योद्धा कहानी की मूल संवेदना - संजीव एक संवेदनशील कहानीकार है इसलिए उनकी कहानियों में भी संवेदना का पुट झलकता है। संजीव का झुकाव समाज के उस तबके की ओर
योद्धा कहानी की मूल संवेदना - Yoddha Kahani ki Mool Samvedna
योद्धा कहानी की मूल संवेदना - संजीव एक संवेदनशील कहानीकार है इसलिए उनकी कहानियों में भी संवेदना का पुट झलकता है। संजीव का झुकाव समाज के उस तबके की ओर ज्यादा रहा है जो सदियों से उपदेशीय जीवन जीता रहा है, अपनी पहचान को स्थापित करने के लिए तरह-तरह के संघर्ष करता रहा है । ब्राह्मण समाज से छोटी जातियों का संघर्ष चलता ही रहा है। 'संजीव' योद्धा कहानी के माध्यम से स्पष्ट करते हैं कि समाज में अभी भी छोटी जाति के लोग ब्राह्मण समाज के दुर्व्यवहार को सहन कर रहे हैं और इसके साथ ही लेखक ने चिन्ता जताई है कि अब छोटी जातियों में भी ब्राह्मणत्व का बीज पनपने लगा है। इस कहानी में लेखक का उद्देश्य लोहार जाति के मार्मिक पक्षों को उभारना रहा है।
योद्धा कहानी ग्रामीण परिवेश को केन्द्र में रखकर लिखी गई है। गांव का नाम दुबौली है। इस गांव में ब्राह्मण और ठाकुरों के घर के साथ दो लोहार जाति के घर भी हैं । इनमें आपस में जातिगत संकीर्णता के चलते मतभेद होता रहता है। अक्सर ठाकुर एवं ब्राह्मण जाति के लोग लोहार परिवार को हीन दृष्टि से देखते हैं या उन्हें अपने से छोटे होने का अहसास करवाते हैं। कभी ब्राह्मण या ठाकुर समुदाय ने अपने से नीची जाति को मानव समझा ही नहीं और न ही उनके अस्तित्व को कोई महत्त्व दिया । स्वर्ण जाति ने अपने से छोटी जाति को दोयम दर्जे का ही समझा । प्रस्तुत कहानी में भी ब्राह्मणों से निचली जाति की पीड़ा को अभिव्यक्त किया है । जातिगत भेदभाव का अहसास धीरे-धीरे करवाया जाता है। कहानी का पात्र छोटकू इस बात को स्पष्ट करता है कि जब छोटे थे तो ब्राह्मण क्या होता है या लोहार क्या होता है ? इसका भेद नहीं मालूम था बल्कि यही समझा जाता है कि सब एक से होते हैं, लेकिन मानव के बीच भेद का स्पष्टीकरण तो धीरे-धीरे ही हो पाता है छोटकू के शब्दों में "चेहरे-मोहरे, रहन-सहन, सुख-दुःख सब एक जैसे हमारे हारे गाढ़े वे दौड़े चले आते। उनके हारे गाढ़े हम । आईने की खरोंचे तो बाद में उभरनी शुरू हुई - निहायत छोटी-छोटी बातें, मसलन खाट से उतार दिया जाना, पंगत से डाँटकर भगा दिया जाना, या ऐसी ही चीजें जो अब पूरी तरह याद नहीं ।" छोटकू की इस बात से स्पष्ट होता है स्वर्णों द्वारा जातिगत भेदभाव का दुर्व्यवहार सहन करना बच्चा बचपन में ही आरम्भ कर देता है । स्वर्ण छोटी जातियों को बचपन से ही लहूलुहान करना शुरू कर देते हैं ।
भारतीय समाज में व्यक्ति का आंकलन उसकी जाति के आधार पर किया जाता है । यदि वह ब्राह्मण या ठाकुर हुआ तो वह श्रेष्ठ है और यदि वह लोहार या अन्य पिछड़ी जाति हुई तो वह व्यक्ति निम्न है । जाति के आधार पर व्यक्ति को सम्बोधित किया जाता है । व्यक्ति ऊँची जाति का हुआ तो उसे ससम्मान बुलाया जाता है और यदि व्यक्ति अन्य निचली जाति का हुआ तो उसे गाली देकर बुलाया जाता है । लेखक इस कहानी के माध्यम से भारतीय समाज की कुत्सित मानसिकता का खुलासा करता नजर आता है "गाँव के बिसेसर दुबे भी लंगडे थे और दद्दा भी। एक के बुलाये जाने पर दूसरे के कान खड़े जो जाते । सो पहले बिसेसर दुबे ही लंगड़ाते हुए सामने आए, "का राजा..?" अवधू सिंह ने उनकी पैलगी की और स्पष्ट किया, "आपको नहीं महाराज हम तो 'लंगड़ा लोहार' को ढूँढ रहे हैं । हमे तो आज तक पता नहीं चला कि 'बभनौटी' है कि 'लोहरोटी' । बसने के लिए और जगह नहीं की गांव में...? “दघ' ! ई दुने से कैसे बोल रहे थे और तुमसे कैसे ?" कहने का तात्पर्य यह है कि बड़ी जाति के लोगों ने अपने से छोटी जाति को घृणित समझा । बड़ी जाति ने पूंजी पर अपना अधिकार समझा, शिक्षा पर अपना अधि ाकार समझा, ऊँचे काम पर अपना अधिकार समझा जहाँ तक कि छोटी जाति को अपने हिसाब से चलाना भी अपना अधिकार ही समझा । सम्पूर्ण कहानी में दोनों जातियाँ विपरीत चित्रों का निर्माण करती है । कहानी में एक और ब्राह्मणों के दम्भ, क्रूरता, शोषण और राजनीति का नग्न यथार्थ चित्रण किया है तो वहीं लोहारों के प्रति उपेक्षित व्यवहार और उन्हें ब्राह्मणों द्वारा नीचा दिखाने और बनाने की प्रकृति को उद्घाटित किया है । दलित ददा को ब्राह्मणों और ठाकुरों के दुर्व्यवहार के प्रति रोष तो है लेकिन वह प्रतिरोध नहीं कर पाता है इसलिए वह अपना क्रोध अपने ही बेटे पर निकालता है।
लेखक ने स्पष्ट किया है कि जातिगत भेदभाव ने लोगों की सोचने की शक्ति को खत्म कर दिया है और कहीं न कहीं संवेदनहीन ज्यादा बना दिया है । जिस समाज में लोग जाति के आधार पर बंटे होगें वहां इन्सानियत कहाँ जिन्दा होगी। वहां जाति की भांति प्रेम भी बंटा होगा, वहां मुस्कराहटें भी बंटी होगी, वहां संवेदनाएं भी बंटी होंगी। 21वीं सदी की बात की जाए तो यह कहानी स्पष्ट करती है कि समाज में अभी भी जातीयता की परम्परा खत्म नहीं हुई है बल्कि और ज्यादा जटिल होती जा रही है । विजातीय विवाह करने पर फेरु दुबे के साथ अपनी बिरादरी के लोग दुर्व्यवहार करने लगते हैं और उसपर धर्म को भ्रष्ट करने का आरोप लगाते हैं। अपनी जाति को छोड़ किसी और जाति-धर्म की लड़की से विवाह करना ब्राह्मणवादी संस्कृति में धर्म को भ्रष्ट करना है, जोकि नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए केरू दुबे को विजातिय विवाह करने का फलागम यह मिलता है कि उसकी भाभी दुबाइन उसे ब्राह्मण से कुत्ते के रूप में सम्बोधित करती है - "तू बामन नहीं कुत्ता है, कुत्ता ! एह हाड़ लाकर चिचोर रहा है । कुत्ते को घर में घुसाकर मैं अपना धर्म भ्रष्ट क्यों करूँ ? हमारे घर में क्या बिटिया - बिटार नहीं है ?" फेरु दुबे का यह क्रियाकलाप गाँव भर में चर्चा का विषय बन जाता है, इस सन्दर्भ से इस बात की पुष्टि होती है कि जाति भेद सिर्फ स्वर्ण और अवर्ण के बीच तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह अपने-अपने वर्ग में जटिल रुप में देखने को मिलती है। फेरु दुबे स्वंय ब्राह्मण जाति का है लेकिन जब वह एक नटिन से शादी कर लेता है तो वह अपनी ही जाति के लोगों के लिए अछूत बन जाता - "मैंने देखा, जहां फेरु काका खड़े थे, उस जगह को गोबर से लिपवाया गया और तुलसी कुश–गंगाजल छिड़कर बाकायदा मन्त्र से शुद्ध किया गया ।" फेरू काका का किस्सा यही तक समाप्त ही नहीं होता बल्कि जब वह अपने भाई बसेसर दुबे से अपने हिस्से की ज़मीन मांगने पर पंचायत भी उसके विपक्ष में फैसला सुनाती है – “तुमने बामन रहते हुए भुँई माँगी होती तो जरूर मिलती । लेकिन अब जबकि तुम बामन रहे नहीं, भष्ट हो गए हो, तो बाभन की जमीन पर तुम्हारा कोई हक नहीं बनता ।" इससे स्पष्ट होता है कि स्थान को गोबर से लिपवाना, तुलसी -कुश, गंगाजल छिड़कर, मंत्र पढ़कर शुद्ध करना आदि कुसंस्कारों के माध्यम से ब्राह्मणवादी सोच संवेदनहीन हृदय की पोल खोलती है । स्वर्ण जाति का अमानवीय चेहरा तो तब उभरता है जब वह फेरू काका और उसकी पत्नी को मौत के घाट उतार दिया जाता है। स्वर्णता की आड़ में जीने वाले ऊँची जाति के लोग संवेदनहीन हो चुके हैं उन्हें व्यक्ति की मौत से कोई फर्क नहीं पड़ता है, बल्कि उनकी जाति के साथ कोई खिलवाड़ नहीं करना चाहिए, बल्कि विजातीय विवाह पर धर्म भ्रष्ट नहीं करना चाहिए अन्यथा विजातिय कहानी में एक पहलू स्वर्णों का अवर्णों के प्रति घृणित व्यवहार उभरता है और दूसरा पहलू यह उभरकर आता है कि अब अवर्ण भी पूँजी के धरातल पर मजबूत होने लगे हैं और अब उनमें भी स्वर्ण जाति की भांति मानसिकता पनपने लगी है । कहानी में काका का बेटा शंकर एक ऐसे पात्र के रूप में उभरता है जो केवल हिंसा में विश्वास करता है और उसने गाँव में अपना इतना रौब जमा लिया है कि उससे गांव के सभी स्वर्ण जातियां डरने लगी हैं। इस बात का दुःख बडकू को अन्दर तक उदास कर डालता है वह कहता है कि - "लेकिन वे सब मामूली चोटें थीं, जिस चोट ने मुझे सबसे ज़्यादा तकलीफ दी, जानते हो, वह क्या है ?
'क्या' हमारे अनचाहे ही खुद बभनपने में समाते जाना। हमीं नहीं ज्यादातर लोगों का युगों के इस बभनपने के सारे लोगों के तो बभनपन नहीं आना चाहिए था न ।"
इससे स्पष्ट होता है कि दलित समाज जिस मानसिकता के खिलाफ संघर्ष करता आ रहा था, अमानवीयता को झेलता आ रहा था, हिंसा का शिकार होता आ रहा था, वह ही थोड़ी सी सम्पन्नता आ जाने से संवेदहीन बनने लगा है। वह अपने विगत संघर्षों को भूलकर उसी ब्राह्मणवादी संस्कृति को अपना रहा है। जिसमें उसे सुधार करना चाहिए। सम्पन्नता आ जाने से अवर्णों का व्यवहार भी परिवर्तित होता जा रहा है वह भी संवेदनहीनता की ओर रूख पकडता आ रहा प्रेम की भाषा भूलता नज़र आ रहा है।
अन्ततः कहा जा सकता है कि जीवन की सम्पूर्णता में यह कहानी दलितों के आत्म सम्मान, स्वाभिमान और विकास की प्रक्रिया में जातिगत विद्वेष से ऊपर उठकर मानव होने की कहानी है।
विवाह की परिणति वही होगी जो फेरू काका और उसकी पत्नी के साथ हुआ - "फेरू काका और उनकी मेहरारू को घाटी दी गयी थी उन्हीं की गोजी से। ... गौरमिण्टी अस्पताल में चीर-फाड के बाद भी फेरू काका और उसकी मेहरारू की लाशें सड़ती, बदबू देती रहीं। लेकिन गाँव से कोई भी लेने न आया, बभनौटी से भी नहीं ? मेहतरों ने वहीं फूँक दी लाशें।
ब्राह्मणवादी सोच ने जाति, धर्म एवं संस्कृति को ही नहीं बल्कि न्याय व्यवस्था और पुलिस व्यवस्था को भी पूरी तरह प्रभावित किया है, वह भी स्वर्णों के इशारें पर ही नाचती है इसका प्रमाण कहानी में तब मिलता है जब फेरू काका को बचाने के लिए माई और काका मदद करते हैं- "फिर काका और माई को गरियाते मारते-पीटते ले जाने लगी पुलिस। एक-एक दृश्य आतंक का दाग बनकर आज भी उभरा पड़ा है । जेहन में थप्पडों और डण्डों की मार में गिरते-पड़ते रोते-बिलबिलाते काका और माई... उधर काका और माई का छुड़ाने में हमारे नाममात्र के खेत और माई, आजी के नाममात्र के गहने भी बिक गए।
21वीं सदी में विकास के नाम जितनी भी बातें कह ले लेकिन अब भी गाँव के स्वर्ण अपनी झूठी आन-बान और संकीर्ण सोच से उभर नहीं पाए हैं और न ही एक-दूसरे के प्रति मानवीयता का भाव पैदा हुआ है । वह अभी भी किसी छोटे को उभरता हुआ नहीं देख सकते हैं । बडकू जब यह घोषणा करता है कि इस बार रामफेर-रामचेत सम्मान “गिरजा रविदास' को दिया जाएगा क्योंकि उसने दुलारी जैसी बेसहारा को सहारा दिया । तब स्वर्णों का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ जाता है । बड़कू अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि दर्शकों में से कई लोग विरोध में उठकर खड़े हो गए। "अरे देखते क्या हो, पैसे के बूते इस धरम की सभा में अधरम फैला रहा है सार! खींच कर मारों दस जूते, दिमाग सही हो जाए ।"
अवर्णों को आगे बढ़ता देख सवर्णों द्वारा हिंसात्मक व्यवहार उनकी संवेदहीनता एवं संकुचित मानसिकता का द्योतक है।
COMMENTS