आम्रपाली का चरित्र चित्रण - Amrapali Ka Charitra Chitran: मागंधी को अजातशत्रु नाटक में आम्रपाली एवं श्यामा आदि नामों से भी अभिहित किया गया है। प्रस्तु
आम्रपाली का चरित्र चित्रण - Amrapali Ka Charitra Chitran
मागंधी को अजातशत्रु नाटक में आम्रपाली एवं श्यामा आदि नामों से भी अभिहित किया गया है। प्रस्तुत नाटक की आम्रपाली सबसे ज्यादा भ्रष्ट नारी पात्र है। गौतम बुद्ध द्वारा उसका प्रणय- निवेदन ठुकराए जाने की दशा में वह अनेक कुकृत्यों में संलग्न हो जाती है। वह जिस विरुद्धक को प्रेम करने लगती वही उसको धोखा देकर उसकी हत्या करने का प्रयास करता है। गौतम बुद्ध उसे बचा लेते हैं और अन्ततः वह बौद्ध धर्म में सम्मिलित हो जाती है। आम्रपाली के चरित्र की विशेषताएं इस प्रकार हैं-
प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त
मागंधी प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त दिखाई देती है। मागंधी गौतम से प्रणय निवेदन करती है, लेकिन वे एक सन्यासी जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं इसीलिए उसके इस निवेदन को ठुकरा देते हैं। वह इसका गलत अर्थ लगा लेती है और गौतम से बदला लेने की भावना से ग्रस्त हो जाती है।
"इस रूप का इतना अपमान! सो भी एक दरिद्र भिक्षु के हाथ। मुझसे ब्याह करना अस्वीकार किया। यहाँ मैं राजरानी हुई, फिर भी वह ज्वाला न गयी; यहाँ रूप का गौरव हुआ, तो धन के अभाव से दरिद्र कन्या होने के अपमान की यंत्रण में पिस रही हूँ। अच्छा, इसका भी प्रतिशोध लूँगी, अब से यही मेरा व्रत हुआ। उदयन राजा है, तो मैं भी अपने हृदय की रानी हूँ। दिखा दूंगी कि स्त्रियाँ क्या कर सकती हैं।
वह अपने पति उदयन के माध्यम से कूटनीति का आश्रय लेते हुए गौतम से अपने अपमान का प्रतिशोध लेना चाहती है। वह उदयन को बताती है कि गौतम पद्मावती के महल में प्रतिदिन आते हैं अतः उन दोनों के अवैध संबंध हैं। इस तीर से वह दो शिकार करना चाहती है- प्रथम तो राजा उदयन के मन को पद्मावती की ओर से विमुख कर अपनी ओर आकर्षित करना, दूसरे गौतम बुद्ध को बदनाम करना । वह गौतम को अपनी प्रतिहिंसा के संबंध में बताती है-
“गौतम! यह तुम्हारी तितिक्षा तुम्हें कहाँ ले जाएगी? यह तुमने कभी न विचारा कि सुन्दर स्त्रियाँ भी संसार में कुछ अपना अस्तित्व रखती हैं। अच्छा देखें तो कौन खड़ा रहता है?
सौंदर्य की प्रतिमूर्ति
मागंधी एक अत्यधिक सुन्दर स्त्री है। निर्धन परिवार में जन्म लेकर भी वह अपनी सुन्दरता के बल पर उद्यन की तीसरी रानी बन जाती है। वह अपने श्रगार-प्रसाधनों द्वारा उदयन के मन को मोहित कर अपनी ओर आकर्षित करना चाहती है तो उसकी दासी उससे कहती है-
"वाह स्वामिनी ! तुम्हें वेशभूषा की क्या आवश्यकता है? यह सहज सुन्दर रूप बनावटों से और भी बिगड़ जाएगा।"
महाराज के महल में आते ही वह अपनी सुन्दरता और वाक्पटुता का जाल महाराज पर डालने में सफल हो जाती है-
"उठो मागंधी उठो! मुझे अपने हाथों से अपना प्रेम-पूर्ण पात्र शीघ्र पिलाओ, फिर कोई बात होगी।"
उदयन रानी मागंधी के रूप-सौंदर्य पर मुग्ध हो जाता है और उससे कहता है-
"तो मागंधी कुछ गाओ। अब मुझे अपने मुखचंद्र को निर्निमेष देखने दो- एक अतीदिय जगत की नक्षत्र-मालिनी निशा को प्रकाशित करने वाले चरच्चंद्र की कल्पना करता हुआ मैं भावना की सीमा को लांघ जाऊँ और तुम्हारा सुरमित- निःश्वास मेरी कल्पना का आलिंगन करने लगे। ... वह रूप तुम्हारा बड़ा प्रभावशाली था, जिसने उदयन को तुम्हारे चरणों में लुटा दिया ...।
शैलेन्द्र नामक डाकू भी उसकी रूप-माधुरी पर मुग्ध हो जाता है और उसके सौंदर्य की प्रशंसा करते हुए कहता है कि श्यामा तुम्हारे सौंदर्य ने तो यह भी भूला दिया कि मैं एक डाकू था । मैं तुम्हारे रूपाकर्षण में इतना आकर्षित हो गया हूँ कि मुझे यह भी स्मरण नहीं कि मैं कौन था, मेरे जीवन का उद्देश्य क्या था। तुमने तो एक "हिंस्र पशु को पालतू बना लिया, आलसपूर्ण सौंदर्य की तष्णा मुझे किस लोक में ले जा रही है! तुम क्या हो सुंदरी ?"
लेकिन मागंधी के पास रूप का गौरव होने पर भी वह धन के अभाव में दरिद्र कन्या होने का अभिशाप झेल रही है। उसके सौंदर्य का अभिमान ही उसे अन्ततः अन्धकार के गर्त में धकेल देता है। नाटकांत में उसे अपने अभिमान के टूटने का आभास होते ही वह बौद्ध भिक्षुणी बन जाती है।
सौंदर्या डाह
सर्वप्रथम तो गौतम द्वारा मागंधी के प्रणव निवेदन को ठुकराना और दूसरे राजा उदयन की तीसरी रानी बनने पर सौतिया डाह उसे अशांत कर देती है। वह राजा उदयन के मन में गौतम, पद्मावती और वासवदत्ता संबंधी विरोधी भाव जागृत कर देती है-
“आप पृथ्वीनाथ हैं, आपको सब कुछ सोहता है; किंतु मैं तो अच्छी आँखों से इस गौतम को नहीं देखती। मगध के राज मंदिर में ही गुड़ियों का स्वांग अच्छा है; कौशांबी इस पाखंड से बची रहे, तो बड़ा उत्तम हो। स्त्रियों के मंदिर में उपदेश क्यों हो क्या उन्हें पवित्र छोड़कर किसी और धर्म की आवश्यकता है?"
यहाँ पर मागंधी ने पद्मावती के मायके राजमहल में मुंडियों की भीड़ लगी रहने की ओर संकेत करके यह कहना चाहा है कि पद्मावती तो विवाह से पूर्व भी गौतम से मिलती रहती थी। मागंधी द्वारा पतिव्रत धर्म का प्रश्न उठाने पर उदयन के मन में पद्मावती के प्रति शंका उत्पन्न हो जाती है और वह इसका लाभ उठाते हुए पद्मावती के महल से लाई गई राजमहल उदयन की वीणा में साँप रखवा देती है। जब महाराज उदयन उसे बजाने के लिए उठाते हैं तो उसमें से सर्प का बच्चा निकलता है। उसी क्षण मागंधी उद्यन के मन को पद्मावती के प्रति भड़काते हुए कहती है-
"पद्मावती! तू यहाँ तक आगे बढ़ चुकी है। जो मेरी शंका थी वह प्रत्यक्ष हुई।"
"क्षमा कीजिए नाथ! मैं प्रार्थना करती हूँ- अपने हृदय को इस हाला से तप्त कीजिए। अपराध क्षमा हो! मैं दरिद्रकन्या हूँ। मुझे आपके पाने पर और किसी की अभिलाषा नहीं है। वे आपको पा चुकी हैं। अब उन्हें और कुछ की बलवती आकांक्षा है, चाहे लोग उसे धर्म ही क्यों न कहें। मुझमें इतनी सामर्थ्य भी नहीं।"
किंतु बाद में उसके षडयंत्र का पता चलते ही वह अपने महल में आग लगा देती है और जलकर मरने का नाटक करते हुए वहाँ से भाग जाती है।
वारविलासिनी रूप
मागंधी का दूसरा रूप श्यामा का है, जिसे वह अपने महल में आग लगाकर वहाँ से भागने के बाद अपनाती है। वह काशी की विख्यात वारविलासिनी बन जाती है। रात के सघन वन में वह डाकू शैलेन्द्र से मिलने के लिए आती है। उसके निम्नलिखित संवाद से पता चलता है कि शैलेन्द्र पर वह किस हद तक न्यौछावर है-
"रात्रि चाहे कितनी भयानक हो, किंतु रमणी के ह्रदय से भयानक वह कदापि नहीं हो सकती। ... किंतु मैं शैलेंद्र से मिलने आयी हूँ- वह डाकू है तो क्या, मेरी वासना भी अत प्त है । मागंधी! चुप, वह नाम क्यों लेती है। मागंधी कोशांबी के महल में आग लगाकर जल मरी अब तो श्यामा, काशी की प्रसिद्ध वार- विलासिनी हूँ। बड़े-बड़े राजपुरुष और श्रेष्ठि इसी चरण को छूकर अपने को धन्य समझते हैं। .. राजरानी होकर और क्या मिलता था, केवल सापत्न्य ज्वाला की पीड़ा।"
विरुद्धक जब उससे इस निर्जन स्थान पर आने का कारण पूछता है तो वह निर्लज्जतापूर्वक कह देती है-
"शैलेन्द्र, क्या तुम्हें यह बताना होगा! मेरे हृदय में जो ज्वाला उठ रही है, उसे अब तुम्हारे अतिरिक्त कौन बुझायेगा? तुम स्नेह की परीक्षा चाहते थे- बोलो तुम कैसी परीक्षा चाहते हो ? ... शैलेंद्र, लो अपनी नुकीली कटार-इस तड़पते हुए कलेजे में भोंक दो।"
श्यामा अपना यह रूप केवल शारीरिक वासना को त प्त करने के लिए ही अपनाती है। कोई प्रेमिका इतनी जल्दी अपने पति के समक्ष अपने सुंदर शरीर का समर्पण नहीं करती जितना जल्दी वह शैलेंद्र के समक्ष करती है। अतः वह वेश्याओं जैसा जीवन व्यतीत करने लग जाती है।
सच्ची प्रेमिका
आलोच्य नाटक में श्यामा का सच्चा प्रेमी रूप भी हमारे समक्ष आता है । वह शैलेंद्र नामक डाकू से प्रेम करने लग जाती है, लेकिन शैलेन्द्र उसके प्रेम पर विश्वास नहीं करता। श्यामा अपने प्रेम का विश्वास दिलाते हुए उससे कहती है-
"तो क्या अभी तक तुम्हें मेरा विश्वास नहीं? क्या तुम मनुष्य नहीं हो, आंतरिक प्रेम की शीतलता ने तम्हें कभी स्पर्श नहीं किया? क्या मेरी प्रणय- मिक्षा असफल होगी? जीवन की कत्रिमता में दिन-रात प्रेम का बनिज करते-करते क्या प्राकतिक स्नेह का स्रोत एक बार ही सूख जाता है? क्या वार - विलासिनी प्रेम करना नहीं जानती? क्या कठोर और क्रूर कर्म करते-करते तुम्हारे ह्रदय में चेतनलोक की गुदगुदी और कोमलता के स्पंदन नाम को भी अवशिष्ट नहीं है? क्या तुम्हारा ह्रदय केवल एक मासपिंड है- जिसमें रक्त का संचार नहीं नहीं नहीं, ऐसा नहीं, प्रियतम (हाथ पकड़कर गाती है)।"
वह शैलेंद्र से इतना अधिक प्यार करती है कि उसे फाँसी से बचाने के लिए समुद्रदत्त को बलि का बकिरा बना देती है। वह समुद्रदत्त के साथ इस प्रकार की छलपूर्ण बातें करती है कि उसके षडयंत्र का आभास भी नहीं हो पाता "जाओ, बलिक के बकरे, जाओ! फिर न आना । मेरा शैलेन्द्र, मेरा प्यारा शैलेन्द्र ।"
जिस रात्रि को शैलेंद्र श्यामा की हत्या करने का प्रयास करता है तो श्यामा को इस बात का थोड़ा-सा आभास हो जाता है और वह विरुद्धक से पूछती है-
"मैंने अपने जीवन-भर में तुम्हीं को प्यार किया है। तुम मुझे धोखा तो नहीं दोगे?... नहीं नहीं, मैं आँख न खोलूँगी डर लगता है, तुम्हीं पर मेरा विश्वास है; यही रहो।
शैलेंद्र उसे सोया हुआ जानकर गला घोंटकर उसकी हत्या करने के प्रयास करता है लेकिन गौतम द्वारा वह बचा ली जाती है। नाटकांत में जब शैलेंद्र और मल्लिका के समक्ष श्यामा पुनः आती है तो शैलेंद्र आश्चर्यचकित रह जाता है। वहाँ वह शैलेंद्र से कहती है कि तुमने, “एक विश्वास करने वाली स्त्री पर अत्याचार किया है, उसकी हत्या की है।" वह शैलेंद्र को धिक्कारते हुए अपने सच्चे प्रेम के विषय में कहती है-
"हाँ शैलेंद्र, तुम्हारी नीचता का प्रत्यक्ष उदाहरण मैं अभी जीवित हूँ। निर्दय ! चांडाल के समान क्रूर कर्म तुमने किया। ओह, जिसके लिए मैंने अपना सब छोड़ दिया, अपने वैभव पर ठोकर लगा दी, उसका ऐसा आचरण ।"
उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि मागंधी ने अपने जीवन में पहली बार शैलेंद्र से सच्चा प्रेम किया है लेकिन उसी ने श्यामा को धोखा दे दिया । अन्ततः वह बौद्ध धर्म में दीक्षा ग्रहण लेती है।
परिवर्तनशील-ह्रदय
नाटक के अंत में श्यामा का हृदय परिवर्तन हो जाता है। उसे जीवन के प्रत्येक पग पर निराशा ही हाथ लगती है, उसकी यही निराशा उसे बौद्ध धर्म में सम्मिलित करवा देती है।
वह अपने विगत जीवन के विषय में सोचती हुई निम्नांकित भाव अभिव्यक्त करती है-
"वाह री नियति! कैसे-कैसे द श्य देखने में आये-कभी बैलों को चारा देते-देते हाथ नहीं थकते थे, कभी अपने हाथ से जल का पात्र तक उठाकर पीने से संकोच होता था, कभी शील का बोझ एक पैर भी महल के बाहर चलने में रोकता था और कभी निर्लज्ज गणिका का आमोद मनोनीत हुआ। इस बुद्धिमता का क्या ठिकाना है। वास्तविकत रूप के परिवर्तन की इच्छा मुझे इतनी विषमता में ले आयी। अपनी परिस्थिति को संयत न रखकर व्यर्थ महत्त्व का ढोंग मेरे ह्रदय ने किया, काल्पनिक सुख-लिप्सा ही में पड़ी उसी का परिणाम है। स्त्री-सुलभ एक स्निग्धता, सरलता की मात्रा कम हो जाने से जीवन में कैसे बनावटी भाव आ गये! जो अब केवल एक संकोचदायिनी स्म ति के रूप में अवशिष्ट हैं।
प्रसाद जी ने उसके चरित्र में इस उत्थान और पतन को दिखाकर अन्त में उसकी मनोकामना पूर्ण होते हुए दिखाई गई है। जिस गौतम ने उसे ठुकरा दिया था, वे स्वयं चलकर उसके पास आते हैं। गौतम श्यामा के विषय में कहता है कि "अब तुम अग्नि से तपे हुए हेम की तरह शुद्ध हो गयी हो।" उसकी सम्पूर्ण आकांक्षाएं या मनोकामनाओं का शमन हो जाता है। उसे गौतम का सानिध्य मिल ही जाना है लेकिन वासना के रूप में नहीं बल्कि विश्व कल्याण की ओर अग्रसर होने के लिए। वह विनती करके गौतम की शिष्या बन जाती है और अपने आम्र- कानन को भी संघ में समर्पित कर देती है। इस प्रकार उसका जीवन शुद्ध सोने के समान हो जाता है।
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