अजातशत्रु का चरित्र चित्रण - Ajatshatru Ka Charitra Chitran

अजातशत्रु का चरित्र चित्रण - Ajatshatru Ka Charitra Chitran: अजातशत्रु मगध नरेश बिंबसार का पुत्र और आलोच्य नाटक का नायक है। उसकी माँ का नाम छलना (चेल्

अजातशत्रु का चरित्र चित्रण - Ajatshatru Ka Charitra Chitran

अजातशत्रु मगध नरेश बिंबसार का पुत्र और आलोच्य नाटक का नायक है। उसकी माँ का नाम छलना (चेल्लना) है। वह देवदत्त के कहने पर अपने पिता को सिंहासन से हटाकर स्वयं शासन कार्य संभालता है। नाटक के अंत में उसमें सद्बुद्धि आ जाती है, वह अपनी विमाता वासवी और पिता बिंबसार से अपने अभद्र व्यवहार के लिए क्षमा याचना भी करता है। अजातशत्रु के चरित्र के कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य इस प्रकार हैं-

कठोर स्वभाव

नाटक के प्रारंभ में ही अजातशत्रु के कठोर स्वभाव के दर्शन हो जाते हैं। नाटक के प्रथम वाक्य में ही उसकी क्रूरता एवं उग्र स्वभाव की झलक दिखाई देती है- "क्यों रे लुब्धक! आज तू म गशावक नहीं लाया। मेरा चित्रक अब किससे खेलेगा?" प्रत्युत्तर में लुब्धक ने बताया कि मैंने एक म गशावक पकड़ा तो था लेकिन जब उसकी माँ ने मेरी तरफ करुणा भरी द ष्टि से देखा तो मैंने उसे छोड़ दिया। यह सुनकर अज्ञात उसे कोड़े मारने के लिए समुद्रदत्त से कोड़ा मंगवाने का आदेश देता है- "हाँ, तो फिर मैं तुम्हारी चमड़ी उधेड़ता हूँ । समुद्र! ला तो कोड़ा।” इस कथन में उसकी हिंसा की प्रवत्ति तो दिखाई देती है, साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि उसे अपनी आज्ञा का उल्लंघन पसंद नहीं है। इन दोनों मध्य जब पद्मावती हस्तक्षेप करती है तो वह कहता है- ‘’यह तुम्हारी बढ़ाबढ़ी मैं सहन नहीं कर सकता।" इतना ही नहीं वह अपनी विमाता से यहाँ तक कह देता है- "माँ, मैं तुम्हारे यहाँ नहीं आऊंगा, जब तक पद्मा घर न जाएगी।” क्योंकि- "यह पद्मा बार-बार मुझे अपदस्त किया चाहती है, और जिस बात को मैं कहता हूँ, उसे ही रोक देती है।" जगन्नाथ प्रसाद शर्मा के अनुसार- "इन उद्धरणों से उसमें अधिकार-दर्प, शासन की क्रूरता, पदसम्मान को लेकर उच्छं खलता और दुःशीलता प्रकट हो रही है। यही दुर्गुण उसके चरित्र - विकास की मूल भित्ति है ।"

शासक रूप

गौतम के कहने पर अजातशत्रु को युवराज बना दिया जाता है। सिंहासन पर बैठकर वह शासन कार्य को सुचारू रूप से चलाता है। समुद्र द्वारा उसे ज्ञात होता है कि काशी ने राज्य कर देने से मना कर दिया है तो वह एक कठोर शासक के समान व्यवहार करते हुए कहता है-

"क्या यह सच है समुद्र ! मैं यह क्या सुन रहा हूँ । प्रजा भी ऐसा कहने का साहस कर सकती है? चोंटी के पंख लगाकर बाज के साथ उड़ना चाहती है। 'राज-कर मैं न दूँगा'- यह बात जिस जिह्वा से निकली बात के साथ वह भी क्यों न निकाल ली गयी? काशी का दंडनायक- कौन मूर्ख है? तुमने उसी उसे बंदी क्यों नहीं किया?"

उसमें एक अच्छे शासक के गुण उस समय भी देखने को मिलते हैं जब वह अपनी बात को मंत्रि-परिषद में इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि सभी पार्षद उससे सहमति व्यक्त करते हैं-

''अजातशत्रु: तब-आप लोग मेरा साथ देने के लिए पूर्ण रूप से प्रस्तुत हैं? देश को अपमान से बचाना चाहते हैं?

कुछ सभ्य: अवश्य! राष्ट्र के कल्याण के लिए प्राणों तक का विसर्जन किया जा सकता है। 

अजातशत्रु : फिर आप लोग आज की इस मंत्रणा से सहमत हैं ?

सब : सबको स्वीकार है ।

यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि उसका यह शासक रूप उग्रता और आक्रोश से मंडित है, ये तत्व एक अच्छे शासक के विकास मार्ग में बाधक होते हैं।

कुशल वक्ता

देवदत्त के साथ अजातशत्रु महामान्य परिषद के सभ्यगण से जिस युक्तिपूर्ण ढंग से बातचीत करता है और उन्हें अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करता है उससे उसकी व्यवहार- पटुता का पूरा बोध हो जाता है। परिषद को वह जिस प्रकार उत्तेजित करके अपने पक्ष में लाता है और देवदत्त को परिषद का प्रधान बनाता है उससे उसमें सभा-चातुरी और मन की स्थिति को परखने की पूरी-पूरी शक्ति प्रकट होती है। उसके कुशल वक्ता होने का एक उद्धरण दष्टव्य है-

"आप लोग राष्ट्र के शुभचिंतक हैं। जब पिताजी ने यह प्रकांड बोझ मेरे सिर पर रख दिया और मैंने इसे ग्रहण किया, तब इसे भी मैंने किशोर-जीवन का एक कौतुक ही समझा था। किंतु बात वैसी नहीं थी। मान्य महोदयो, राष्ट्र में एक ऐसी गुप्त शक्ति का कार्य खुले हाथों चल रहा है जो इस शक्तिशाली मगध-सम्राट को उन्नत नहीं देखना चाहती। और मैंने इस बोझ को केवल आप लोगों की शुभेच्छा का सहारा पाकर लिया था आप लोग बताइये कि उस शक्ति का दमन आप लोगों को अभीष्ट है कि नहीं? या अपने राष्ट्र और सम्राट को आप लोग अपमानित कराना चाहते हैं?"

उसके इस प्रश्न के उत्तर में सभासद कह उठते हैं- "मगध का राष्ट्र सदैव गर्व से उन्नत रहेगा और विरोधी शक्तियाँ पददलित होंगी।" सभी सभासद अजात का साथ देने के लिए तत्पर हो जाते हैं और उसकी मंत्रणा को भी बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लेते हैं। यह सब कार्य उसकी वाक्-पटुता के कारण ही संभव हो सका ।

पद लिप्सा

अजातशत्रु की माँ छलना एवं देवदत्त के प्रयासों के परिणामस्वरूप उसे युवराज बना दिया जाता है। उसकी माँ अपने पति बिंबसार पर दबाव डालकर उन्हें अजात के युवराज्याभिषेक की घोषणा शीघ्रताशीघ्र करवा देती है। गौतम भी बिंबसार को यही परामर्श देते हैं कि अजातशत्रु को युवराज बना देना चाहिये लेकिन इससे पहले वे अजात से एक प्रश्न करते हैं- 'क्यों कुमार, तुम राजा का कार्य मंत्रि-परिषद की सहायता से चला सकोगे?' प्रश्न सुनकर अजातशत्रु जो उत्तर देता है उसमें उसकी शासन करने की लालसा स्पष्ट द ष्टिगोचर हो रही है- "क्यों नहीं, पिता जी यदि आज्ञा दें ।”

अजातशत्रु को विरुद्धक का यह पत्र मिलता है कि वह अपने पिता प्रसेनजित के विरुद्ध विद्रोह करके सिंहासन पर बैठना चाहता है। इसमें वह अजातशत्रु की सहायता चाहता है। अजात भी इस बात का समर्थन करते हुए कहता है-

"गुरूदेव, बड़ी अनुकूल घटना है। मगध जैसा परिवर्तन कर चुका है वही तो कोसल भी चाहता है। हम नहीं समझते कि बुड्ढों को क्या पड़ी है और उन्हें सिंहासन का कितना लोभ है। क्या यह पुरानी और नियंत्रण में बंधी हुई, संसार के कीचड़ में निमज्जित राजतंत्र की पद्धति नवीन उद्योग को असफल कर देगी? तिल-भर भी जो अपने पुराने विचारों से हटना नहीं चाहता उसे अवश्य नष्ट हो जाना चाहिये, क्योंकि यह जगत ही गतिशील है।"

उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि अजात में पद- लिप्सा की प्रवत्ति प्रमुख रूप से विद्यमान थी। उसकी यही पद-लिप्सा नाटक में अनेक घटनाओं को जन्म देती है, लेनिक अन्त में उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है।

प्रेमी रूप

युद्ध करते हुए अजातशत्रु को बन्दी बनाकर कोशल ले जाया जाता है। वहाँ प्रसेनजित की पुत्री बाजिरा को अपने प्रति आक ष्ट देखकर उसके हृदय में विचित्र-सी अनुभूति होती है और वह भी उसके प्रति आकृष्ट हो जाता है-

''इस श्यामा रजनी में चंद्रमा की सुकुमार किरण-सी तुम कौन हो-सुंदरि, कई दिन मैंने देखा, मुझे भ्रम हुआ कि यह स्वप्न है। किंतु नहीं, अब मुझे विश्वास हुआ है कि भगवान ने करुणा की मूर्ति मेरे लिए भेजी है और इस बंदी गह में भी उसकी कोई अप्रकट इच्छा कौशल कर रही है।"

बाजिरा उससे अपना परिचय छिपाना चाहती है और कहती है कि मेरा परिचय जानकर तुम संतुष्ट नहीं होंगे। यह सुनकर अजात अपने प्रेमपूर्ण उद्गारों को व्यक्त करता हुआ कहता है-

"तुम चाहे प्रसेनजित की ही कन्या क्यों न हो; किंतु मैं तुमसे असंतुष्ट न हूँगा; मेरी समस्त श्रद्धा अकारण तुम्हारे चरणों पर लोटने लगी है, सुंदरी ।"

बाजिरा का वास्तविक परिचय जानने पर भी वह उससे घृणा नहीं करता । बाजिरा के प्रेम की कोमल प्रवृत्ति उसकी हिंसा और प्रतिक्रिया को शांत करती है और उसकी उद्दण्डता एवं उच्छौंखलता का शमन भी कर देती है। अजात स्वयं कहता भी है- "सुनता था कि प्रेम द्रोह को पराजित करता है। आज विश्वास भी हो गया। तुम्हारे उदार प्रेम ने मेरे विद्रोही हृदय को विजित कर लिया। अब यदि कोशल- नरेश मुझे बंदीग ह से छोड़ दें तब भी मैं कैसे जा सकूँगा।” उसका क्रोध, घ णा, विद्रोह आदि बाजिरा का प्रेम पाकर समाप्त हो जाता है। वह सामाजिक नियमों का उल्लंघन भी नहीं करना चाहता। जब बाजिरा उसके कैदखाने का जंगला खोलकर उसे मुक्त कर देती है, तब भी वह कायर की भांति वहाँ से नहीं भागता और सामाजिक मर्यादा का ध्यान करते हुए बाजिरा से कहता है-

‘“यह तो नहीं हो सकता। इस प्रकार के प्रतिफल में तुम्हें अपने पिता से तिरस्कार और भर्त्सना ही मिलेगी। शुभे ! अब यह तुम्हारा चिर-बंदी मुक्त होने की चेष्टा भी न करेगा।"

निष्कर्ष रूप में डॉ० जगन्नाथ प्रसाद शर्मा के शब्दों में कहा जा सकता है- "प्रेम के क्षेत्र में वह सच्चे प्रेमी के रूप में दिखाई पड़ता है। बाजिरा से कारायण का प्रेम निवेदन सुनकर आत्मविश्वास और गर्व से भरे वीर की भाँति वह ललकार उठता है- " कारायण ! यदि तुम्हें अपने बाहुबल पर भरोसा है तो मैं तुमको द्वंद्व युद्ध के लिए आह्वान करता हूँ।” वस्तुतः बाजिरा के प्रेम के स्पर्श के कारण ही उसकी सोच नकारात्मक से सकारात्मक बन जाती है। 

मात एवं पित भक्त रूपः बाजिरा से विवाह के पश्चात् वह एक बच्चे का पिता बनता है। पिता बनने के उपरान्त ही उसे पिता और पुत्र के संबंधों की अनुभूति होती है। उसकी यही अनुभूति उसके पिता के पास ले जाकर अपनी अद्दण्डता के लिए क्षमा-याचना करने को प्रेरित करती है। वह अपने पिता के पैर पकड़ लेता और उसकी सेवा करना चाहता है। तब बिंबसार यह कहकर पैर छुड़ाने का प्रयास करता है कि, "मगधराज अजातशत्रु को सिंहासन की मर्यादा नहीं भंग करनी चाहिये।' प्रत्युत्तर में अजात अपने पिता से कहता है- "नहीं पिता, पुत्र का यही सिंहासन है। आपने सोने का झूठा सिंहान देकर मुझे इस सत्य-अधिकार से वंचित किया अबाध्य पुत्र को भी कौन क्षमा कर सकता है?"

वह अपनी माँ छलना द्वारा दी गई शिक्षा को अपूर्ण बताकर अपने पिता से क्षमा माँगने में सफल हो जाता है-

"नहीं पिता, मुझे भ्रम हो गया था। मुझे अच्छी शिक्षा नहीं मिली थी। मिला था तो केवल जंगलीपन की स्वतंत्रता का अभिमान-अपने को विश्व भर से स्वतंत्र जीव समझने का झूठा - आत्सम्मान ।"

इतना ही नहीं वह अपनी विमाता वासवी के प्रति भी उस समय श्रद्धानत हो जाता है जब वह उसे जेल से मुक्त कराती है। वह कह उठता है-

"कौन! विमाता? नहीं, तुम मेरी माँ! इतनी ठंडी गोद तो मेरी माँ की भी नहीं है। आज मैंने जननी की शीतलता का अनुभव किया। मैंने तुम्हारा बड़ा अपमान किया है, माँ! क्या तुम मुझे क्षमा करोगी?"

वासवी उसे लेकर मगध के सिंहासन पर बिठाने के लिए आतुर है इसलिए उसे शीघ्रातिशीघ्र मगध भेजना चाहती है तो अजात कहता है-

"नहीं माँ, अब कुछ दिन उस विषैली वायु से अलग रहने दो। तुम्हारी शीतल छाया का विश्राम मुझे अभी नहीं छोड़ा जाएगा।"

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्रसाद जी ने आलोच्य नाटक में अजातशत्रु के जीवन के एक क्रमिक-विकास को प्रस्तुत किया है। उसके चरित्र की गतिशीलता उसे असद् प्रव त्तियों से सद् प्रव त्तियों की ओर अग्रसर करती है। बाजिरा का प्रेम उसके क्रोध, घणा, प्रतिहिंसा, उच्छं खलता आदि नकारात्मक प्रव त्तियों का शमन कर देता है। इस प्रकार अजातशत्रु नामक पात्र नाटक के अन्त में दर्शकों एवं पाठकों के हृदय में स्थान बना लेता है और उनकी सहानुभूति का पात्र भी बन जाता है।

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