राख कहानी की मूल संवेदना - राख कहानी के माध्यम से कहानीकार ने स्त्री के प्रति भारतीय समाज की कुत्सित मानसिकता को उभारा है। 'औरत' को औरत होने पर कमजोर
राख कहानी की मूल संवेदना - Rakh Kahani ki Mool Samvedna
राख कहानी की मूल संवेदना - राख कहानी के माध्यम से कहानीकार ने स्त्री के प्रति भारतीय समाज की कुत्सित मानसिकता को उभारा है। 'औरत' को औरत होने पर कमजोर समझा जाता है और दूसरा यदि वह छोटी जाति की हो, तो शोषण की प्रक्रिया और बढ़ जाती है। भारतीय समाज में विवाह के उपरान्त वही स्त्री सम्मान पाती है जो सन्तान पैदा करती है। विवाह के उपरान्त यदि कोई महिला बच्चा पैदा नहीं कर पाती है तो समाज के लिए वह अपशगुन का केन्द्र बन जाती है। उस स्त्री की पहचान ही उसका बांझपन बन जाती है। भारतीय समाज में स्त्रियों को वैसे भी अपनी पहचान स्थापित करने में वर्षों लग गए, लेकिन अभी भी वह अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है। 'राख' कहानी में साफ-सफाई का काम करने वाली जोखन बहू के जीवन की दारुन कथा का चित्रण है। जोखन बहू को तो छोटी जात का होने के कारण उच्च वर्ग के दुर्व्यवहार को झेलना पड़ता है और साथ ही विवाह के पांच साल बाद भी बच्चा न पैदा होने पर बांझपन का tag लेकर जीना पड़ता है। वह महतो के खटाल में साफ-सफाई का काम करती थी। वह बेहतरीन कलाकार थी। वह मूज की नक्काशीदार बेहतरीन चीजें बना लेने के साथ, ऊपले सजाने में उसकी किसी से भी तुलना नहीं की जा सकती थी। गांव के लोगों द्वारा जब उसे अपसगुनि नाम से जाना जाने लगा तो इस काले साये में उसके सारे गुण लुप्त होते गए। परिवार और समाज दोनो के ही लिए वह मनहूस बन चुकी थी। धीरे-धीरे उससे बच्चे भी छीने जाना आरम्भ हो चुके थे। शुभ मुहूतों पर लोग जोखन बहू से डरने लगे थे। कहने का तात्पर्य यह है कि दिन-व-दिन उसकी दुनिया छोटी पड़ती जा रही थी और वह धीरे-धीरे अपने ही घूंघट में सिमटती जा रही थी। मवेशी डाक्टर ने जोखन बहू का परिचय इस प्रकार दिया है - "महतो - महताइन की आहट पाते ही आड़ में हो लेती। सुकुलजी को प्रणाम करना होता तो दूर से अंचरा (आंचल) से गोड़ धरती। मैं सामने पड़ जाता तो दायाँ हाथ उठाकर सलाम करती। उसे बोलते मैंने कभी सुना नहीं। या तो वह निःशब्द मुस्कराती या फिर निःशब्द रोती।”
प्रस्तुत कहानी में कहानीकार की स्त्री के प्रति गहरी संवेदनशीलता उभरी है। कहानी में मवेशी डाक्टर की जोखन बहू के प्रति संवेदना रहती है इसलिए वह बार- बार उसकी तरफ खींचा चला आता है।
सुबह-सुबह महताइन अपनी सर्वमंगला देवी के मन्दिर पूजा करने जाती है लेकिन वह देखती है कि दबे पावों जोखन बहू मन्दिर से बाहर निकल रही है। महताइन उसे मन्दिर से बाहर आता देख एकदम तमतमा जाती है और डर में जीने लगती है कि सुबह - सुबह जोखन बहू के दर्शनों का अंजाम क्या होगा। महताइन का यह व्यवहार अन्धविश्वास का द्योतक है और साथ ही उसका यह व्यवहार अमानवीयता का द्योतक है, क्योंकि उसके कहे अपशब्द जोखन बहू के हृदय को ठेस पहुँचाते हैं - "जोखन बहू को काटो तो खून नहीं। ....आज का दिन सकुशल बीत जाए तो तुम्हें चुनरी चढ़ाऊँगी मैया।" लेकिन महताइन की दृष्टि में जोखन बहू का दिख जाने का मतलब था अपसगुन। अब यह अपसगुन टलता कैसे "भर बल्टा दस लीटर दूध चौखट से टकराकर गिर गया, अंगूठे में जो ठेस लगी सो अलग। ... क्या किया उसने ? मन्दिर भरस्ट कर दिया, देवी को भरस्ट कर दिया, अभी पूछते हो, किया क्या।" भारतीय समाज के विचारों का द्वन्द्व कभी सुलझता दिखाई नहीं पड़ता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस समाज में स्त्री को देवी तुल्य समझा जाता है, उसी समाज में स्त्री द्वारा मन्दिर प्रवेश कर जाने पर सज़ा सुनाई जाती है। यह दोमुंहा समाज है। जहां औरत यदि संतान पैदा करती है तो वह देवी स्वरूपा मानी जाती है और यदि वह बांझ निकलती है तो वह डायन बना दी जाती है ओर यदि वह छोटी जाति की होती है तो अमानवीय व्यवहार और अधिक बढ़ जाता है।
स्त्री ही स्त्री की पीड़ा को समझ सकती है, लेकिन यह धारणा इस कहानी को पढ़ने के उपरान्त बदल जाती है। उच्च जाति की महताइन, जोखन बहू की आन्तरिक वेदना को समझने के बजाय उसकी परिस्थिति का मज़ाक लेती हुई डागदर बाबू से कहती है कि - "गाय-भैंस को गाभिन करवताते हो डागदर बाबू, तनी इस जोखन बहू को भी कोई सुई ...!" आधी बात कहकर वह रस के सरोवर गोते लगाने लगती है। यह वह स्त्री अपशब्द बोलती है जिसके मुँह से दूधो नहाने और पूतो फलने वाली आर्शीवाद निकलते हैं। इस सन्दर्भ से स्पष्ट होता है कि एक स्त्री ही यदि स्त्री की मनःस्थिति को नहीं समझ पाती है तो दुनिया का और शख्स स्त्री के भीतरी यथार्थ को क्या समझ पाएगा। स्त्री संवेदनशील मानी जाती है, वह कोमलता की प्रतिमूर्ति है, वह दूसरों के लिए प्राण न्यौछावर करने वाली है, वह दूसरों का सहारा बनती है लेकिन महताइन का अहं से भरा पड़ा व्यवहार इस बात का प्रमाण है कि जाति के ऊँचेपन ने और पैसे के लोभ ने औरत को भी संवेदनहीन बना दिया है।
जोखन बहू के दुर्भाग्य पर सारा गाँव उसे कोसता लेकिन जोखन भूले-बिसरे कभी भी अपनी पत्नी को कोसता नहीं है, न ही उसके बांझपन के लिए और न ही उसके कानेपन के लिए। जोखन बहू को यदि कोई सहारा था, तो वह केवल जोखन का ही था। समाज जोखन बहू के पति को कानी का पति कहकर सम्बोधित करते तो वह लोगों पर व्यंग्य बाण कसता हुआ कहता है कि -- हो गयी तसल्ली ! भगवान न करे तुम्हारा कोई अंग-भंग हो जाए, दुःख-तकलीफ, हारी-बीमारी हो जाए और घरवाले तुम्हें छोड़ दें तो अच्छा लगेगा ? नहीं न ! फिर हम कैसे छोड़ दें अपनी...।"
गरीबी में जीने वाले जोखन बहू और जोखन को आपस में ही एक दूसरे का सहारा था, अन्य लोग तो उनके प्रति कोई अच्छी दिलचस्पी नहीं रखते थे। गरीबी ही उन्हें निगल गई। जोखन काम तो बहुत करता लेकिन उस काम का पैसा उसे सही समय पर नहीं मिल पाता था। वह अपनी इस परेशानी को डागदर बाबू से कहता है और कोई न कोई काम मिल जाने की बात उनसे करता है। पूँजीपति एवं ऊँची जाति के लोग संवेदनहीन होते हैं इस बात का प्रमाण इसी कहानी में मिलता है। जोखन एक महीना सड़क के ठेकेदार के पास काम करता है, तीन महीने महताइन के यहाँ काम करता है, लेकिन वह पैसे मिल नहीं पाते हैं। वह अपनी मेहनत की मजदूरी मांगने जाता है तो उसे खरी खोटी ही सुनाई जाती है - "काहे गुस्सा रहे हैं मालिक, हम कोई भीख या खैरात तो मांग नहीं रहे, मजदूरी मांग रहे हैं, बकाया मजदूरी ... पहले हमारे इस लीटर दूध का दाम और मन्दिर की 'शुद्धि' के हज़ार गिन दो फिर पैसे की बात करो। तुम लोगों के चलते दो दिन से पूजा नहीं हुई, भोग नहीं चढ़ा, दो दिन से निराहार है देवी।"
भारतीय समाज के लोगों में एक धारणा यह है कि गरीब व्यक्ति चाहे भूख से तड़प-तड़प कर मर जाए लेकिन उस व्यक्ति को दो रोटी खिलाने के बजाए देवी की पूजा के प्रति चिन्तित रहेंगे, उनके आहार में छप्पन प्रकार के व्यंजन तैयार किए जाएंगे। भारत में भूख, गरीबी से कितने लोग मर जाते हैं लेकिन उन्हें रोटी नसीब नहीं होती है और न ही उनका कोई ऐसा ईश्वर है जो उनकी भूख की तृष्णा को समाप्त करे। महताइन द्वारा जिस दिन देवी मन्दिर का शुद्धिकरण करवाया जाता है, उसी दिन जोखन भूख से तड़पकर मर जाता है। सबसे दारुण एंव हृदय को दहला देने वाली स्थिति तब पैदा होती है, जब जोखन बहू पति की चिता में छलांग लगाती है और झुलस जाती है। सारे गाँव में उदासीनता का मातम छा जाता है। समाज द्वारा प्रताड़ित एवं उपेक्षित जोखन बहू आग की लपटों में स्वयं को सौंप देती है। समाज का बर्बर व्यवहार ही उसे यह घृणित क्रियाकलाप करने के लिए उकसाता है। उसे मालूम था कि जोखन पति के सिवा उसका इस दुनिया में कोई नहीं है और वह यह भी जानती थी कि भूख की तड़प से मरने वाले पति की मृत्यु का कारण भी वही समझी जाएगी इसलिए वह और समाज का दुर्व्यवहार झेल नहीं सकती थी।
वेदना से भरे इस माहौल में डागदर बाबू को छोड़ कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो जोखन बहू के मृत्यु के कारणों पर सोचता। भीड़ के लिए जोखन बहू सती बन गई थी। जीते जी जिस समाज ने उसे दुत्कारा, अपशकुनि और डायन माना, वहीं बांझ जोखन बहू उन्हीं लोगों के लिए सती मैया बन जाती है। डागदर बाबू इस स्थिति को अभिव्यक्त करते हुए कहता है कि - "अब वह मौन थी तो लोग उसे सुन रहे थे, अब वह नहीं थी तो लोग उसे देख रहे थे। अरे ऊ तो पहले ही सती थी, हमारी ही आँखों पर परदा पड़ा हुआ था ... न किसी से बोलना, न किसी से मूड़ी गाड़कर आवा, मूड़ी गाडकर जाना। इस कलियुग में देखी है ऐसी औरत ?" जिसे जीते जी पूछा नहीं। गया वहीं मरने के बाद उसके मन्दिर की स्थापना की जाती है और पैसा भी खर्च किया जाता है "एक हजार महतो ने दिए, एक हजार ठेकेदार ने बाकी सौ-पचास जिससे जो बन पड़ा सबने। ईंटें गिरीं, सीमेंट गिरा, बालू गिरी, सरिया गिरा। देखते सती चौरा बन गया। यदि जोखन को उसकी मेहनत का पैसा समय पर मिल जाता तो न जोखन मरता और न ही जोखन बहू जलती आग में अपने को सौंपती। कहानीकार समाज की मूर्खता से परिपूर्ण मानसिकता के साथ-साथ उसकी संवेदनहीनता को भी दर्शाता है। पंडित सुकुलजी महताइन द्वारा बनाए सर्वमांगला मंदिर पर जोखन बहू को पैर न धरने देता था, लेकिन जब सती मैया के मन्दिर में पैसा ज्यादा चढ़ने लगता है, तो पैसा पाने के लिए सर्वमांगला देवी के मन्दिर को छोड़ सती मैया के मन्दिर जाकर अच्छी कमाई करने लगता है। इससे स्पष्ट होता है कि सुकुलजी के पण्डिताई एक व्यापार है जिससे वह खूब पैसा कमाता है। सुकुलजी को ज्यादा पैसा कमाता हुआ देख जोखन की बिरादरी के सोये हुए लोग भी जाग पड़े और इन दोनों में झगड़ा पड़ जाता है -"बहू-बेटी हजारी और चढ़ावा वसूलने चले आए आप ! आप ही हर जगह दखलिया के बैठ जाएंगे तो हम कहाँ जाएंगे ?” परिस्थिति ऐसी बन चुकी थी कि उसके हत्यारों में उस पर व्यापार करने की लूट खचौट मच जाती है। 'राख' में जोखन बहू के साथ उसके पति की 'राख' भी थी। समाज ने जोखन की परिस्थितियों को समझा नहीं, यह स्थिति संवेदनहीनता की द्योतक है। ज्यादा पैसा कमाने की होड़ में लोग अपना धर्म भूलते जा रहे हैं। धर्म से तात्पर्य यहां मन्दिर बनाने से नहीं बल्कि कर्म से है।
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