आधे-अधूरे नाटक में सावित्री का चरित्र चित्रण: सावित्री 'आधे-अधूरे' नाटक की प्रमुख एवं सशक्त पात्रा है। वह नाटक में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक विद्यमान
आधे-अधूरे नाटक में सावित्री का चरित्र चित्रण
सावित्री का चरित्र चित्रण: सावित्री 'आधे-अधूरे' नाटक की प्रमुख एवं सशक्त पात्रा है। वह नाटक में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक विद्यमान रहती है तथा नाटक की सभी घटनाओं के मूल में वहीं है। नाटक के अन्य सभी पात्र सावित्री से सम्बन्धित है तथा फलभोक्त्री भी वहीं सिद्ध होती है। अतः निर्विवाद रूप से सावित्री नाटक की नायिका है। उसके बहिरंग व्यक्तित्व का चित्रांकन नाटककार ने इस प्रकार से किया हैं- "उम्र चालीस को छूती। चेहरे पर यौवन की चमक और चाह फिर भी शेष ब्लाऊज और साड़ी साधारण होते हुए भी सुरुचिपूर्ण। दूसरी साड़ी विशेष अवसर की। "
सावित्री इस नाटक की सबसे अधिक विवादास्पद एवं सशक्त पात्रा है। सावित्री का दोहरा व्यक्तित्व है, एक घर के भीतर और दूसरा बाहर। घर में उसे अपने पति व बच्चों की देखभाल, चिन्ता करनी है। बाहर उसका अपने बॉस से संबंध बनाए रखना तथा अपने बेटे की नौकरी के लिए पर-पुरुषों से संबंध रखना। लेकिन यह न उसके बेटे को पसंद है न पति को । आज का जमाना सिफारिश और पैसों का है। सावित्री की त्रासदी ही यह है कि घर में दो पुरुषों के होने पर भी उसे ही बाहर के आदमियों से निपटना पड़ता है। सावित्री के निमंत्रण पर घर आए मेहमानों का बेटा मजाक उड़ाता है तो पति घर से गायब रहता है। वह तंग आकर एक दिन बेटे से कह देती है-'अगर उसे यह पसन्द नहीं तो वह आज से उसके लिए कोशिश करना बन्द कर देगी!' अगर बाप-बेटे को सावित्री का यह रूप पसन्द नहीं तो वे उसकी नौकरी छुड़वाकर स्वयं जा सकते हैं। यह काम ये करना नहीं चाहते और उसे ताने देने से भी नहीं चूकते। 'आधे-अधूरे' में नारी की इस मनोव्यथा का यथार्थ चित्रण हुआ है। आखिर अपने परिवार के लिए इतना खपकर सावित्री को क्या मिला? वही अपमान ताने व्यंग्य आदि। उसकी आदतें उन्हें पसन्द नहीं थी पर वे फिर भी चुप थे क्योंकि उसी से घर का खर्चा चल रहा था।
कहा जाता है कि गृहलक्ष्मी से ही घर स्वर्ग बनता है। अगर वह उच्छृंखल हुई तो अच्छा खासा घर भी नरक बन जाता है। आधुनिक विचारों वाली शिक्षित एवं नौकरीपेशा नारी भी अपने घर को स्वर्ग बना सकती है, यदि वह खोखली एवं अर्थहीन महत्वाकांक्षा में न पड़कर अपने व्यक्तित्व को संयमित बनाए रखे। अगर वह झूठे दिखावे, अर्थहीन स्वाभिमान, कोरी चपलता से दिग्भ्रमित हो जाए, तो भले ही वह तितली बन जाएगी पर गृहिणी कदापि नहीं बन सकती। 'आधे-अधूरे' नाटक में सावित्री एक ऐसी गृहिणी है जिसका भरा-पूरा परिवार तो है पर वह उस परिवार को घर नहीं बना पाती। वह दीन-हीन और आत्मसमर्पण वाली नारी न होकर अपने अहं और स्वाभिमान को सुरक्षित रखने वाली स्वावलम्बी स्त्री है। सारे परिवार के बोझ को ढोती वह अपनी मर्जी अपनी इच्छाओं को सब पर लादने की क्षमता रखती है। क्योंकि वह परिवार का आर्थिक केन्द्र बिन्दुं है— अन्य सभी उस पर आश्रित हैं। आर्थिक रूप से परिवार की पोषिका होने के कारण वह अपनी उच्छखंल महत्त्वाकांक्षाओं को जबर्दस्ती परिवार पर थोपती और पूरे परिवार के विघटन का कारण बनती है। अतः नाटक में सावित्री की प्रमुख रूप से निम्नलिखित चारित्रिक विशेषताएँ उभर कर सामने आती है-
कर्त्तव्य बोध युक्त नारी
नाटक में महेन्द्रनाथ तो कर्त्तव्यपथ से विचलित है । परन्तु सावित्री नाटक में कर्त्तव्यरायण नारी के रूप में दृष्टिगोचर होती है। सथवत्री कठोर परिश्रम करके अपने बेकार - बेगार पति महेन्द्रनाथ और अपने बाल-बच्चों का भरण-पोषण करती है। नाटक के प्रारम्भ में ही वह लदी - थकीहारी घर में प्रवेश करती है। नाटककार का कहना है ---- स्त्री (सावित्री) कई - कुछ सँभाले बाहर आती है। कई कुछ में कुछ घर का है, कुछ दफ्तर का है, कुछ अपना । चेहरे पर दिन-भर के काम की थकान है और इतनी चीजों के साथ चलकर आने की उलझन । आकर सामान कुर्सी पर रखती हुई पूरे कमरे पर एक नजर डाल लेती है।" इस प्रकार एक ओर तो सावित्री परिवार के लिए अर्थार्जन करती है तो दूसरी तरफ बाल-बच्चों की जिम्मेदारी दायित्व को भी अपने दुर्बल कन्धों पर दृढ़ता से सँभाले हुए है। अपने पुत्र अशोक, पुत्री बिन्नी - किन्नी के विकास - सुख-सुविधा के लिए भी चिन्तित है। इस घर का कुछ बन जाए, इसलिए भी वह भरसक प्रयास करती है। इसी हेतु वह अपने बॉस सिंघानियाँ को घर पर आमन्त्रित करती है। और अपने बच्चों को भविष्य एवं परिवार की आर्थिक दशा सुधारने के लिए अपने चरित्र को भी पतन की गर्त में गिरा देती है।
डॉ सुन्दर लाल कथरिया का कहना है- "सावित्री उस आधुनिक नारी का प्रतिनिधित्व करती है जिसका पति महेन्द्रनाथ निठल्ला है । फलतः वह परिवार के संचालन का बोझ ढोती है। उसे अपने बेटे की नौकरी और बेटी के सुख की चिन्ता है। परिवार की आर्थिक अव्यवस्था और उससे उत्पन्न तनाव से वह दिनोंदिन कटु होती जाती है। परिवार के लिए दिन-रात जुटे रहकर भी वह उपेक्षा और तिरस्कार पाती है।"
महत्त्वाकांक्षी आधुनिक नारी
'आधे-अधूरे' नाटक में सावित्री एक महत्त्वाकांक्षी नारी के रूप में दृष्टिगोचर होती है। महेन्द्रनाथ सावित्री की महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने में सर्वथा असमर्थ है। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु वह अन्य पुरुषों का अवलम्बन पाकर घर में विषैले वातावरण से मुक्त होने का प्रयत्न करती है। किन्तु उसके जीवन में आने वाले सभी पुरुष - जुनेजा, शिवजी, जगमोहन और मनोज-अपनी किसी-न-किसी दुर्बलता से अपूर्ण सिद्ध होते हैं। आगे का मार्ग बन्द पाकर जब वह अतीत में लौटकर एक नई जिन्दगी अपनाने के संकल्प स जाती है, तो वहाँ भी जगमाहन बच्चों के भविष्य की आड़ में अपना दामन छुड़ा लेता है। वह पुनः ढही हुए संकल्पों की रेत में लौट आती है। कितनी त्रासदायक बन जाती है जिन्दगी, जब व्यक्ति वाहकर अपनी परिस्थितियों से मुक्त न हो पाए, जब अतीत और भविष्य वर्तमान के अंधेरे में खो चुके हो। अपूर्णता के इस संसार में पूर्णता की अपेक्षा करना अपने साथ दूसरों के जीवन में विष घोलने के समान है। नाटक के अन्त में आने वाला जुनेजा सावित्री के जीवन की इसी वास्तविकता पर प्रकाश डालता है कि चारों पुरुषों में से कोई भी पुरुष उसका पति होता तो भी उसकी निराशा का स्वरूप यही होता। जुनेजा के निम्न संवाद सावित्री के अवचेतन का प्रतिबिम्ब है - "क्योंकि तुम्हारे यहाँ जीने का मतलब रहा है ... कितना कुछ एक साथ ओढ़कर जीना !" नाटककार का कहना है- "जब भी बुलाया है, आदमी को नहीं, उसकी तनख्वाह को नाम एवं रुतबे को बुलाया है। प्रारम्भ में महेन्द्रनाथ एक समृद्ध व्यापारी था, इसी हेतु सावित्री उससे विवाह करती है। महेन्द्रनाथ स्पष्ट कहता है- उन दिनों इस घर का खर्च बहुत अधिक था तथा सावित्री को खुश करने के लिए वह चार सौ रुपए महीना के किराए पर बड़ी-बड़ी कोठियाँ लेता है, किस्तों पर फ्रीज खरीदता है और आना-जाना भी टैक्सियों में होता तथा बच्चों को कॉन्वेंट से महंगे स्कूलों में पढ़ाया जाता है।" परन्तु अब सावित्री अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु विपथगामिनी बन जाती है।
अतः कहा जा सकता है कि सावित्री उस आधुनिक नारी का प्रतिरूप है जो अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को पूर्ति हेतु पर-पुरुषों से अनैतिक सम्बन्ध बनाकर भारतीय नारी के आदर्श एवं एक गरिमा को ठेस पहुंचाती है तथा अपने परिवार के विघटन का कारण बनती है।
भौतिक सुख-सुविधा भोगिनी नारी
सावित्री वास्तव में एक सुविधा भोगिनी नारी है। वह केवल अपनी सुविधाओं पर ध्यान देती है। वह यह भी नहीं सोचती कि उसकी भोगवादिता परिवार पर धुन लगा रही है। वह कामुक और सुविधाजीवी नारियों का ही प्रतिनिधित्व करती है। अपना पति उसे आधा-अधूरा लगता है, क्यों? इसलिए कि वह उसमें अपना एक मादा, अपनी एक शख्सियत नहीं देखती। वह आदमी में कई चीजें एक साथ देखना चाहती है-पद भी व्यक्तित्व भी, वैभव भी और एक पूरा आदमी भी । सावित्री के साथ विवाह के समय महेन्द्रनाथ एक सफल एवं समृद्धशाली व्यापारी था और सावित्री की इच्छाएँ असीम, अनन्त और अपार थी लेकिन महेन्द्रनाथ की नासमझी और ऐय्याशी प्रवृत्ति न सार धन को लुटा दिया, जिसके कारण सावित्री की इच्छाओं पर तुषारापात हो गया। सावित्री को कठोर परिश्रम करके अब पूरे परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता है और अपने सुखों के प्रति ललक के कारण ही वह जगमोहन के साथ घर छोड़ने के लिए तत्पर है।
सुप्रसिद्ध रंगशिल्पी ओम शिवपुरी का कहना है- "महेन्द्रनाथ सावित्री से बहुत प्रेम करता है। सावित्री भी उसे चाहती रही होगी, लेकिन ब्याह के बाद महेन्द्रनाथ को बहुत निकट से जानने पर उसे, उससे वितृष्णा होने लगी, क्योंकि जीवन में सावित्री की अपेक्षाएँ बहुमुखी और अनन्त है।" नाटक में पुरुष चार अर्थात जुनेजा स्त्री की उच्च महत्त्वाकांक्षाओं और मृग तृष्णा और उसक अन्तर्विरोध को प्रकट करते हुए कहता है-
पुरुष चार (जुनेजा) : असल बात इतनी है कि महेन्द्र की जगह इनमें से कोई भी आदमी होता तुम्हारी जिंदगी में, तो साल-दो साल बाद, तुम यही महसूस करतीं कि तुमने. गलत आदमी से शादी कर ली है। उसकी जिंदगी में भी ऐसे ही कोई महेन्द्र कोई जुनेजा, कोई शिवजीत या कोई जगमोहन होता जिसकी वजह से तुम यही सब सोचती यही सब महसूस करतीं। क्योंकि तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है- कितना कुछ एक साथ होकर, कितना कुछ एक साथ पाकर और कितना कुछ एक साथ ओढकर जीना। वह उतना कुछ कभी तुम्हें किसी एक जगह न मिल पाता इसलिए जिस किसी के साथ भी जिन्दगी शुरू करतीं, तुम हमेशा इतनी ही खाली इतनी ही बेचैन बनी रहतीं।'
दाम्पत्य जीवन से असन्तुष्ट नारी
सावित्री अपने दाम्पत्य जीवन से असन्तुष्ट है। वह अपने पति महेन्द्रनाथ के निठल्लेपन, पराश्रित एवं दब्बूपन के कारण उसे पति रूप में पाकर सन्तुष्ट नहीं है। विवाह से पूर्व महेन्द्रनाथ एक सफल और धनाढ्य व्यापारी था लेकिन उसने विवाह के बाद सारा पैसा ऐय्याशी में उड़ा दिया जिसके कारण परिवार का जीवन में सुखों के प्रति गहरी ललक थी और उसकी इच्छाएँ भी असीम और अनन्त थी। लेकिन अब उसकी इच्छाएँ पूरी नहीं हो सकती थी, वह महेन्द्रनाथ को आधा-अधूरा मानकर उसके लिए कभी भी पत्नी प्रेम का समर्पण नहीं कर पाई। इतना ही नहीं क्षुब्ध हालत में तो वह अपने आप को महेन्द्र की पत्नी मानने से भी इनकार करती है-
"मत कहिए मुझे महेन्द्र की पत्नी। महेन्द्र भी एक आदमी है, जिसके अपना घर-वार है, पत्नी है, यह बात महेन्द्र ने व्याह क्या किया, आप लोगों की नजर में आप का ही कुछ आपसे छीन लिया। महेन्द्र अब पहले की तरह हँसता नहीं। महेन्द्र अब दोस्तों में बैठकर पहले की तरह खिलता नहीं। महेन्द्र अब वह पहले वाला महेन्द्र नहीं रह गया। और महेन्द्र ने जी जान से कोशिश कि वह वही बना रहे किसी तरह कोई यह न कह सके जिससे कि वह पहले वाला महेन्द्र का नहीं गया और इसके लिए महेन्द्र घर के अन्दर रात-दिन छटपटाता है। दीवारों से पटकता है। बच्चों को पीटता है। बीवी के घुटने तोड़ता है।"
इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि सावित्री दाम्पत्य जीवन से कितनी असन्तुष्ट थी। विवाह के दो वर्ष के भीतर ही महेन्द्रनाथ सावित्री को एक पूरे आदमी का आधा-चौथाई से भी कम, एक लिजलिजा और चिपचिपा आदमी लगने लगता है और पूरे आदमी की तलाश में उसके सामने सबसे पहले आता है - महेन्द्र का मित्र जुनेजा, जो पैसे और दबदबे वाला एक काइयाँ व्यक्ति है । जुनेजा के साथ कोई मार्ग न मिल पाने के कारण उसकी दृष्टि क्रमशः शिवजीत, जगमोहन, मनोज एवं सिंघानिया जैसे पर-पुरुषों पर पड़ती है। उनके साथ अपने बाकी जीवन को बिताने की असफल कोशिश करती है।
विपथगामिनी एवं अहंकारी महिला
सावित्री इस नाटक में एक ऐसी कामुक और विपथगामी आधुनिक महिला का प्रतिनिधित्व करती है जो अपनी सुविधाओं के व्यामोह में यहाँ से वहाँ भटकती है किन्तु उसे हर पुरुष एक जैसा मिला जिसने उसे निचोड़ा, रस लिया और फिर निचुड़ी स्थिति मे या तो उसकी लड़की को रात के अँधेरे में भगा ले गया या फिर उसे सहानुभूति के दो-चार शब्द कहकर दुत्कार दिया ।
अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और काल्पनिक पूरे पन की तलाश में वह भारतीय नारी के समस्त आदर्शों को सूली पर पर चढ़ाकर पाँच-पाँच पुरुषों से अनैतिक सम्बन्ध बनाती है। ऊँचे पद तनख्वाह और व्यक्तित्व के लिए अपने पतिव्रत रूप को त्याग कर विपथगामिनी बनती है। तथा अपने परिवार की घुटन टूटन का कारण बनती है।
इसके साथ-साथ वह स्वावलम्बी एवं कमाऊ महिला है और उसका पति निठल्ला, बेकार, बेगार है जिसके कारण वह अहं भाव से युक्त हो गई है। वह चाहती है कि इस घर में जो कुछ भी हो वह उसी की इच्छा के अनुरूप हो। वह इतनी अहंकारी महिला है कि अपने पति महेन्द्रनाथ को भी पति स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। वह स्पष्ट कहती है- 'मत कहिए मुझे महेन्द्र की पत्नी।' वह पग-पग पर महेन्द्र के गृहपतित्व को चुनौती देती है-
पुरुष एक: पर बात तो मेरे ही घर की हो रही है।
स्त्री: तुम्हारा घर । हुँह ।
पुरुष एक: तो मेरा घर नहीं है यह? कह दो नहीं है।
स्त्री: सचमुच तुम अपना घर समझते इसे तो।"
वह अपने पति महेन्द्रनाथ के मैले पाजामे को इस प्रकार उठाती है जैसे मरा हुआ जानवर। वह महेन्द्रनाथ को पाजामें, चाय की जूठी प्यालियों आदि के लिए भी डाँटती है।
वह इतनी जिद्दी हठीली एवं अहंभाव से युक्त महिला है कि पुरुष चार (जुनेजा) के याद दिलाने पर उसके समक्ष अपनी हठी का प्रदर्शन करते हुए महेन्द्रनाथ को अपने ही पास रख लेने को कहती है। वह पुरुषों की इस साजिश के प्रति क्षुब्ध हो उठती है और कहती है- "आप जाइए और कोशिश करके उसे हमेशा के लिए अपने पास रखिए। इस घर में आना और रहना सचमुच हित में नहीं है उसके। और मुझे भी... मुझे भी अपने पास उस मोहरे की बिल्कुल - बिल्कुल जरूरत नहीं है जो न खुद चलता है और न किसी और को चलने देता है।"
यन्त्रणाओं की शिकार
इस नाटक में सावित्री का इतना फ्लर्ट ( आवारा) होना एक मनोज्ञानिक कारण भी रखता है। यह ठीक है कि वह अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की मृग तृष्णा में वह पद, सम्मान, वैभव और पूरे आदमी की तलाश में भटकी है। परन्तु महेन्द्रनाथ के व्यवहार, उसकी परमुखपेक्षिता, दब्बू प्रकृति, निठल्लापन आदि की प्रतिक्रिया में वह मानसिक आघातों से पीड़ित हुई है तथा काल्पनिक पूरेपन की तलाश में आवारा बनी हैं।
जीवन के हर मोड़ पर अपने पति की असफलताओं से क्षुब्ध सावित्री का नारीत्व विद्रोह करने लगता है। वह अपने पति की रूप में पूरे आदमी की तलाश की एक यथोचित यंत्रणा झेलती है। महेन्द्रनाथ के व्यवहार को नाटककार ने कई स्थलों पर स्पष्ट रूप से चित्रित किया है। यथा - "फलाँ से तुम ठीक से बात क्यों नहीं करतीं? तुम अपने को पढ़ी-लिखी कहती हो? ...तुम्हें तो लोगों के बीच उनके बैठने की भी तमीज नहीं है... और वही महेन्द्र जो दोस्तों के बीच दब्बू सा बना हल्के-हल्के मुस्कराता है, घर आकर एक दरिंदा बन जाता है।... बोल बोल, बोल, चलेगी उस तरह कि नहीं जैसे की समझता हूँ मानोगी वह सब नहीं जो मैं कहता हूँ।" पर सावित्री फिर भी वैसे नहीं चलती। वह सब कि नहीं मानती।
बड़ी लड़की बिन्नी के शब्दों में महेन्द्रनाथ का राक्षस रूप ऊभर कर सामने आता है। "आप शायद सोच भी नहीं सकते कि क्या-क्या होता रहा है यहाँ । डैडी का चीखते हुए मभा के कपड़े तार-तार कर देना... उनके मुँह पर पट्टी बांधकर उन्हें बंद कमरे में पीटना... खींचते हुए गुसलखाने के कमोड पर ले जाकर...( सिहरकर ) मैं तो बयान भी नहीं कर सकती कि कितने-कितने भयानक दृश्य देखे हैं इस घर में मैंने।"
इस प्रकार सावित्री के चरित्र में आवारापन वर्तमान आर्थिक विसंगतियों, बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं और पति के निठल्लेपन और पारिवारिक यन्त्रणाओं के कारण हैं।
निष्कर्षत
कहा जा सकता है कि सावित्री पूरे नाटक की केन्द्रीय पात्रा है। नाटक की समस्त कथावस्तु उसके चारों तरफ घूमती है। नाटक की फलभोगिन भी वही है। अतः हम उसे नाटक की नायिका कह सकते हैं। परिस्थितियों और महत्वाकांक्षाओं ने 'उसे भटकाया है। भटकाया ही नहीं छला भी है। कुल मिलाकर सावित्री का चरित्र वर्तमान समाज में विवशतावश नौकरी की बोझ से दबी मध्यवर्गीय नारी का प्रतिनिधित्व करता है। पति की आर्थिक असफलता घर के बोझ को पूर्णतः उस पर लाद देती है। घर की टूटती-बिखरती जिन्दगी से ऊब कर पिछले बीस-बाईस सालों से अपनी कल्पना के एक पूरे आदमी की तलाश में इधर-उधर भागती रही है। अपने मादे और अपनी शख्सियत वाले पूरे आदमी की तलाश में वह आधे अधूरे आदमी टकरा - टकरा कर लौटती है और अपनी खीझ में चीखती-चिल्लाती, तार-तार होती है और उसी अधूरे पुरुष महेन्द्रनाथ के साथ जीने के लिए मजबूर होती है।
सावित्री को 'आधे-अधूरे' नाटक में उस महत्त्वाकांक्षिणी आधुनिक नारी के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो पति की असमर्थता अथवा आर्थिक वैषम्य को उसका अधूरापन मानकर स्वयं अपने अधूरेपन को अन्य पुरुषों से सम्बन्ध को पूर्ण हो का पूर्ण प्रयास करती है और यह पर-पुरुष आकर्षण उसके व्यक्तित्व को ही तोड़कर रख देता है।
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