यही सच है कहानी की मूल संवेदना: 'यही सच है' कहानी प्रेम के क्षण की सघन अनुभूति को सच्चाई के साथ प्रकट करती है। स्त्री-पुरुष के परस्पर संबंधों को संस्क
यही सच है कहानी की मूल संवेदना
यही सच है कहानी की मूल संवेदना: 'यही सच है' कहानी प्रेम के क्षण की सघन अनुभूति को सच्चाई के साथ प्रकट करती है। स्त्री-पुरुष के परस्पर संबंधों को संस्कारगत मान्यताओं से अलग करके, प्रणय त्रिकोण को लेखिका ने नये संदर्भ से उभारा है। कहानी के संपूर्ण कथ्य के मध्य में दीपा है। दीपा घर से अलग कानपुर में रहकर शोध कार्य करती है। दीपा के लिए संजय ही सबकुछ है। संजय अक्सर दीपा के लिए रजनीगंधा के फूल लाया करता है। दीपा को कलकत्ता इन्टरव्यू के लिए जाना है। उसे इन्टरव्यू से डर लगता है। वह कहती है कि मैं कलकत्ता में किसी को नहीं पहचानती तब संजय कहता है- 'निशीथ' को भी नहीं पहचानती, क्रोधित दीपा घर आ जाती है। उसे लगता है कि संजय मे मन में निशीथ को लेकर वहम है। मगर दीपा के लिये निशीथ से किया गया प्यार कच्ची उम्र का आवेश मात्र है, महज पागलपन । "अठारह वर्ष की आयु में किया हुआ प्यार भी कोई प्यार होता है भला ! निरा बचपन होता है, महज पागलपन ! उसमें आवेश रहता है पर स्थायित्व नहीं, गति रहती है पर गहराई नहीं। जिस वेग से वह आरंभ होता है, ज़रा-सा झटका लगने पर उसी वेग से टूट भी जाता है।"
दीपा इन्टरव्यू देने कलकत्ता जाती है तब अचानक ही उसकी मुलाकात निशीथ से हो जाती है। वो उससे बात करना नहीं चाहती फिर भी करती है। निशीथ के प्रेम को बचपना मानने वाली दीपा देखती है कि निशीथ का रंग स्याह पड़ गया है और वह दुबला भी हो गया है । न चाहते हुए भी सारा अतीत उसकी आँखों के सामने घूमने लगता है। उसका मन एकाएक कटु हो जाता है, उसे लगता है कि "यही तो है वह व्यक्ति जिसने मुझे अपमानित करके सारी दुनिया के सामने छोड़ दिया था, महज उपहास का पात्र बनाकर।” दीपा नहीं चाहती है कि निशीथ उसके साथ रहे। वह अपने आपसे ही प्रश्न करती हुई कहती है कि "ओह, क्यों नहीं मैंने उसे पहचानने से इनकार कर दिया? जब वह मेज के पास आकर खड़ा हुआ, तो क्यों नहीं मैंने कह दिया कि माफ कीजिए, मैं आपको पहचानती नहीं ? ज़रा उसका खिसियाना तो देखती ! वह कल भी आएगा। मुझे उसे साफ़-साफ़ मना कर देना चाहिए था कि मैं उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहती, मैं उससे नफरत करती हूँ ......"
मगर दीपा ऐसा कुछ भी नहीं कर पाती। निशीथ दीपा की मदद करने के लिए काफी दौड़-धूप करता है। सारा दिन दोनों साथ रहते हैं। दूसरे दिन भी निशीथ नौ के बदले पौने नौ बजे आ जाता है । यहाँ दीपा को लगता है कि संजय होता तो ग्यारह से पहले कभी नहीं आता । दीपा के मन के किसी भीतरी कोने में अनायास ही निशीथ और संजय को लेकर तुलना चलती है। दीपा जब नीले रंग की साड़ी पहनकर नौकरी तय होने की खुशी में निशीथ को पार्टी देने के लिए जाती है, तब निशीथ कहता है कि "इस साड़ी में तुम बहुत सुन्दर लग रही हो।" तब दीपा को लगता है कि संजय ने कभी मेरे कपड़ों पर ध्यान नहीं दिया। दीपा के मन में एक बार फिर निशीथ और संजय को लेकर तुलना चलती है। नारी - मन अतीत और वर्तमान में डूबने उतरने लगता है।
दीपा कानपुर आने के लिए निकलती है तब निशीथ का इंतजार करती है। उसे लगता है कि जरूर आयेगा और निशीथ आ ही जाता है। आने के बाद निशीथ दीपा से पूछता है कि जगह मिल गयी, पानी लिया, लेकिन दीपा का मन निशीथ से कुछ अन्य सुनने को व्याकुल था, मन ही मन वह बोल उठती है कि निशीथ जो कहना है वो कहो ना। गाड़ी चलने लगती है निशीथ दीपा से कहता है कि पहुँचकर खबर देना। लेकिन दीपा कुछ बोल नहीं पाती और उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। गाड़ी के साथ चलता निशीथ एकाएक ही दीपा के हाथ पर अपना हाथ रख देता है। दीपा का रोम-रोम सिहर उठता है, उसका मन बोल उठता है- “मैं सब समझ गई, निशीथ, सब समझ गई ! जो कुछ तुम इन चार दिनों में नहीं कह पाए, वह तुम्हारे इस क्षणिक स्पर्श ने कह दिया। विश्वास करो, यदि तुम मेरे हो तो मैं भी तुम्हारी हूँ, केवल तुम्हारी, एकमात्र तुम्हारी ।” गाड़ी के गति पकड़ने से निशीथ दीपा के हाथ को जरा सा दबाकर छोड़ देता है। हल्का सा दबाव दीपा के भीतरी तारों को झनझना देता है। उसे लगता है कि "यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, बाकी सब झूठ है, अपने भूलने का, भरमाने का, छलने का असफल प्रयास है।" कानपुर पहुँचकर भी दीपा निशीथ के बारे में सोचती रहती है। निशीथ के सामने उसे अपने प्रथम प्रेम को गहराई की अनुभूति होती है। वैसे भी प्रथम प्रेम को कभी भुलाया नहीं जा सकता। यह प्रेम हृदय के किसी भीतरी कोने में दबा रहता है। आज इस बात का साक्षात्कार दीपा को होता है, उसे लगता है कि "प्रथम प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है, बाद में किया हुआ प्रेम तो अपने को भूलने का भरमाने का प्रयास मात्र होता है।"
दीपा निशीथ को लिखे पत्र में उन सारी भावनाओं को व्यक्त कर देती है, जिसे वह कह नहीं पायी थी और स्वयं भी निशीथ के पत्र की व्यग्रता से प्रतीक्षा करती है। तब निशीथ का पत्र आता है उसे नियुक्ति की बधाई देता हुआ। लेकिन ऐसी कोई भी बात वह पत्र में नहीं लिखता, जिसकी कामना दीपा करती है। अंत में 'शेष फिर' शब्द में दीपा प्रेम का संकेत खोजती है। परंतु उसी क्षण अचानक आये संजय के रजनीगंधा फूलों की सुंगध, संजय के अधरों के स्पर्श में निशीथ का प्रेम 'शेषफिर' के शेष की भाँति शेष (समाप्त) हो जाता है। दीपा को लगता है कि- "यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, वह सब झूठ था, मिथ्या था भ्रम था. .." दीपा के लिए प्रेम भावनाओं एवं संवेदनाओं से स्थायित्व का नाम नहीं, बल्कि आनंद भोगने का क्षण है। दीपा संजय और निशीथ दोनों से प्रेम करती है, लेकिन सबसे ज्यादा वह क्षण को प्रेम करती है। जो क्षण उसे सुख देता है वही उसके जीवन का परम - सत्य बन जाता है। यहाँ आधुनिक नारी की संवेदना है।
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