अजातशत्रु नाटक का प्रतिपाद्य / उद्देश्य: जयशंकर प्रसाद ने अपने ऐतिहासिक नाटक अजातशत्रु में इतिहास की घटनाओं के माध्यम से वर्तमान को सुधारने का प्रयास
अजातशत्रु नाटक का प्रतिपाद्य / उद्देश्य
जयशंकर प्रसाद ने अपने ऐतिहासिक नाटक अजातशत्रु में इतिहास की घटनाओं के माध्यम से वर्तमान को सुधारने का प्रयास किया है। इस लेख में अजातशत्रु नाटक के विभिन्न उद्देश्य जैसे राजनितिक, सांस्कृतिक और धार्मिक उद्देश्य का वर्णन किया गया है।
अतीत के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान को सुधारने की प्रेरणाः
प्रसाद जी द्वारा दिये गये उपर्युक्त वक्तव्य के आलोक में कहा जा सकता है कि 'अजातशत्रु’ नाटक में नाटककार ने मगध, कौशांबी और कौशल आदि तीनों राज्यों के आंतरिक झगड़ों को दिखाकर इस गृह कलह से दूर रहने का संदेश दिया है। मगध राज्य का कलह दो प्रकार का दिखाया गया है. सपत्नियों के मध्य चलने वाला ईर्ष्या-द्वेष तथा पुत्र द्वारा बलपूर्वक पिता के सिंहासन को प्राप्त करने का प्रयास।
प्रसाद जी ने वासवी के मुख से यह उद्देश्य भी दिलवा दिया है कि हमें आन्तरिक झगड़ों की अपेक्षा सुख-शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिये-
बच्चे बच्चों से खेलें, हो स्नेह बढ़ा उनके मन में,
कुल- लक्ष्मी हो मुदित, भरा हो मंगल उसके जीवन में।
बंधुवर्ग हो सम्मानित, हाँ सेवक सुखी, प्रणत अनुचर,
शांतिपूर्ण हो स्वामी का मन, तो स्ग्रहणीय न हो क्याँ घर ?
नाटककार ने मगध नरेश बिंबसार को राज्य-सिंहान के प्रति मोह में जकड़ा हुआ दिखाया है। प्रसाद जी ने बिंबसार की सिंहासन- लिप्सा प्रवृत्ति के माध्यम से वर्तमान राजनीतिकों के प्रति अमूल्य संदेश संप्रेषित किया है। वर्तमान राजनीति में भी इसी तरह ऊंचे से ऊंचा पद प्राप्त करने की होड़ लगी रहती है और जीवन के अन्तिम क्षणों में वह खाली हाथ ही ऊपर चला जाता है। अतः मानव को पद के प्रति आकर्षण न होकर सभी की भलाई करने की ही इच्छा मन में रहनी चाहिये ।
प्रसाद जी के जीवक के माध्यम से यह संदेश संप्रेषित किया है कि मानव को विकट या विषम परिस्थितियों से हार मानकर नहीं बैठना चाहिये। उन्होंने एक और मुख्य संदेश को पाठक एवं दर्शकों तक पहुंचाने का प्रयास किया है, वह है- युद्ध की भयानकता दिखकर उससे दूर रहने की प्रेरणा दी है। उनका यह संदेश आज के विध्वंसकारी युग में अत्यधिक प्रासंगिक है। अजातशत्रु के माध्यम से नाटककार ने कहा है-
"युद्ध में बड़ी भयानकता होती है, कितनी स्त्रियां विधवा हो जाती हैं। सैनिक जीवन का महत्वमय चित्र न जाने किस षडयंत्रकारी मस्तिष्क की भयानक कल्पना है। सभ्यता से मानव की जो पाशविक प्रवृत्ति दबी हुई रहती है उसी को उत्तेजना मिलती । युद्धस्थल का द श्य बड़ा भीषण होता है।"
इन संदेशों के अतिरिक्त भी प्रसाद जी प्रस्तुत नाटक में अनेकों संदेशों को पाठकों तक पहुंचाया है ताकि वे इन ऐतिहासिक तथ्यों से वर्तमान को उज्ज्वल बना सकें।
सांस्कृतिक उद्देश्य
प्रसाद ने 'संस्कृति' शब्द को अर्थ व्यापक रूप में ग्रहण किया है। वे संस्कति को सौंदर्य बोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा मानते हैं। इसका उपयोग मानव समाज में व्यक्तियों के सीमित मनोभावों को सदा प्रस्तुत एवं विकासोन्मुख बनाने के लिए होता है। अतः संस्कति का सामूहिक चेतना से, मानसिक शील और शिष्टाचारों एवं मनोभावों से मौलिक संबंध है।
जयशंकर प्रसाद भारतीय संस्क ति पर विदेशी शासकों द्वारा आरोपित पाश्चात्य संस्कति के कुप्रभावों से चिंतित थे। वस्तुतः भारत की विक तियों का लाभ उठाकर प्रसाद युग में भी विदेशी सत्ता भारत वर्ष को पद दलित कर रही थी । प्रसाद ने अपने नाटकों में इतिहास के प्रायः उन्हीं युगों का चयन किया जिसमें संस्क ति के सद् और असद् रूप में संघर्ष व्याप्त था।
'अजातशत्रु' के असद् पात्र छलना, मागंधी (श्यामा), देवदत्त, विरुद्धक अपने दुष्क त्यों के लिए खेद का अनुभव करते हैं। मल्लिका भारतीय संस्क ति के उदार भाव का आश्रय लेती हुई अपने पति के हत्यारे प्रसेनजित को सहज भाव से माफ कर देती है:
प्रसेनजित: मुझे धिक्कार दो मुझे शाप दो-मल्लिका! तुम्हारे सुखमंडल पर तो ईर्ष्या और प्रतिहिंसा का चिह्न भी नहीं है। जो तुम्हारी इच्छा हो कहो, उसे मैं पूर्ण करूंगा-
मल्लिका: (हाथ जोड़कर) कुछ नहीं महाराज! आज्ञा दीजिए कि आपके राज्य से निर्विघ्न चली जाऊं, किसी शांतिपूर्ण स्थान में रहूं।"
मल्लिका भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही विधवा होने पर पुनः विवाह नहीं करती। वह विरुद्धक के प्रेम को ठुकरा देती है। विरुद्धक उसे अपनी भावनाओं के माध्यम से पिघलाने का प्रयास करते हुए कहता है-
विरुद्धक: "क्यों नहीं मर जाने दिया? क्यों इस कलंकी जीवन को बचाया और अब ..
मल्लिका: तुम इसलिए नहीं बचाये गये कि फिर भी एक विरक्ता नारी पर बलात्कार और लंपटता का अभिनय करो। जीवन इसलिए मिला है कि पिछले कुकर्मों का प्रायश्चित करो अपने को सुधारो। "
इसी प्रकार मगध नरेश की बड़ी रानी भी भारतीय संस्क ति के अनुरूप ही पति द्वार राज्य त्याग कर जाते समय उसकी सेवा हेतु उसके साथ कुटिया में चली जाती है। वह सांसारिक सुखों का त्याग कर कानन में पति सेवा करके ही सम्पूर्ण सुखों का आनंद लेती है। इस प्रकार प्रसाद अपने सांस्क तिक उद्देश्य के प्रस्थापन में पूर्णतः सफल हुए हैं।
सिंहासन के प्रति आकर्षण
प्रसाद जी ने 'अजातशत्रु' नाटक में मगध नरेश बिंबसार और कौशल नरेश प्रसेनजित का वृद्धावस्था में भी सिंहासन के प्रति आकर्षण दिखाया है। दोनों ही अपने पुत्रों को ही सिंहासन नहीं सौंपना चाहते क्योंकि सिंहासन का नशा मानव को अंधा बना देता है, जो इनके साथ भी हुआ है। इसी सत्ता के आकर्षण में बिंबसार का पुत्र व अजातशत्रु और प्रसेनजित का पुत्र विरुद्धक पिता के प्रति विद्रोह करके सिंहासन पर कब्जा करना चाहते हैं। इस विद्रोह में अजातशत्रु के सफल होते ही विरुद्धक भी मन्तव्य को प्रकट कर देता है-
"मगध जैसा परिवर्तन कर चुका है, वही तो कौशल भी चाहता है। हम नहीं समझते कि बुड्ढों को क्या पड़ी है और उन्हें सिंहासन का कितना लोभ है! क्या यह पुरानी और नियंत्रण में बंधी हुई संसार के कीचड़ में निमज्जित राजतंत्र की पद्धति, नवीन उद्योग को असफल कर देगी? तिल भर भी जो अपने पुराने विचारों से हटना नहीं चाहता, उसे अवश्य नष्ट हो जाना चाहिये क्योंकि यह जगह प्रगतिशील है।"
विरुद्धक के माध्यम से कहे गये प्रसाद के ये विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस समय थे। उन्होंने राजनीति के इस विकृत रूप के द्वारा जनसामान्य में राजनीति के प्रति चेतना जागत करने का कार्य किया है ताकि वर्तमान राजनीति में सुधार हो सके।
गांधी के हृदय परिवर्तन के सिद्धांत का अनुसरण
आलोच्य नाटक में गांधी जी के हृदय परिवर्तन सिद्धांत का अनुसरण हुआ है। जब प्रसाद जी नाट्य-स जन में सलंग्न थे उस समय जन-सामान्य पर गांधी के व्यक्तित्व का प्रभाव भी बढ़ता ही जा रहा था, फिर प्रसाद जी इससे अछूते कैसे रह सकते थे। वस्तुतः गांधी जी के व्यक्तित्व का प्रभाव आलोच्य नाटक पर भी पड़ा है।
आलोच्य नाटक में गांधी जी के हृदय परिवर्तन के सिद्धांत को प्रसाद जी ने सपात्रों द्वारा कुटिल पात्रों के हृदय परिवर्तन के विभिन्न उदाहरणों द्वारा पुष्ट किया है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
(क) मल्लिका द्वारा प्रसेनजित का ह्रदय परिवर्तन
कौशल नरेश प्रसेनजित को अपने सेनापति बंधुल पर यह संदेह हो जाता है कि कहीं यह पराक्रमी व्यक्ति मेरे लिए खतरा न बन जाए। यही कारण था कि उन्होंने षडयंत्र रचकर बंधुल की हत्या करवा दी। मल्लिका अपने पति की हत्या के बावजूद भी कर्त्तव्य पथ से विचलित नहीं होती। वह हत्यारे को जानते हुए भी घायल प्रसेनजित की आदर भाव से सेवा-शुश्रूषा करती है, जिससे प्रभावित होकर वह पश्चातापवश कह उठता है-
प्रसेनजित: "देवि, तुम्हारे उपकारों का बोझ मुझे असह्य हो रहा है। तुम्हारी शीतलता ने इस जलते हुए लोहे पर विजय प्राप्त कर ली है। बार-बार क्षमा मांगने पर हृदय को संतोष नहीं होता। अब श्रावस्ती जाने की आज्ञा चाहता हूं।
मल्लिका: सम्राट ! क्या आपको मैंने बंदी कर रखा है? यह कैसा प्रश्न! बड़ी प्रसन्नता से आप जा सकते हैं।
प्रसेनजित: नहीं, देवि! इस दुराचारी के पैरों में तुम्हारे उपकारों की बेड़ी और हाथों क्षमा की हथकड़ी पड़ी है। जब तक तुम कोई आज्ञा देकर इसे मुक्त नहीं करोगी, यह जाने में असमर्थ है।
उपर्युक्त संवाद से पता चलता है कि मल्लिका निर्मल एवं पवित्र स्वभाव के कारण ही प्रसेनजित का वज्र के समान कठोर हृदय पुष्प के समान हो जाता है। यही कारण है कि वह मल्लिका के चरणों में भी गिर जाता है और अपने अधम आचरण के लिए क्षमा-याचना करता है।
(ख) मल्लिका द्वारा विरुद्धक का ह्रदय परिवर्तन
नाटककार ने मल्लिका के उदात्त चरित्र के संपर्क में आने पर विरुद्धक का भी हृदय परिवर्तन होते दिखाया है। विरुद्धक युद्ध में घायल हो जाता है, लेकिन मल्लिका अपने पति के हत्यारे विरुद्धक की भी सेवा करती है। विरुद्धक इस सेवा का अर्थ कुछ और ही लगा बैठता है और मल्लिका से प्रेम का इजहार कर बैठता है लेकिन मल्लिका उसे समझाती है। इतना कहने पर वह सब कुछ मान लेता है। जब विरुद्धक अपने पिता के पास जाने से डरता है तो मल्लिका उससे कहती है- " मैं तुम्हारी ओर से क्षमा माँगूंगी। मुझे विश्वास है कि महाराज मेरी बात मानेंगे।” अपने प्रति उस नारी की इतनी दया भाव देखकर विरुद्धक का हृदय वास्तव में परिवर्तित हो जाता है। वह मल्लिका से क्षमा-याचना करते हुए कहता है-
"उदारता की मूर्ति मैं किस तरह तुमसे, तुम्हारी कृपा से, अपने प्राण बचाऊं देवि! ऐसे भी जीव इसी संसार में हैं, तभी तो यह भ्रम-पूर्ण संसार ठहरा है ( पैरों पर गिरता है) देवि! अधम के अपराध क्षमा करो। "
(ग) वासवी द्वारा छलना का हृदय परिवर्तन
नाटक के प्रारंभ में ही छलना और वासवी के संवादों से पता चलता है कि छलना वासवी के प्रति अत्यधिक ईर्ष्या-भाव रखती है-
छलना: (क्रोध से वह सीधी और तुम सीधी ! आज से कभी कुणीक तुम्हारे पास न जाने पावेगा, और तुम भी यदि भलाई चाहो तो प्रलोभन न देना।" वासवी उसे समझाने का प्रयास करती है लेकिन फिर भी वह अपने कुकृत्यों से बाज नहीं आती। नाटक में एक स्थान पर वह अपने विषय में कहती है-
मैं बवंडर हूं इसीलिए जहां चाहती हूं, असंभावित रूप से चली जाती हूं और देखना चाहती हूं औकि इस प्रवाह में कितनी सामर्थ्य है- इसमें आवर्त उत्पन्न कर सकती हूं कि नहीं।"
युद्ध में अजातशत्रु को बंदी बनाया जाता है लेकिन वासवी उसे सकुशल लिवा लाती है। इस सूचना से एवं वासवी के मधुर वचनों से प्रभावित होकर छलना शान्त हो जाती है एवं उसके हृदय का परिवर्तन उसके वचनों से स्पष्टतः दिखाई जाता है. "... मैं तो सचमुच एक बवंडर हूं। बहिन वासवी क्या मेरा अपराध क्षमा कर देंगी?" यही नहीं बाद में वह बिंबसार के समक्ष भी अपनी दीनता प्रकट करके क्षमा-याचना करती है।
जन-सामान्य पर बौद्ध संस्क ति के प्रभाव का चित्रण
'अजातशत्रु' नाटक के अन्तर्गत बौद्ध संस्कति का प्रभाव एवं उसके विरोध को दर्शाया गया है। गौतम की शिक्षाओं से प्रभावित पात्र हैं- पद्मावती, बिंबसार, वासवी, श्यामा आदि और दूसरी ओर इसके विरोधकों में अजातशत्रु, छलना, देवदत्त और उसका शिष्य समुद्रदत्त पद्मावती अपने भाई को हिंसा के विरोध में तर्क देती हुई कहती है- “मानवी सष्टि करुणा के लिए है, यों तो क्रूरता के निदर्शन हिंस्र पशु-जगत में क्या कम है? दूसरी ओर अजातशत्रु की माँ छलना पद्मावती की अहिंसाप्रियता का विरोध करते हुए कहती है-
"पद्मा! तू क्या इसकी मंगल कामना करती है? इसे अहिंसा सिखाती है, जो भिक्षुओं की भद्दी सीख है? जो राजा होगा, जिसे शासन करना होगा, उसे भिखमंगों का पाठ नहीं पढ़ाया जाता। राजा का परम धर्म न्याय है, वह दंड के आधार पर है। क्या तुझे नहीं मालूम कि वह भी हिंसामूलक हैं?
नाटककार ने आलोच्य नाटक में विभिन्न पात्रों के माध्यम से बौद्ध-धर्म की विशेषताओं का उद्घाटन करवाया है। प्रसाद मल्लिका की सृष्टि बौद्ध धर्म की शिक्षाओं के अनुपालन के संबंध में ही है और मल्लिका को उन शिक्षाओं के अनुकूल आचरण करते हुए चित्रित किया है। वह बौद्ध भिक्षुओं को भोज के लिए आमंत्रित करती है, किन्तु उनके आगमन से पूर्व ही उसके पति की हत्या कर दी जाती है। यह अशुभ समाचार सुनने के बाद भी वह अतिथि-धर्म का अनुपालन करने से नहीं चूकती । इसी कारण सारिपुत्र मल्लिका की इन शब्दों में सराहना करता है-
“आनंद! क्या तुमने समझा कि मल्लिका दासी पर रुष्ट होगी? क्या तुमने अभी नहीं पहिचाना? स्वर्ण पात्र टूटने से इन्हें क्या क्षोभ होगा- स्वामी के मारे जाने का समाचार अभी हम लोगों के आने के थोड़ी ही देर पहले आया है। फिर, यह तो एक धातुपात्र था!- (मल्लिका से) - तुम्हारा धैर्य सराहनीय है। आनंद! तो इस मूर्तिमती धर्म-परायणता से कर्तव्य की शिक्षा लो!"
वह बौद्ध-धर्म के प्रति इतनी आस्थावान है कि अपने पति के हत्यारे विरुद्धक और प्रसेनजित की विकट परिस्थिति में सेवा सुश्रुषा करती है और बाद में दोनों के द्वारा क्षमा मांगने पर उन्हें माफ भी कर देती है।
निष्कर्ष
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि प्रसाद जी ने 'अजातशत्रु' नाटक में ऐसे भव्य संदेशों को सम्प्रेषित करने का प्रयास किया है जिसके द्वारा हम अपने जीवन में उत्कर्ष लाते हुए विश्व के संघर्षपूर्ण वातावरण से जूझने की क्षमता प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने ग ह-क्लह के दुष्परिणामों के माध्यम से पाठकों या दर्शकों उससे दूर रहने का संदेश दिया है। बौद्ध-धर्म के उपदेशों द्वारा मानव के अशान्त हृदय को शांत करने का प्रयास किया है। इसके अतिरिक्त प्रसाद जी ने उस समय की राजनीतिक अस्थिरता एवं सिंहासन के प्रति मोह को दिखाकर आधुनिक समाज के लिए एक प्रश्न खड़ा किया है जिससे मानसिक शांति के बल पर ही सुलझाया जा सकता है। उन्होंने गांधी जी के हृदय परिवर्तन सिद्धांत को भी बड़े ही सुन्दर ढंग से उद्घाटित किया है। इस प्रकार प्रसाद जी ने प्रस्तुत नाटक में कोई एक संदेश न देकर कई संदेशों को एक साथ संप्रेषित किया है। वस्तुतः यह एक सोद्देशय रचना है।
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