मेरा ज्ञान मेरा अज्ञान निबंध का सारांश: 'मेरा ज्ञान मेरा अज्ञान' एक विचारात्मक निबंध होते हुए भी उसमें बौद्धिक व्यंग्य है। आम आदमी सफलता को ही ज्ञान म
मेरा ज्ञान मेरा अज्ञान निबंध का सारांश
'मेरा ज्ञान मेरा अज्ञान' एक विचारात्मक निबंध होते हुए भी उसमें बौद्धिक व्यंग्य है। आम आदमी सफलता को ही ज्ञान मानता है। जबकि विद्वानों के लिए हमेशा व्यावसायिक सफलता अज्ञान बनी रहती है। जीवन मूल्यों से न केवल वे परिचित होते हैं बल्कि मूल्यों का अवलंबन करते हैं। जबकि आम आदमी भौतिक चीजों में उलझा रहता है। आम आदमी धनी होना चाहता है। बैंक - बैलन्स बढ़ाने के लिए किसी भी हदतक जाकर जीवन सफल बनाना चाहता है। परंतु लेखक जीवन की बैलेंस शीट देखकर क्रोधित होता है। परंतु उसे फाड़ नहीं सकता। बर्ट्रेड रसेल, ज्याँ पाल सार्त्र, विवेकानंद आदि दुनिया के विद्वान व्यक्ति हैं, जिन्होंने जीवन-मूल्यों की सीख दुनिया को दी। परंतु आम व्यक्ति स्वार्थ केंद्रित, कुपमंडूक व्यक्ति होता है, केवल उपयोगितावाद की बात करता है। उनके लिए रोटी - कपडा - मकान सर्वोपरि है। रसेल, सार्त्र, बुद्ध, गाँधी महान है। परंतु उनकी महानता बजार का सेट मकान का मालिक एवं ऑफीस के अधिकारी के सामने फिकी पड़ जाती है। क्षुद्रता बड़ी और महानता बौनी हो जाती है। औरंगजेब हिटलर और स्टालिन तानाशाह थे। परंतु अब ये सब तानाशाह बनकर आम आदमी को त्रस्त कर रहे हैं। इस प्रकार व्यंग्य युग की विसंगति को अधोरेखित करता है।
व्यंग्यकार ने प्राध्यापकों की नियुक्ति में भ्रष्टाचार की बात की है। इस पर लेखक का भाष्य सूक्तिबद्ध होकर चित्कार उठता है, “मूल्य और चरित्र के मंदिरों में ही मूल्य और चरित्र का हनन हो रहा है। आज के शिक्षा महर्षि शिक्षा की नीलामी कर रहे हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना है। मूल्यों का हनन हो रहा है परंतु विवश प्रिंसिपल अपनी रोजी-रोटी के जुगाड़ में उनके षडयंत्र में शामिल हो रहा है।
आज लाइब्रेरी की नहीं थिएटर स्टेडियम की आवश्यकता है। लेखक की यह पंक्ति पूरी तिक्तता से भरी है। मंदिर में भजन-कीर्तन - भक्ति होनी चाहिए। लोगों ने मंदिर को पैसा कमाने का साधन बनया है। भौतिक दृष्टि से उनका विकास हुआ। परंतु मूल उद्देश्य से भटक गए । त्याग नहीं भोगवादी बन बैठे। आदमी में इंसानियत गायब होने से वह पशु बन बैठा। आजकल राजनीतिज्ञों का ही जमाना है। उन्होंने राजनीति को ही व्यापार बनाया है और दादा - पिता-बेटे, पीढ़ी दर पीढ़ी नेता बनकर मलाई खा तो रहे हैं। लेखक ने नेता और उसकी राजनीति पर करारा व्यंग्य किया है। नेता चुनाव जीतकर मंत्री बन बैठता है, केवल अपनी सात पुश्तों के उद्धार के लिए भ्रष्टाचार करता है। जनता की सेवा नहीं करता, केवल मेवा खाकर मेवालाल बन बैठता है। इन सब बातों को लेखक व्यंग्यात्मक ढंग से अभिव्यक्त करता है।
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