मुख्य रूप से चरितार्थ हुआ है। जब वह रात्रि के घने अन्धकार में एक उलूक द्वारा निर्ममता पूर्वक सोये हुए कौए के वध की घटना देखकर आह्लाद से चिल्ला उठता है- "मातुल सत्य मिल गया बर्बर ।" अश्वत्थामा को इस घटना से उसके वध सम्बन्धी संकल्प की पुष्टि होती है, साथ ही उसे वध करने की प्रक्रिया और पद्धति का भी संकेत मिल जाता है। वह तुरन्त कृतवर्मा और कृपाचार्य को लेकर पाण्डव शिविर के द्वार पर पहुँचता है। वहाँ वह एक-एक करके ध ष्टधुम्न शतानीक, शिखण्डी आदि पाण्डव योद्धाओं का वध करता है। इतना होने पर भी जब वह दुर्योधन के निकट जाता है और कृपाचार्य दुर्योधन से कहते है कि इसने पाण्डवों का नाश कर दिया है, अश्वत्थामा कहता है कि अभी मेरी प्रतिज्ञा पूरी नहीं हुई है। अभी मैं आपका प्रतिशोध नहीं ले पाया हूँ, किन्तु यह वचन देता हूँ कि उसे भी पूरा करूंगा।

वह केवल पराक्रमी ही नहीं बल्कि उसके पास ब्रह्मास्त्र भी है यद्यपि वह इस नरसंहार के बाद तपोवन में चला गया था किन्तु अर्जुन के अग्निबाणों से आहत होकर उसे ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना पड़ा। इस विनाशकारी अस्त्र का प्रयोग न करने के लिए व्यास अश्वत्थामा से अनुरोध करते है। इस पर वह कहता है कि मेरे पिता ने मुझको या मेरे अस्त्रों को केवल आक्रमण की रीति सिखायी है पीछे हटना नहीं। इससे प्रतीत होता है कि वह पराक्रमी पिता का एक पराक्रमी पुत्र है ।

अश्वत्थामा के चरित्र में एक गुण यह है कि वह दूसरों के गुणों की सराहना करना नहीं भूलता। कृष्ण को वह अपना परम शत्रु मानता है किन्तु युयुत्सु की अन्धी प्रेतात्मा जब कृष्ण के मरण को कायर के मरण रूप में स्वीकार करती है, तो अश्वत्थामा अपनी गुणग्राहिता का परिचय इस प्रकार देता है-

" कायर मरण? 

मेरा था शत्रु वह 

लेकिन कहूँगा मैं, 

दिव्य शान्ति छायी थी 

उसके स्वर्ण-मस्तक पर ।"

निष्कर्षत कहा जा सकता है कि जीवन अनास्थावादी रहने के उपरान्त जब कृष्ण की म त्यु उसके घावों की पीड़ा को हर लेती है तो वह सहसा आस्थामय हो उठता है । आस्था की एक नयी अनुभूति उसे मिलती है और वह अनायास ही कह उठता है-

यह जो अनुभूति मिली है, 

क्या यह आस्था है?

अश्वत्थामा एक केन्द्रिय पात्र, इसके ईद-गिर्द सारी घटनाएँ और सारे प्रमुख तथा गौण पात्र घूमते नजर आते हैं। उसी के माध्यम से कवि अन्धत्व की ज्योति में और अनास्था में परिणिति दिखलाकर 'अन्धों के माध्यम से' ज्योति की कथा कहने में समर्थ हुआ है।

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